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जब मुस्लिम बच्चे ने हिंदू युवक से कहा - ये पूजा वाले हैं, इनको क्यों नमस्ते करें

    • रणविजय सिंह रवि
    • Updated: 04 जनवरी, 2018 08:05 PM
  • 04 जनवरी, 2018 08:05 PM
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धर्म में ठेकेदारी कोई नई चीज नहीं है. आज हमारे समाज में धर्म चाहे कोई भी हो, ठेकेदार भरे पड़े हैं मगर क्या कभी हमने ये सोचा है कि कैसे धर्म या किसी अन्य धर्म से जुड़ी बातें हमारे जीवन और व्यक्तिगत विकास को प्रभावित करती हैं?

हिंदुत्व-इस्लाम, हिन्दू-मुस्लिम, मदरसा -संघ, मंदिर-मस्जिद जैसी बातों पर आज हम लोग एक दूसरे को लड़ने- भिड़ने, मरने-मारने को उतारू हैं. मगर जब इन बातों को एक आम आदमी सोचता है तो उसे ये बातें अपने जीवन में कुछ भागों में दिखती हैं. आइये जानें कि ये अलग-अलग भाग कैसे हम साधारण लोगों के जीवन को प्रभावित करते हैं और उसे बदल कर रख देते हैं.

सलाम

मेरे गांव उमराडीह, जिला अमेठी, अवधीभाषी क्षेत्र में बचपन से ही आना जाना लगा रहता था, हालांकि पैदा हुआ, पला बढ़ा दिल्ली में. पिताजी मुद्रा की कमी के चलते बहुत पहले दिल्ली शहर आ गए थे कमाने. ये कहानी फ़िर कभी. तो गांव आना जाना बराबर रहता था, गर्मियों की छुट्टियां वहीं बीतती थीं. एक शब्द ने बड़े होने पर सकारात्मक रूप से सोचने पर मजबूर किया. कहीं भी गांव में आना जाना होता, रिश्तेदारियों में भी, बड़े बूढ़ों को कैसे सम्बोधित करते थे, याद है अच्छे से. झुककर पैर छूना और बोलना बुआ सलाम, आजी सलाम, भौजी सलाम, बाबा सलाम. ये होती थी दुआ सलाम. मेरे गांव में उस वक़्त कोई मस्ज़िद न थी, पर सलाम था. मुस्लिम परिवार शायद एक ही था, पर सलाम था. हिंदुओं के गाँव में सलाम क्यों था? उतनी सहज स्वीकृति क्यों थी? सहजता एक उर्दू शब्द के लिए क्यों थी? जवाब आप जानते हैं, आज स्वीकारेंगे नहीं. उसका कारण था, धार्मिक मान्यताओं में लोच, फ्लेक्सिबिलिटी. ख़ैर

धर्म को यदि हम अपने जीवन में देखें तो मिलता है कि ये कई खण्डों में हमारे जीवन को प्रभावित करता है

ईश्वर सब जगह हैं

मैं अपनी ठेठ बूढ़ी औऱ पक्की हिन्दू मां को लेकर दिल्ली के सीमापुरी बस स्टैंड पर उतरा बस से, दिलशाद गार्डन अपनी बुआ के घर जाने के लिए. रास्ते में एक क़ब्रिस्तान पड़ता है, जब उसके आगे पहुंचे तो क़ब्रिस्तान के बड़े से दरवाज़े के आगे...

हिंदुत्व-इस्लाम, हिन्दू-मुस्लिम, मदरसा -संघ, मंदिर-मस्जिद जैसी बातों पर आज हम लोग एक दूसरे को लड़ने- भिड़ने, मरने-मारने को उतारू हैं. मगर जब इन बातों को एक आम आदमी सोचता है तो उसे ये बातें अपने जीवन में कुछ भागों में दिखती हैं. आइये जानें कि ये अलग-अलग भाग कैसे हम साधारण लोगों के जीवन को प्रभावित करते हैं और उसे बदल कर रख देते हैं.

सलाम

मेरे गांव उमराडीह, जिला अमेठी, अवधीभाषी क्षेत्र में बचपन से ही आना जाना लगा रहता था, हालांकि पैदा हुआ, पला बढ़ा दिल्ली में. पिताजी मुद्रा की कमी के चलते बहुत पहले दिल्ली शहर आ गए थे कमाने. ये कहानी फ़िर कभी. तो गांव आना जाना बराबर रहता था, गर्मियों की छुट्टियां वहीं बीतती थीं. एक शब्द ने बड़े होने पर सकारात्मक रूप से सोचने पर मजबूर किया. कहीं भी गांव में आना जाना होता, रिश्तेदारियों में भी, बड़े बूढ़ों को कैसे सम्बोधित करते थे, याद है अच्छे से. झुककर पैर छूना और बोलना बुआ सलाम, आजी सलाम, भौजी सलाम, बाबा सलाम. ये होती थी दुआ सलाम. मेरे गांव में उस वक़्त कोई मस्ज़िद न थी, पर सलाम था. मुस्लिम परिवार शायद एक ही था, पर सलाम था. हिंदुओं के गाँव में सलाम क्यों था? उतनी सहज स्वीकृति क्यों थी? सहजता एक उर्दू शब्द के लिए क्यों थी? जवाब आप जानते हैं, आज स्वीकारेंगे नहीं. उसका कारण था, धार्मिक मान्यताओं में लोच, फ्लेक्सिबिलिटी. ख़ैर

धर्म को यदि हम अपने जीवन में देखें तो मिलता है कि ये कई खण्डों में हमारे जीवन को प्रभावित करता है

ईश्वर सब जगह हैं

मैं अपनी ठेठ बूढ़ी औऱ पक्की हिन्दू मां को लेकर दिल्ली के सीमापुरी बस स्टैंड पर उतरा बस से, दिलशाद गार्डन अपनी बुआ के घर जाने के लिए. रास्ते में एक क़ब्रिस्तान पड़ता है, जब उसके आगे पहुंचे तो क़ब्रिस्तान के बड़े से दरवाज़े के आगे मेरी मां जिन्हें बड़े प्यार से अम्मा बुलाता था, ने झुककर हाथ जोड़े औऱ कुछ बुदबुदाई, मैं नौजवान विराट हिन्दू युवक, मुस्कुरा दिया. आगे बढ़े तो मैंने ठिठोली में अम्मा से पूछा कि अम्मा जानत हौ कि कवन जगह रही ऊ जहाँ प्रणाम करत रहियु? (मां जानती हो कौन सी जगह थी जहाँ प्रणाम किया?) अम्मा कहिन, नाहीं भैया, काहे? मैंने बताया क़ब्रिस्तान रहा, जहां मुसलमान दफ़नवा जात हैं, मेरी अनपढ़ अम्मा बड़ी सहजता से बोलीं कि का भवा भैया, भगवान तौ सभय जगह हँय न (क्या हुआ भगवान तो हर जगह हैं न), अम्मा ने वो सहज बात बताई जो जानने के लिए लोग सत्संगों में उमड़े जाते हैं, और राम-रहीम, आसाराम जैसे न जाने कितने स्वयंभू निर्मित होते हैं. अम्मा के सहज ज्ञान का स्त्रोत पता है क्या था? धार्मिक सोच में लोच, फ्लेक्सिबिलिटी, ख़ैर.

पूजा वाले

पहलवान जी की, भाई साहब की दुकान, इसी नाम से जाना मैंने अपने पुराने मोहल्ले की उस दुकान को, जो खजूरी चौक से मेन मार्किट में उतरते वक़्त ढलान ख़त्म होने से पहले दाहिनी तरफ़ पड़ती है. जबसे समझ हुई, तबसे भाई साहब, पहलवान जी की दुकान पर आना जाना लगा है, अब जबकि मुहल्ला छोड़े 5 साल हो गए, तब भी गाहे-बगाहे जाना आना लगा रहता है, कभी किराएदारों से किराया लेने, या कभी कुछ औऱ काम, या पुराने मित्रों से मिलने. पहलवान जी, भाई साहब जिन्हें में आज भी, अंकल नमस्ते, सलाम, और शब्बाखैर बोलता हूं, रामपुर के किसी गांव से बहुत साल पहले आये थे दिल्ली, कुछ पारिवारिक परेशानियों के चलते अपना पैतृक गांव छोड़ शहर की राह पकड़ी, नए भविष्य, नए धन्धे की तलाश में.

माशाअल्लाह वो आये इस मुहल्ले में, दुकान और उनकी मेहनत रंग लाई, अल्लाह का करम हुआ कि बहुत अच्छी चली दुकान, जो आज भी चल रही है, ईश्वर करें हमेशा चले. मेरा जैसा स्वभाव है, उसके चलते दिल के किसी कोने में अंकल जी और उनके परिवार के लिए बड़ी इज़्ज़त है, और अंकल जी भी बहुत प्यार देते हैं, आज भी जब जाता हूं तो कई बार बड़ी मान-मनुहार करनी पड़ती है कि अंकल प्लीज पैसे ले लो जो मैंने सामान लिया. और वो भी हमेशा की तरह अपने दुःख और तकलीफ़ें साझा करते हैं.

ऐसे ही इक रोज़ वो अपनी बातें मुझे बता रहे थे, मैं दुकान के बाहर कोने में बैठा उन्हें सुन रहा था और कुछ अपनी सुना रहा था, इतने में पहलवान जी के पोते-पोती आये, जो बमुश्किल दूसरी और तीसरी कक्षा में रहे होंगे, उनके आते ही अंकल ने मेरी तरफ़ मुख़ातिब होकर कहा बेटा नमस्ते करो अंकल को, पता है वो छोटे-छोटे, नन्हें-नन्हें प्यारे-प्यारे बच्चे क्या बोले? "ये पूजा वाले हैं, इनको क्यों नमस्ते करें?" मैं जो बचपन से अपने, और उनके सुख दुःख का साक्षी था अचानक पूजा वाला बन गया. मुझे उन बच्चों के शब्दों से आजतक शिक़ायत नहीं, वो मासूम थे और हैं भी, बस सोचने पर मजबूर हुआ कि कौन सी तालीम, कौन सा इल्म उन्हें ऐसा कहने पर मजबूर करता है? मुझे शिक़ायत है अंकल से कि जब जब मैंने उन्हें सलाम कहा, उनके मुंह से वा-अलै-कुम सलाम न निकला मेरे लिए. पता है इन सब बातों का एक अहम कारण क्या है? धार्मिक मान्यताओं और सोच में लोच, फ्लेक्सिबिलिटी का न होना, ख़ैर.

क्लाइमैक्स

अव्वल तो मेरी इस बात को ज़्यादा लोग समझेंगे नहीं, समझ भी लिया तो कुछ तथाकथित हिन्दू धार्मिक ठेकेदार वाह-वाह करते आएंगे और कहेंगे कि हां भाई सही लिखा, ये तो होते ही ऐसे हैं. उनको कहना चाहूंगा, अपनी दुकान आगे बढ़ाइए मेरे इस अंगने में आपका कोई काम नहीं है. अगर कुछ भाईजान आये और सफ़ाई देनी चाही कि नहीं भाई ऐसा होता है, वैसा होता है, ये कारण, वो कारण, तो कहना चाहूंगा कि भाई कबूतर आंखें भले ही मूंद ले, बिल्ली से बचेगा नहीं. यहां बिल्ली वो कट्टरता है जिसे समझने और समझाने का प्रयत्न आप लोग जाने कौन से कारणों से नहीं कर पा रहे हैं, और लगे हैं सफ़ाई देने में, बढ़िया-बढ़िया कहानियां गढ़ने में.

भारत में आरएसएस है, संघी हैं. ठीक है, यही कारण हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, ईरान, इराक, सीरिया इत्यादि में कौन से संघी हैं, कौन सीआरएसएस है? और जान लीजिए मेरे कुछ अपने ब्रिटेन के ल्यूटन, ब्रेडफोर्डशायर, और कनाडा जैसी जगहों में भी रहते हैं, बताते रहते हैं कि कैसे कट्टरता हावी हो रही है उन जैसे विकसित देशों में भी. तो बहनों और भाइयों कुछ लाइक्स के लिए अनर्गल न लिखो, सच्चाई को भारत देश और उसकी संस्कृति के अनुसार देखने की ज़रूरत नहीं, बस कबूतर न बनों. आंखें खुली रखें, वरना कट्टरता नाम की बिल्ली निगल जाएगी हम सबको. 

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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