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'मजा मारें गाज़ी मियां, धक्का खाये मुजावर' बनाम 'ठांय-ठांय'

    • हिमांशु सिंह
    • Updated: 19 अक्टूबर, 2018 07:38 PM
  • 19 अक्टूबर, 2018 07:38 PM
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एनकाउंटर के दौरान, मुश्किल क्षणों में पुलिस का मुंह से ठांय-ठांय की आवाज़ निकालना उनकी सूझ बूझ नहीं दिखाता बल्कि ये बताता है कि हमारी पुलिस हथियारों की कमी झेल रही है जिसे सरकार को जल्द से जल्द पूरा करना चाहिए.

बेहद औसत दर्जे की कॉमेडी फिल्मों में ही ऐसे मजाकिया दृश्य देखे थे, जब अभिनेता गोलियां खत्म होने पर मुंह से ही 'ठांय-ठांय' बोल कर विपक्षी को डरा दिया करते थे. अब उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस कॉमेडी सीन का असल जिन्दगी में मंचन कर दिया. लेकिन असल जिन्दगी में अगर मुठभेड़ के दौरान पुलिस की बन्दूक से गोली नहीं चल पाती, तो भरोसा कीजिये, ये सीन कहीं से भी कॉमेडी नहीं है. असल में ये एक भयानक ट्रेजडी है. जब हमारे पुलिसकर्मी मूलभूत सुविधाओं की कमी के बावजूद अपराधियों से मुठभेड़ कर रहे हैं. समझने की बात है कि लड़ाई के दौरान एक निहत्था सिपाही एक आम नागरिक से ज्यादा जोखिम में रहता है.

एनकाउंटर के दौरान यूपी पुलिस का मुंह से ठांय-ठांय करना हैरत में डालने वाला है

ऐसे में मेरे जेहन में दो सवाल हैं. पहला ये कि क्या हमारी पुलिस के पास सच में हथियारों की कमी है? दूसरा ये कि अपराधियों को हथियार मिल कहाँ से रहे हैं? उम्मीद है आपके चेहरे पर 'ये अन्दर की बात है' वाली शरारती मुस्कान आ गई होगी. तो आगे पढ़कर शायद आपकी मुस्कान में चार चांद लग जायें.

कितना आश्चर्यजनक संयोग है कि पुलिस और अपराधी, दोनों एक दूसरे का मुकाबला ज्यादातर समान बोर के हथियारों से ही कर रहे हैं. मसलन 9mm भारतीय सेना से लेकर अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस बलों की पहली पसंद का बोर है. सक्षम और सटीक. और पुलिस के लिये सिरदर्द बन चुके पेशेवर अपराधी हों, चाहे अर्धसैनिक बलों से मोर्चा लेने वाले नक्सली, या चाहे कश्मीर के आतंकी ही क्यों न हों, 9mm इन सब की भी पहली पसंद है.

क्या ये महज संयोग है या एक बनी-बनायी सामानांतर व्यवस्था का प्रमाण! आखिर क्या...

बेहद औसत दर्जे की कॉमेडी फिल्मों में ही ऐसे मजाकिया दृश्य देखे थे, जब अभिनेता गोलियां खत्म होने पर मुंह से ही 'ठांय-ठांय' बोल कर विपक्षी को डरा दिया करते थे. अब उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस कॉमेडी सीन का असल जिन्दगी में मंचन कर दिया. लेकिन असल जिन्दगी में अगर मुठभेड़ के दौरान पुलिस की बन्दूक से गोली नहीं चल पाती, तो भरोसा कीजिये, ये सीन कहीं से भी कॉमेडी नहीं है. असल में ये एक भयानक ट्रेजडी है. जब हमारे पुलिसकर्मी मूलभूत सुविधाओं की कमी के बावजूद अपराधियों से मुठभेड़ कर रहे हैं. समझने की बात है कि लड़ाई के दौरान एक निहत्था सिपाही एक आम नागरिक से ज्यादा जोखिम में रहता है.

एनकाउंटर के दौरान यूपी पुलिस का मुंह से ठांय-ठांय करना हैरत में डालने वाला है

ऐसे में मेरे जेहन में दो सवाल हैं. पहला ये कि क्या हमारी पुलिस के पास सच में हथियारों की कमी है? दूसरा ये कि अपराधियों को हथियार मिल कहाँ से रहे हैं? उम्मीद है आपके चेहरे पर 'ये अन्दर की बात है' वाली शरारती मुस्कान आ गई होगी. तो आगे पढ़कर शायद आपकी मुस्कान में चार चांद लग जायें.

कितना आश्चर्यजनक संयोग है कि पुलिस और अपराधी, दोनों एक दूसरे का मुकाबला ज्यादातर समान बोर के हथियारों से ही कर रहे हैं. मसलन 9mm भारतीय सेना से लेकर अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस बलों की पहली पसंद का बोर है. सक्षम और सटीक. और पुलिस के लिये सिरदर्द बन चुके पेशेवर अपराधी हों, चाहे अर्धसैनिक बलों से मोर्चा लेने वाले नक्सली, या चाहे कश्मीर के आतंकी ही क्यों न हों, 9mm इन सब की भी पहली पसंद है.

क्या ये महज संयोग है या एक बनी-बनायी सामानांतर व्यवस्था का प्रमाण! आखिर क्या कारण है कि इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर सामान्य नागरिकों के लिये प्रतिबंधित ये 9mm इन सभी की पहली पसंद है? दरअसल बात है गोलियों की उपलब्धता की. उत्तर प्रदेश और बिहार में अवैध हथियारों का निर्माण तो जगजाहिर है. राह चलते किसी छुटभैये से पूछने पर मुंगेर नाम सुनने में आ जाएगा। पर गोलियां?  गोलियों का निर्माण तो उच्च तकनीक वाले आयुध कारखानों में ही संभव है, जिसकी सप्लाई सिर्फ सुरक्षा बलों को ही होती है.

ये बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है कि यूपी में पुलिस हथियारों के संकट से जूझ रही है

तो क्या ये मामला 'मियां की जूती , मियां के सिर' वाला है? फिलहाल तो यही लगता है. 9mm की तरह ही AK47 रायफलों की आपूर्ति भी सिर्फ सुरक्षा बलों को है. पर बिहार और पूरा का पूरा पूर्वांचल पिछले कई दशकों से इन बन्दूकों की अवैध मौजूदगी का गवाह रहा है. 2005 में भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या इसी बन्दूक से 400 गोलियां दाग कर की गई थी. गोलियों की संख्या का जिक्र इसलिये जरूरी है कि जाहिर हो सके कि 'जरूरत पड़ने पर' गोलियों की भरपूर आपूर्ति होती रही है.

उम्मीद है अब तक आप सबको खूब मजा आया होगा. मन ही मन पुलिस और पूरे सिस्टम को भला-बुरा कहने का भी अपना ही मजा है. पर कभी सोचा आपने, कि पुलिस, सरकार और समाज को गाली देने से हम क्यों नहीं चूकते? 'सब चोर हैं' कहने में हम क्यों सुख पाते हैं? क्योंकि ऐसा करते हुए हम अपनी गलती भी उसी व्यवस्था पर ही थोप रहे होते हैं , जिसका हम खुद एक हिस्सा हैं.

हां ये सच है कि 9mm पेशेवर अपराधियों का पसंदीदा बोर है. लेकिन 9mm के ठीक बाद अपराधी जिस बोर का सबसे ज्यादा चुनाव करते हैं वो है 32बोर. चुनाव इसका भी गोलियों की सुलभता के चलते ही किया जाता है. अन्तर बस इतना है कि 32बोर पुलिस बोर न होकर सर्वाधिक प्रचलित पब्लिक बोर है. उम्मीद है मुस्कान में कुछ कमी आई होगी.

अब आगे सुनिये. 32बोर के बाद अगला नंबर 315बोर(रायफल) का आता है. ये भी पब्लिक बोर ही है. और उसके बाद उनका पसंदीदा 12बोर ( वही लाल और मोटे कारतूस)भी दरअसल सिविल बोर ही है. उम्मीद है अब आप गम्भीर हो गये होंगे. पर मेरा उद्देश्य आपको दुखी या परेशान करना नहीं है. मैं तो बस यही चाहता हूं कि हम ज्यादा से ज्यादा पक्षों पर विचार करें और अपनी गलतियों को स्वीकार करें. वो पुलिसवाला अपना मजाक बनवाने के लिये मुंह से गोलियों की आवाज नहीं निकाल रहा था.  वो तो बस अपनी जान बचा रहा था. और हम सभी के लिये उसकी ये त्रासदी एक चुटकुला बन कर रह गई.

तो अब गाज़ी मियां कौन-कौन हैं, और मुजावर कौन, ये तो आप समझ ही गये होंगे. खैर गोली मारिये इस चर्चा को, अब बाकी बात इस शे'र के बहाने सुनिये. अर्ज है.

जो कुल्हाड़ी में लकड़ी का दस्ता न होता

तो लकड़ी के कटने का रस्ता न होता.

बाकी इसमें कोई शक नहीं समझदार तो आप सब हैं ही.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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