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Coronavirus को लेकर herd immunity पाने का तरीका भारतीय गांवों में आसानी से उपलब्ध है

    • अंकिता जैन
    • Updated: 03 जून, 2020 02:12 PM
  • 03 जून, 2020 02:12 PM
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कोरोना के इस दौर में लगातार हम डॉक्टर्स के मुंह से इम्युनिटी (Coronavirus immunity) बढ़ाने की बातें सुन रहे हैं. इस स्थिति में हमें भारतीय गांवों या ये कहें कि बड़े बुजुर्गों के साए में जाना चाहिए जिनके पास आज भी इम्युनिटी बढ़ाने के रामबाण नुस्खे हैं.

How to boost Coronavirus immunity? What is herd immunity? आज ये सवाल सभी केे मन में है. इन सवालोंं के जवाब एक कहानी के जरिए ढूंढते हैं:  

वह साल 96 था. पापा का तबादला हुआ तो हम भौंती पहुंचे. शिवपुरी जिले का एक छोटा सा गांव. मोहल्ले में हम कई सारे बच्चे थे. कुछ मकानमालिक के. कुछ पड़ोसियों के. एक घर में गाय थी. उनका घर कच्चा था. ज़मीन गोबर से लिपती. एक घर में अमरूद के पेड़ थे. जिस पर सारे मोहल्ले के बच्चे लदे रहते. कुल मिलाकर एकदम देसी परिदृश्य. अलग-अलग जातियों के लोग थे मोहल्ले में. आर्थिक रूप से देखा जाए तो अलग-अलग तबके के भी. मिडिल क्लास से लेकर ग़रीबी रेखा के नीचे वाले तक. लेकिन ये विभाजन मैं आज कर सकती हूं. उस समय ये सब समझ नहीं थी. उस समय तो बस खेलने से मतलब होता था. कौन किस जात का है, कितना अमीर है, कैसे स्कूल में पढ़ता है, अंग्रेजी बोल पाता है कि नहीं, कितने नम्बर आते हैं, इस सब से ना हमें मतलब होता था ना हमारे घरवालों को. धूल-मिट्टी में खेलते. खेत में घूमते. खेत की छोटी सी नहर में नहाते. जामुन के पेड़ पर चढ़ते. गाय का गोबर लीपते. कंडे बनाते. मिट्टी के बर्तन-चूल्हा-सब्जी बनाते. सूखे पत्तों से घर बनाते. कभी मम्मी-पापा को कहीं जाना होता तो पड़ोसियों के भरोसे छोड़ जाते.

अगर आज भी आपको बचपन का सही सुख देखना हो तो आप भारत के गांवों की यात्रा कर सकते हैं

मुझे याद है, जिनके घर हम अक्सर रुक जाते थे उनके यहां बिस्तर कपड़ों से ही बने होते थे. गांव में उसे कथरी कहते हैं. घर के पुराने कपड़ों की चिन्दियों से कातकर बनाए गए ओढ़ना-बिछौना. तब इस बात की परवाह नहीं होती थी कि हमें कैसे बिस्तरों पर सुलाया जाएगा? कमरे में एसी-कूलर होगा या नहीं? कैसा खाना खिलाया जाएगा? कैसा पानी पिलाया जाएगा?

तब दोस्ती मन...

How to boost Coronavirus immunity? What is herd immunity? आज ये सवाल सभी केे मन में है. इन सवालोंं के जवाब एक कहानी के जरिए ढूंढते हैं:  

वह साल 96 था. पापा का तबादला हुआ तो हम भौंती पहुंचे. शिवपुरी जिले का एक छोटा सा गांव. मोहल्ले में हम कई सारे बच्चे थे. कुछ मकानमालिक के. कुछ पड़ोसियों के. एक घर में गाय थी. उनका घर कच्चा था. ज़मीन गोबर से लिपती. एक घर में अमरूद के पेड़ थे. जिस पर सारे मोहल्ले के बच्चे लदे रहते. कुल मिलाकर एकदम देसी परिदृश्य. अलग-अलग जातियों के लोग थे मोहल्ले में. आर्थिक रूप से देखा जाए तो अलग-अलग तबके के भी. मिडिल क्लास से लेकर ग़रीबी रेखा के नीचे वाले तक. लेकिन ये विभाजन मैं आज कर सकती हूं. उस समय ये सब समझ नहीं थी. उस समय तो बस खेलने से मतलब होता था. कौन किस जात का है, कितना अमीर है, कैसे स्कूल में पढ़ता है, अंग्रेजी बोल पाता है कि नहीं, कितने नम्बर आते हैं, इस सब से ना हमें मतलब होता था ना हमारे घरवालों को. धूल-मिट्टी में खेलते. खेत में घूमते. खेत की छोटी सी नहर में नहाते. जामुन के पेड़ पर चढ़ते. गाय का गोबर लीपते. कंडे बनाते. मिट्टी के बर्तन-चूल्हा-सब्जी बनाते. सूखे पत्तों से घर बनाते. कभी मम्मी-पापा को कहीं जाना होता तो पड़ोसियों के भरोसे छोड़ जाते.

अगर आज भी आपको बचपन का सही सुख देखना हो तो आप भारत के गांवों की यात्रा कर सकते हैं

मुझे याद है, जिनके घर हम अक्सर रुक जाते थे उनके यहां बिस्तर कपड़ों से ही बने होते थे. गांव में उसे कथरी कहते हैं. घर के पुराने कपड़ों की चिन्दियों से कातकर बनाए गए ओढ़ना-बिछौना. तब इस बात की परवाह नहीं होती थी कि हमें कैसे बिस्तरों पर सुलाया जाएगा? कमरे में एसी-कूलर होगा या नहीं? कैसा खाना खिलाया जाएगा? कैसा पानी पिलाया जाएगा?

तब दोस्ती मन से होती थी. उनके नंबर, हुनर, पैसा, स्टैण्डर्ड, क्वालिटी या अंग्रेजी में दक्षता देखकर नहीं. मां-बाप हर समय कम्पटीशन की टेंशन में नहीं जीते थे. तब 'स्टैण्डर्ड' सिर्फ महानगरों तक सीमित था. गांव के लोग तब भी सादा जीवन जी रहे थे. हाथ-पैर फटने की, मिट्टी में गंदे होने की, धूल-धूप में खेलने से काले होने की ना हमें परवाह थी ना घरवालों को.

बस शाम को घर जाओ तो बढ़िया से रगड़कर हाथ-मुंह धो लिए. कपड़े बदल लिए. हो गया. बालों में तेल चुपड़ दिया. आज ज़रा-ज़रा से बच्चे बालों में जेल लगाते हैं. आज कोरोना काल में हर तरफ इम्युनिटी बढ़ाओ की बात चल रही है. रिपोर्ट्स बता रही हैं कि भारत में रिकवरी रेट 42% है. यह अन्य देशों से बहुत ज़्यादा है.

ऐसा हमारी इम्युनिटी की वजह से है. दूसरे देशों में हाल बहुत बुरा है. अब हर तरफ़ इम्युनिटी बढ़ाने के गुर सिखाए जा रहे हैं. टिप्स दिए जा रहे हैं. लेकिन इस तात्कालिक आपाधापी से इतर आज के बच्चों की इम्युनिटी बढ़ाने के लिए हम क्या कर रहे हैं? क्या आप बच्चे को पैर फटने की चिंता किए बिना मिट्टी में खेलने देते हैं? क्या हम छोटी-मोटी बीमारी में घरेलू या देसी उपचार करते हैं?

गांवों में खुली हवा में बेफिक्री से खेलते बच्चे

मेटरनिटी से जुड़े एक ग्रुप में मुझे सलाह दी गई थी कि बेटे को विटामिन डी बढ़ाने के लिए उसे टैबलेट दी जाएं. मैंने यह सलाह ना मानते हुए उसे भरपूर धूप में रखा. उससे बेहतर स्रोत क्या होगा? बुख़ार आदि में उसके लिए घरेलू उपचार किए. चोट लगती है तो सबसे पहले उस पर हल्दी लगाते हैं. अब बच्चों को स्ट्रॉन्ग बनाने के लिए, लंबा करने के लिए, मोटा करने के लिए, केल्शियम बढ़ाने के लिए.

हर चीज़ के लिए पाउडर हैं. टैबलेट्स हैं. लेकिन क्या टैबलेट्स या पाउडर बिना कैमिकल्स के बनते हैं? क्या ये शरीर की इम्युनिटी को कोई हानि नहीं पहुंचाते? कभी सोचा है इस बारे में? मम्मी हमें सुबह खाली पेट तुलसी, काली मिर्च, और मुनक्का देती थीं. इम्युनिटी बढ़ाने के लिए. दस्त लगें तो नमक शक्कर का घोल या दही भात. यहाँ तक कि पांचवी क्लास में लगा चश्मा भी मम्मी के घरेलु उपचार से उतर गया.

हर तीसरे दिन मक्खन बनता. मम्मी हथेली पर रख देतीं, हम चांट लेते. दूध-दही खाते. केल्शियम की भरपाई हो जाती. दूध-केला, दूध-दलिया से ताक़त मिलती. कच्ची हल्दी, अदरक का काढ़ा, बुख़ार आए तो तलबों पर घी को मथकर लगाना. नीम की कोंपल, दांतों के लिए दातुन.

अब यह सब ओल्ड फैशन्ड माना जाने लगा है. घरों में ही हर चीज़ का उपाय होता है. यह हम अब भूल रहे हैं. अब टीकाकरण के बाद आने वाले बुख़ार के लिए लोग बच्चों को बुख़ार की दवा दे देते हैं. पहली बार सुना था तो मैं हैरान थी. क्योंकि टीकाकरण के बाद बच्चों को बुख़ार आना सामान्य है. इसमें दवा देना जबरन उनके शरीर में केमिकल्स को डालना है.

आज भी गांवों में लोग दवाओं के मुकाबले आयुर्वेद को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं

असल में आज हम मानसिक रूप से कमज़ोर हो गए हैं. ज़रा बुख़ार आया कि एंटीबायोटिक दे दो. ज़रा चोट लगी कि पेनकिलर दे दो. बच्चे के शरीर को ख़ुद से लड़ना सीखने ही नहीं देते. मम्मी-दादियों से तो हमारी ऐसी ठनी है कि उनके घरेलू ज्ञान को हंसकर टाल देते हैं. ये मत खाओ, वो मत खाओ बीमार हो जाओगे. आरो का पानी पियो.

हायज़ीन का ख़याल रखते-रखते हमने उनके शरीर को इतना नाज़ुक बना दिया है कि मामूली सा रोग भी उन्हें तोड़ दे. पश्चिम की नकल करने के चक्कर में हमने फिल्टर्ड पानी पीना शुरू कर दिया. घरों में गाय रखनी बंद कर दीं. दोना-पत्तल में खाने को ग़रीबी मानने लगे. ये और बात है कि पश्चिम ही अब सिखा रहा है कि गाय के साथ 30 मिनिट गुज़ारने से मेन्टल हेल्थ थैरेपी होती है. दोना-पत्तल में खाना प्रकृति के लिए बेहद फायदेमंद है.

बच्चों को मिट्टी में खेलने से वे मजबूत होते हैं. नकल करने में हम इतने माहिर हैं कि अब हर घर में 'वेस्टर्न पॉट' लग गए. गुसलखाने में भी कुर्सी का ये चलन धड़ल्ले से चला. बच्चे उकड़ू बैठकर पॉटी करना और हाथ से धोना नहीं जानते क्योंकि हैंडशावर होते हैं. वहीं अब विज्ञान कह रहा है कि वेस्टर्न पॉट पर बैठकर किए गए मल त्याग से पेट ढंग से साफ़ नहीं होता.

आप विदेशियों की तरफ़ उबला खाने खाते हैं तो अलग बात है. खाने भी मिर्च-मसाले हैं तो जाने में भी देसी अपनाना लाभकारी रहेगा. इंडियन स्टाइल में पॉटी करने से ये समस्या नहीं होती तो अब पॉट के साथ पीढ़ा भी मिलने लगे हैं, ताकि कुर्सी पर भी उकड़ू बैठा जा सके. अद्वैत नंगे पैर मिट्टी में खेलता है. दिनभर नंगे पैर ही घूमता है. उसके छोटे से पैर कटे-फटे से दिखते हैं.

इलाज ये है कि मैं रोज़ शाम उसके पैरों की मालिश करती हूं बजाय उसे मिट्टी में खेलने से रोकने के. नंगे पैर रहना उसके पैरों को मजबूत बनाएगा. बचपन में हम दोनों बहनें अड़ोसी-पड़ोसी के यहां खा आते थे. खेलते रहते थे. ख़ूब धूप में खेलते थे. यही आज अद्वैत करता है तो देखकर अच्छा लगता है. बजाय इसकी परवाह किए कि किसमें हायज़ीन है, कौन सा पानी आरो का है.

आप जितना देसी रहेंगे, और जितना देसी बच्चों को रखेंगे रोग प्रतिरोधक क्षमता उतनी ही बढ़ेगी. और यही आपके बच्चों के कल को सुरक्षित रखेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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