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समाज

...और इस तरह व्यवसायिकता ने हिंदी को सर्कस का शेर बना दिया

    • नवेद शिकोह
    • Updated: 14 सितम्बर, 2021 06:29 PM
  • 14 सितम्बर, 2021 06:29 PM
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Hindi Diwas 2021 : हिन्दी अखबार और हिन्दी फिक्शन इंडस्ट्री (हिन्दी सिनेमा, टीवी धारावाहिक, विज्ञापन इत्यादि) हिन्दी भाषा के सबसे बड़े प्लेटफार्म हैं. इनकी व्यवसायिक हवस ने आसान और आम बोलचाल की भाषा को परोसने के नाम पर हिन्दी का बलात्कार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

हिंदी हमारी मातृ भाषा भी है और राष्ट्र भाषा भी. विभिन्न भारतीय भाषाओं के जंगल की राजा हिंदी बेचारी सर्कस के शेर जैसी हो गई है. व्यवसायिकता ने इस पर बहुत अत्याचार किए हैं. हिन्दी अखबार और हिन्दी फिक्शन इंडस्ट्री (हिन्दी सिनेमा, टीवी धारावाहिक, विज्ञापन इत्यादि) हिन्दी भाषा के सबसे बड़े प्लेटफार्म हैं. इनकी व्यवसायिक हवस ने आसान और आम बोलचाल की भाषा को परोसने के नाम पर हिन्दी का बलात्कार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अंग्रेजी, उर्दू और प्रचलन के बेतुके प्रचलित शब्दों की खिचड़ी को हिन्दी के सब से बड़े प्लेटफॉर्म हिन्दी अखबारों और हिन्दी फिल्मों में परोसा जाता है.कहते हैं कि शुद्ध भाषाई शब्द और व्याकरण बहुसंख्यक आम लोगों (दशकों/पाठकों) को नहीं भाएगा. लेकिन सच ये है कि जब आप परोसोगे ही नहीं तो राष्ट्र भाषा का शुद्ध रूप प्रचलन मे कैसे आएंगे! समस्या यही है कि जिस भाषा की गोद मे बैठकर आप व्यापार कर रहे हो व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में उस भाषा की ही टांग तोड़ देना क्या न्यायोचित है?

हिंदी की यदि दुर्दशा हुई है तो इसके लिए सरकार और समाज दोनों जिम्मेदार हैं

अपनी मातृ और राष्ट्रभाषा के सम्मान, रक्षा और उत्थान के लिए आप ज़रा भी व्यवसायिक रिस्क नहीं लेना चाहते. गलती आम पाठकों और दर्शकों की भी है जो 'दिल मांगे मोर' जैसे वाक्यों और हिंग्लिश के बाजार को आगे बढ़ा रहे हैं. भारत की आधी आबादी हिन्दी विहीन है, हिन्दी बोलना, लिखना तो छोड़िए यहां क्षेत्रीय भाषाओं के आगे आम तौर से लोगों को राष्ट्रभाषा का बेसिक ज्ञान भी नहीं.

शेष देश का आधा भू-भाग जो हिन्दी भाषी कहा जाता हैं यहां भी राष्ट्रभाषा के अधिकांश शब्दों को क्लिष्ट कहकर किनारे कर दिया गया है. कहा जाता है कि ऐसे शब्द सहज नहीं होते. यही कारण है कि भाषा के मूल शब्दकोष और व्याकरण दुर्लभ होता...

हिंदी हमारी मातृ भाषा भी है और राष्ट्र भाषा भी. विभिन्न भारतीय भाषाओं के जंगल की राजा हिंदी बेचारी सर्कस के शेर जैसी हो गई है. व्यवसायिकता ने इस पर बहुत अत्याचार किए हैं. हिन्दी अखबार और हिन्दी फिक्शन इंडस्ट्री (हिन्दी सिनेमा, टीवी धारावाहिक, विज्ञापन इत्यादि) हिन्दी भाषा के सबसे बड़े प्लेटफार्म हैं. इनकी व्यवसायिक हवस ने आसान और आम बोलचाल की भाषा को परोसने के नाम पर हिन्दी का बलात्कार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अंग्रेजी, उर्दू और प्रचलन के बेतुके प्रचलित शब्दों की खिचड़ी को हिन्दी के सब से बड़े प्लेटफॉर्म हिन्दी अखबारों और हिन्दी फिल्मों में परोसा जाता है.कहते हैं कि शुद्ध भाषाई शब्द और व्याकरण बहुसंख्यक आम लोगों (दशकों/पाठकों) को नहीं भाएगा. लेकिन सच ये है कि जब आप परोसोगे ही नहीं तो राष्ट्र भाषा का शुद्ध रूप प्रचलन मे कैसे आएंगे! समस्या यही है कि जिस भाषा की गोद मे बैठकर आप व्यापार कर रहे हो व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में उस भाषा की ही टांग तोड़ देना क्या न्यायोचित है?

हिंदी की यदि दुर्दशा हुई है तो इसके लिए सरकार और समाज दोनों जिम्मेदार हैं

अपनी मातृ और राष्ट्रभाषा के सम्मान, रक्षा और उत्थान के लिए आप ज़रा भी व्यवसायिक रिस्क नहीं लेना चाहते. गलती आम पाठकों और दर्शकों की भी है जो 'दिल मांगे मोर' जैसे वाक्यों और हिंग्लिश के बाजार को आगे बढ़ा रहे हैं. भारत की आधी आबादी हिन्दी विहीन है, हिन्दी बोलना, लिखना तो छोड़िए यहां क्षेत्रीय भाषाओं के आगे आम तौर से लोगों को राष्ट्रभाषा का बेसिक ज्ञान भी नहीं.

शेष देश का आधा भू-भाग जो हिन्दी भाषी कहा जाता हैं यहां भी राष्ट्रभाषा के अधिकांश शब्दों को क्लिष्ट कहकर किनारे कर दिया गया है. कहा जाता है कि ऐसे शब्द सहज नहीं होते. यही कारण है कि भाषा के मूल शब्दकोष और व्याकरण दुर्लभ होता जा रहा है. विश्वास न हो तो शुद्ध हिन्दी में किसी से संवाद स्थापित कीजिए या कोई लेख लिख कर देखिए दूसरा आपको सुनकर या पढ़कर उपहास उड़ाने लगेगा.

आमिर ख़ान की फिल्म- थ्री इडियट्स देखी होगी जिसमें भारतीय धार्मिक आस्थाओं के साथ हिन्दी का भी उपहास उड़ाया गया था. पिछले दशहरे की बात है. हिन्दी के सम्मान और उत्थान की बात करने वाली भाजपा सरकार के प्रसार भारती के दूरदर्शन में रामायण का सजीव प्रसारण देखकर आश्चर्य हुआ था. रामायण के कई संवादों में शुद्ध हिन्दी के स्थान पर उर्दू के शब्दों का उपयोग किया जा रहा था.

हिन्दी अखबार की पत्रकारिता के विद्यार्थी को कोई ज्ञान दिया जाए या नहीं पर पहला पाठ ये अवश्य पढ़ाया जाता है कि हिन्दी अखबार में हिन्दी के शब्दों का उपयोग कम किया जाए. आम भाषा और आम प्रचलन के नाम पर जिस भाषा को अखबारी भाषा बनाया जा रहा है वो अद्भुत भाषा हमारी राष्ट्रभाषा की सौतन बन चुकी है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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