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हिजाब कंडीशनिंग है, मजबूरी है, या फ़ैशन? चॉइस कभी नहीं...

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 11 फरवरी, 2022 08:10 PM
  • 11 फरवरी, 2022 08:10 PM
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बहन बेटियों को बुर्क़ा पहनाने के पक्ष में प्रदर्शन करने वाले मोमिन हज़रात तीन तलाक़ के वक़्त उन्हें गरिया रहे थे. 'शेरनी हिजाब गर्ल' की बलैय्या लेने वाले वे ही मर्द साहेबान बाप की प्रॉपर्टी में से बेटी का चवन्नी भर शरई हक़ देने के मामले में अंधे, गून्गे, बहरे हो जाएंगे. किसी बहन-बेटी के मांगे पर दे भी दिया तो आईंदा के लिये निगाह, लहजा, रिश्ता सख्त कर लेंगे. मुंह फेर लेंगे

पहले बुर्क़ा (इसमें आंख भी बंद रहती है)एक खास (उच्च) वर्ग तक सीमित था. हमारी दादियों ने सिर्फ चादर ओढ़ी. 80 के दशक तक नक़ाब (आंख खुली है इसमें) शादी के बाद ज़रूरी था. 90 तक टीनएज से ज़रूरी होने लगा. 21वी सदी में बच्चियां भी ओढ़ रही हैं लेकिन यह ज़्यादातर हिजाब (स्कार्फ-एक फैशनेबल ट्रेंड) है. औरत को इस्लाम दहलीज़ लांघने से पहले अपने जिस्म को बड़ी चादर से ढकने को कहता है. किसी काले बुर्क़े से नहीं. यह चलन की बात है. सब पहनते हैं. तुम भी पहनो. मैं भी पहनूंगी. संथेटिक कपड़े में जिस्म की हर उठान गिरान को नुमाया करती नक़ाब उस पर मेकअप वाला मुखड़ा कतई तौर पर पर्दा नहीं है.

नक़ाब/हिजाब जिस्म ढकता है. चेहरा ढकता है. सोच नहीं. आवाज़ नहीं.

एजुकेशन का पहनावे से कोई सरोकार नहीं. जीन्स, स्कर्ट, मिनी, बिकनी पहनने भर से टैलेंट, अवेयरनेस, काबिलियत नहीं आती. ना ये (ना कोई और) पहनावे नारी सशक्तीकरण का टूल हैं. संविधान देश के हर नागरिक को अपनी संस्कृति, वेशभूषा रखने का अधिकार देता है. सड़क पे छात्रों(?) के केसरिया झुंड के हुड़दंगी नारे नहीं तय करेंगे कि कौन क्या पहनेगा.

नक़ाब पहन कर सदियों से लड़कियां स्कूल-कालेज जाती रही हैं. यह आईडेनटिटी क्राईसेस का मसला कभी नहीं था.

सवाल ये भी है कि क्या वाक़ई मुस्लिम महिलाएं पर्दे के समर्थन में लड़ाई लड़ रही हैं? या वजह कुछ और है 

 

बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक को डराने/ सहमाने का तरीक़ा है.

पहले बुल्ली, सुल्ली एप. अब हिजाब की राजनीति. निशाने पर फिर से मुस्लिम ख्वातीन. विरोधस्वरूप यह पहनावा और बढेंगा. हिजाब/नक़ाब अगर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की निशानी है तो मुस्लिम महिलाओं को ही ढूँढ़ने दीजिये इससे निबटने के तरीक़े.

बदलाव की चाल बहोत धीमी होती है. आते आते आता है. पहले उन्हें...

पहले बुर्क़ा (इसमें आंख भी बंद रहती है)एक खास (उच्च) वर्ग तक सीमित था. हमारी दादियों ने सिर्फ चादर ओढ़ी. 80 के दशक तक नक़ाब (आंख खुली है इसमें) शादी के बाद ज़रूरी था. 90 तक टीनएज से ज़रूरी होने लगा. 21वी सदी में बच्चियां भी ओढ़ रही हैं लेकिन यह ज़्यादातर हिजाब (स्कार्फ-एक फैशनेबल ट्रेंड) है. औरत को इस्लाम दहलीज़ लांघने से पहले अपने जिस्म को बड़ी चादर से ढकने को कहता है. किसी काले बुर्क़े से नहीं. यह चलन की बात है. सब पहनते हैं. तुम भी पहनो. मैं भी पहनूंगी. संथेटिक कपड़े में जिस्म की हर उठान गिरान को नुमाया करती नक़ाब उस पर मेकअप वाला मुखड़ा कतई तौर पर पर्दा नहीं है.

नक़ाब/हिजाब जिस्म ढकता है. चेहरा ढकता है. सोच नहीं. आवाज़ नहीं.

एजुकेशन का पहनावे से कोई सरोकार नहीं. जीन्स, स्कर्ट, मिनी, बिकनी पहनने भर से टैलेंट, अवेयरनेस, काबिलियत नहीं आती. ना ये (ना कोई और) पहनावे नारी सशक्तीकरण का टूल हैं. संविधान देश के हर नागरिक को अपनी संस्कृति, वेशभूषा रखने का अधिकार देता है. सड़क पे छात्रों(?) के केसरिया झुंड के हुड़दंगी नारे नहीं तय करेंगे कि कौन क्या पहनेगा.

नक़ाब पहन कर सदियों से लड़कियां स्कूल-कालेज जाती रही हैं. यह आईडेनटिटी क्राईसेस का मसला कभी नहीं था.

सवाल ये भी है कि क्या वाक़ई मुस्लिम महिलाएं पर्दे के समर्थन में लड़ाई लड़ रही हैं? या वजह कुछ और है 

 

बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक को डराने/ सहमाने का तरीक़ा है.

पहले बुल्ली, सुल्ली एप. अब हिजाब की राजनीति. निशाने पर फिर से मुस्लिम ख्वातीन. विरोधस्वरूप यह पहनावा और बढेंगा. हिजाब/नक़ाब अगर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की निशानी है तो मुस्लिम महिलाओं को ही ढूँढ़ने दीजिये इससे निबटने के तरीक़े.

बदलाव की चाल बहोत धीमी होती है. आते आते आता है. पहले उन्हें स्कूल, कालेजों में आने दीजिये. किताबों को छूने दीजिए. खुलने तो दीजिये दिमाग की खिड़कियां. आगे का वे खुद ही सम्भाल लेंगी.

बहश्ती जेवर, तोहफा ए ख्वातीन (किताब) के अलावा उनके हाथों में अखबार /मैगेज़ीन/ साहित्य/ विज्ञान की किताबें आने दीजिये. और कुछ नहीं कम से कम सोशल मीडिया पर अपनी फोटो लगाने की इजाज़त मिलने दीजिये. अकाउंट ही बनने दीजिये.

कल बहन बेटियों को बुर्क़ा पहनाने के पक्ष में प्रदर्शन करने वाले यही मोमिन हज़रात तीन तलाक़ के वक़्त उन्हें गरिया रहे थे. 'शेरनी हिजाब गर्ल' की बलैय्या लेने वाले वे ही मर्द साहेबान बाप की प्रॉपर्टी में से बेटी का चवन्नी भर शरई हक़ देने के मामले में अंधे, गून्गे, बहरे हो जाएंगे. किसी बहन-बेटी के मांगे पर दे भी दिया तो आईंदा के लिये निगाह, लहजा, रिश्ता सख्त कर लेंगे. मुँह फेर लेंगे.

बहन-बेटियां ईद पर मिली सिवई-शक्कर और मायका का दरवाज़ा हमेशा खुला रखने की लालच में कब तक सब्र करती रहेंगी) एक हिजाब की क्या बात. यहाँ और भी मसले हैं. कोई दूसरा समुदाय कोई पाकिस्तान अपनी टांग ना घुसाए. हम भारतीय मुसलमान अपना मसला खुद हल करेंगें.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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