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'पंक्चर' बनाने वाली जाहिल क़ौम के लिये सस्ता मनोरंजन नहीं है हिजाब का मुद्दा

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 16 फरवरी, 2022 01:51 PM
  • 16 फरवरी, 2022 01:49 PM
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सदैव कपड़े, गहने में रुचि के फेर में स्त्रियों को फंसाकर उन्हें सदियों से दिशाभ्रमित किया जा रहा है. नारी सशक्तिकरण को कमज़ोर किया जा रहा है. हमें पता है हिजाब कंडीशनिंग है मजबूरी है. चॉइस नहीं. लेकिन जीन्स, स्कर्ट, पतलून को वैश्विक स्तर पर आरामदायक घोषित करते हुए कब आप पश्चिमी सभ्यता के बाजारवाद की कंडीशनिंग में ट्रैप होते हैं, आप को भी पता नहीं चलता.

आर्टिकल 25, हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का तब तक अधिकार देता है जब तक वह जनहित में हो. नैतिक हो. मनुस्मृति को किनारे कर नये सिरे से संविधान लिखने की हिमाकत करने वाले अम्बेडकर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धर्म को सिरे से खत्म करने की हिम्मत ना दिखा पाए.(बकलोल जो ठहरे). बंदरों के हाथ में उस्तरा थमा गये वरना आज हिजाब पहनने के प्रयोजन पर पूछ-ताछ की जाती. बीच में आर्टिकल 25 की तख्तियां आती है तो क्या बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक से कुछ भी कह (घेर कर, हूटिंग कर) पूछ सकने का अधिकार है. हालांकि हिजाब पहनने के औचित्य के संदर्भ में स्त्रियों से मिले सकने वाले जवाब आपको पता हैं, जैसे यह हमारा निजी मामला है. हमें संविधान कुछ भी पहनने का हक़ देता है. आपसे मतलब... लेकिन तभी आपके अंदर का अहम ब्रह्मास्मि जागकर जय श्री राम के नारे लगाकर पूछता है, हमसे नहीं तो और किससे मतलब.

अपने हिजाब के लिए प्रदर्शन करती मुस्लिम महिलाओं का प्रदर्शन यूं ही बेवजह नहीं है

आपके बुद्धिजीवी कहते हैं, प्रोटेस्ट कर रही औरतों को नहीं पता होता हिजाब क्यों पहनना है. शायद. तमाम सारी औरतें जो चाट-बताशे खाने निकलती हैं. सोचती हों, आ ही गये हैं तो ज़रा दो चार नारा लगा लें. वैसे भी पंक्चर बनाने वाली जाहिल क़ौम के लिये इससे सस्ता मनोरंजन तो होने से रहा.

आपको लगता है हिजाब वालियों में आत्मविश्वास नहीं यह कह सकने का कि, मज़हब पहनने का हुक्म देता है. हम अपने धर्म द्वारा निर्धारित की गई चीज़ों की अवहेलना नहीं कर सकते तो अब तक इस तरह कोई मुद्दा ही ना बनता.

फिर कर्नाटक या एएमयू में प्रोटेस्ट कर रही लड़कियों को आपने म्यूट करके सुना है. हिजाब वालियों में जिस तथाकथित आत्मविश्वास को आप देखना चाहते हैं, चिल्ला-चिल्ला के वे वही दिखा रही हैं. यह और बात कि काले रंग के लबादे में...

आर्टिकल 25, हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का तब तक अधिकार देता है जब तक वह जनहित में हो. नैतिक हो. मनुस्मृति को किनारे कर नये सिरे से संविधान लिखने की हिमाकत करने वाले अम्बेडकर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धर्म को सिरे से खत्म करने की हिम्मत ना दिखा पाए.(बकलोल जो ठहरे). बंदरों के हाथ में उस्तरा थमा गये वरना आज हिजाब पहनने के प्रयोजन पर पूछ-ताछ की जाती. बीच में आर्टिकल 25 की तख्तियां आती है तो क्या बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक से कुछ भी कह (घेर कर, हूटिंग कर) पूछ सकने का अधिकार है. हालांकि हिजाब पहनने के औचित्य के संदर्भ में स्त्रियों से मिले सकने वाले जवाब आपको पता हैं, जैसे यह हमारा निजी मामला है. हमें संविधान कुछ भी पहनने का हक़ देता है. आपसे मतलब... लेकिन तभी आपके अंदर का अहम ब्रह्मास्मि जागकर जय श्री राम के नारे लगाकर पूछता है, हमसे नहीं तो और किससे मतलब.

अपने हिजाब के लिए प्रदर्शन करती मुस्लिम महिलाओं का प्रदर्शन यूं ही बेवजह नहीं है

आपके बुद्धिजीवी कहते हैं, प्रोटेस्ट कर रही औरतों को नहीं पता होता हिजाब क्यों पहनना है. शायद. तमाम सारी औरतें जो चाट-बताशे खाने निकलती हैं. सोचती हों, आ ही गये हैं तो ज़रा दो चार नारा लगा लें. वैसे भी पंक्चर बनाने वाली जाहिल क़ौम के लिये इससे सस्ता मनोरंजन तो होने से रहा.

आपको लगता है हिजाब वालियों में आत्मविश्वास नहीं यह कह सकने का कि, मज़हब पहनने का हुक्म देता है. हम अपने धर्म द्वारा निर्धारित की गई चीज़ों की अवहेलना नहीं कर सकते तो अब तक इस तरह कोई मुद्दा ही ना बनता.

फिर कर्नाटक या एएमयू में प्रोटेस्ट कर रही लड़कियों को आपने म्यूट करके सुना है. हिजाब वालियों में जिस तथाकथित आत्मविश्वास को आप देखना चाहते हैं, चिल्ला-चिल्ला के वे वही दिखा रही हैं. यह और बात कि काले रंग के लबादे में आंखों के साथ आपके कान भी उलझ कर रह गये हैं. जभी आपको स्त्रियों की अपने पहनावे में रूचि और चेतना सार्वभौमिक नैसर्गिक सत्य जान पड़ती है.

हह...जैसे हम नहीं समझते सदैव कपड़े, गहने में रुचि के फेर में स्त्रियों को फंसाकर उन्हें सदियों से दिशाभ्रमित किया जा रहा है. नारी सशक्तिकरण को कमज़ोर किया जा रहा है. हमें पता है हिजाब कंडीशनिंग है मजबूरी है. चॉइस नहीं. लेकिन जीन्स, स्कर्ट, पतलून को वैश्विक स्तर पर आरामदायक घोषित करते हुए कब आप पश्चिमी सभ्यता के बाजारवाद की कंडीशनिंग में ट्रैप होते हैं, आप को भी पता नहीं चलता.

पहनावे से अपराधी की पहचान हो जाने वाले दौर में हिजाब पहनी हुई औरत दूर से ही मुसलमान लग जाती है. साड़ी, सिन्दूर, मंगलसूत्र पहनी और आलता लगाई औरत क्रिश्चियन तो नहीं लगती ना? पगड़ी बांधा व्यक्ति बौद्ध भी नहीं लगता होगा. हालांकि धार्मिक प्रतीक चिन्हों से व्यक्ति, देश किसी का भला नहीं होगा. लेकिन मुद्दा बनाने से भी क्या होगा?

प्रतियोगिता/प्रतिकार में दूसरे धर्म, समुदायों के लोग भी अपने धार्मिक प्रतीक चिन्हों को बढ़ावा देंगे. हैं, बहुत मुमकिन है. लेकिन आमजन को इस संदर्भ में उकसाने वाले लोग कौन हैं?

आप कहते हैं सर से पांव तक ढका हिजाब सभ्य समाज का पहनावा नही है. ना यह चलन मे है. तब लगता है आप पत्ते पहनने वाले युग में लौट गये क्या! या मिडिल ईस्ट नक्शे में नहीं दिखता. आँखों को दावत देते हुए विभिन्न देशों की रानी महारानियों के परिधान पर एक नज़र ही डाल लेते. धार्मिक प्रतीक चिन्ह, स्त्री दमन-शोषण, पितृसत्तात्मक वयवस्था के प्रसंग को सिर्फ मुसल्मान औरतों के बजाय हर धर्म की औरत के परिपेक्ष्य में रखकर विस्तृत चर्चा होनी चाहिये थी.

लेकिन जब तिरंगे पर एक रंग  कसरिया चढ़ा कर सरकारी संस्थानों पे फहराया जाए. संविधान की प्रतियां जला कर अम्बेडकर को आउटडेटेड मान लिया जाए तो 21वी सदी में तथाकथित मध्ययुगीन जीवन शैली को अपनाए रखने वाले समाज के विरोध में पुरातन संस्कृति की तरफ लौटने की बात होने लगती है./ सड़क पर फैसले होने लगते हैं. (दोनों मे से कोई भी एक) क्या यह प्रगतिशीलता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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