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Earth 2020 : अब भी वक़्त है बचा लीजिये पृथ्वी को, क्या पता कल हो न हो!

    • अंकिता जैन
    • Updated: 22 अप्रिल, 2020 10:39 PM
  • 22 अप्रिल, 2020 10:34 PM
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Earth Day 2020 प्रकृति (Nature) किसे नहीं पसंद. मगर जैसा हमारा इसके प्रति रवैया है वो दिन दूर नहीं जब हम इससे हाथ धो बैठेंगे. इसलिए इस Earth 2020 पर खुद से इस बात का वादा करिये कि हमें इसे बचाना है ताकि हम अपनी आने वाली नस्लों को दिखा सकें कि ये कितनी सुन्दर है.

अपनी सभी सहेलियों और परिवारजनों की तुलना में मैं पृथ्वी (Earth Day 2020) के सबसे करीब रहती हूं. इसे ऐसे कहूं तो ज़्यादा उचित रहेगा कि मैं प्रकृति (Nature) के ज़्यादा करीब रहती हूं. बचपन से ही ग्रामीण अंचल में रही तो मिट्टी से जुड़ाव रहा. खेतों में नंगे पैर घूमना, गेहूं की ताज़ा बालियां तोड़कर खाना. खेत की छोटी सी नहर में नहाना. वक़्त बदला और इस कदर बदला कि आज जब अपने बेटे के लिए खिलौने खरीदने जाती हूं तो देखती हूं 'फिल्टर्ड सेंड' भी बच्चों के लिए बिक रही. मिट्टी में नंगे पैर खेलने का ज़माना अब नहीं रहा. अब बच्चों को खेलने के लिए शुद्ध रेत भी माता-पिता महंगे दाम में ख़रीदकर देते हैं. ऐसे में मैं जब देखती हूं कि क़िस्मत से मेरे बेटे को आज भी मिट्टी में खेलने की सोहबत नसीब है तो सुकून मिलता है.

पहले की बातें अलग थीं मगर अब लोग प्रकृति से दूर हो गए हैं जिसका खामियाजा आज हमारे बच्चों को भुगतना पड़ रहा है

पिछले साल मैंने एक सीरीज़ देखी. नाम है 'प्लैनेट ब्लू'. धरती पर 70% पानी है. उसी पानी के भीतर और बाहर की दुनिया के कई ऐसे रहस्य मुझे जानने को मिले जिन्हें देखकर मैं दंग रह जाती थी. इतने जीव जंतु और उनकी निराली दुनिया. किंतु इस सबके बीच में जो दिखता था वो यह कि हम मनुष्यों ने धरती ही नहीं पानी को भी इस हद तक गंदा कर दिया है कि वहां भी जीव-जंतु अपना जीवन हम स्वार्थी मनुष्यों की वजह से गंवा देते हैं.

रंग-बिरंगे कोरल रीफ्स से रंग उड़ते जा रहे हैं. एक नन्ही सी व्हेल के मुंह में प्लास्टिक फंसने से उसकी मौत हो जाती है और उसकी मां दर्द से तड़पते हुए अपने बच्चे की लाश लिए समंदर में घूमती फिरती है. जहाजों के मलवे में ना जाने कितने जीव फंसकर मर जाते हैं. आज जब ख़बरों में देखती...

अपनी सभी सहेलियों और परिवारजनों की तुलना में मैं पृथ्वी (Earth Day 2020) के सबसे करीब रहती हूं. इसे ऐसे कहूं तो ज़्यादा उचित रहेगा कि मैं प्रकृति (Nature) के ज़्यादा करीब रहती हूं. बचपन से ही ग्रामीण अंचल में रही तो मिट्टी से जुड़ाव रहा. खेतों में नंगे पैर घूमना, गेहूं की ताज़ा बालियां तोड़कर खाना. खेत की छोटी सी नहर में नहाना. वक़्त बदला और इस कदर बदला कि आज जब अपने बेटे के लिए खिलौने खरीदने जाती हूं तो देखती हूं 'फिल्टर्ड सेंड' भी बच्चों के लिए बिक रही. मिट्टी में नंगे पैर खेलने का ज़माना अब नहीं रहा. अब बच्चों को खेलने के लिए शुद्ध रेत भी माता-पिता महंगे दाम में ख़रीदकर देते हैं. ऐसे में मैं जब देखती हूं कि क़िस्मत से मेरे बेटे को आज भी मिट्टी में खेलने की सोहबत नसीब है तो सुकून मिलता है.

पहले की बातें अलग थीं मगर अब लोग प्रकृति से दूर हो गए हैं जिसका खामियाजा आज हमारे बच्चों को भुगतना पड़ रहा है

पिछले साल मैंने एक सीरीज़ देखी. नाम है 'प्लैनेट ब्लू'. धरती पर 70% पानी है. उसी पानी के भीतर और बाहर की दुनिया के कई ऐसे रहस्य मुझे जानने को मिले जिन्हें देखकर मैं दंग रह जाती थी. इतने जीव जंतु और उनकी निराली दुनिया. किंतु इस सबके बीच में जो दिखता था वो यह कि हम मनुष्यों ने धरती ही नहीं पानी को भी इस हद तक गंदा कर दिया है कि वहां भी जीव-जंतु अपना जीवन हम स्वार्थी मनुष्यों की वजह से गंवा देते हैं.

रंग-बिरंगे कोरल रीफ्स से रंग उड़ते जा रहे हैं. एक नन्ही सी व्हेल के मुंह में प्लास्टिक फंसने से उसकी मौत हो जाती है और उसकी मां दर्द से तड़पते हुए अपने बच्चे की लाश लिए समंदर में घूमती फिरती है. जहाजों के मलवे में ना जाने कितने जीव फंसकर मर जाते हैं. आज जब ख़बरों में देखती हूं कि वेनिस की ग्रैंड कनाल में वापस मछलियां गोते लगाने लगी हैं. यमुना और गंगा का पानी बिना किसी मेहनत के इस एक माह में काफी हद तक साफ हो गया है तो सोचती हूं कि मनुष्य ने जो अपना एकाधिकार इस धरती पर कर रखा था अब उस पर कुछ वक्त की पाबंदी ने धरती को चैन की सांस दी है.

मेरे आसपास हज़ारों पंछी रहते हैं. अक्सर ही उनकी आवाज़ सुबह शाम सुनाई देती थी. इन दिनों दिनभर ही उनकी कलरव सुन पाती हूं. वे सियार जो बरसों पहले जंगल में वापस चले गए थे अब इस ओर आने की हिम्मत कर पाते हैं. तितलियां अब पहले से ज़्यादा दिखती हैं.

ऐसा लगता है जैसे मनुष्य के कैद हो जाने से धरती के अन्य प्राणी जिनका भी धरती पर समान अधिकार है किंतु मनुष्य की वजह से वे सिमटे से रहे आज खुलकर सांस ले रहे हैं. बेफ़िक्र महसूस कर रहे हैं. इन चंद दिनों में हमने भी पाया है अपने आसपास की हवा को पहले से ज़्यादा शुद्ध. पर, क्या हमने इससे कोई सबक लिया है? क्या लॉकडाउन हटने के बाद हम इस धरती को, इसके अन्य जीवों को उतना ही हक़ देंगे जिसके वे हक़दार हैं? क्या हम प्रकृति से तालमेल बनाकर रखेंगे? क्या हम अपने आसपास की मिट्टी को इतना शुद्ध रखेंगे कि हमारी तरह हमारे बच्चे भी नंगे पैर उसमें दौड़ पाएं.

वैसे जाते-जाते आपको बता दूं कि कोरोना से इंसान को मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता ही बचा सकती है और मिट्टी में खेलने से भी इस क्षमता में इज़ाफा होता है. तो अगली बार जब आपका बच्चा ज़िद करे नंगे पैर दौड़ लगाने की तो उसे रोकिएगा मत. अगर रोकना ही है तो ख़ुद को रोकिएगा उस मिट्टी को दूषित करने से.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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