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Coronavirus Lockdown त्रासदी के बीच मुझे खोजनी होगी अपनी ख़ुशी

    • अंकिता जैन
    • Updated: 13 अप्रिल, 2020 09:06 PM
  • 13 अप्रिल, 2020 09:06 PM
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एक ऐसे समय में जब लॉकडाउन (Lockdown ) को 20 दिन पूरे हो चुके हैं अब वो वक़्त आ गया है जब इस त्रासदी के बीच हमें उन क्षणों को याद रखना चाहिए जो सीधे तौर पर हमारी खुशियों से जुड़े थे. ये वो वक़्त भी हैं जिनमें हमें हमारी खुशियां तलाश करनी है.

मेरे प्रिय,

उस समय में जी रही हूं जहां यह तय नहीं है कि मैं कल भी देखूंगी या नहीं. फिर भी मैं या मेरी कल्पनाएं, या संभवतः मेरे जैसे अनेकों की कल्पनाएं इस वक़्त में भी अपने कल, या भविष्य, या बुढ़ापे के बारे में सोच रही होंगी. मुझे बुढ़ापा आकर्षित करता है. जीवन का वह दौर आकर्षित करता है जब इंसान इस भ्रम में जी सकता है कि उसने सब कुछ जी लिया, अब बस कुछ दिन बाकी हैं. जवानी के आगे 'बहुत कुछ' पड़ा है की बात मुझे कई बार शून्य में चले जाने के लिए उकसाती है. बूढ़े लोग, उनकी चमड़ी पर पड़ी झुर्रियां मुझे आकर्षित करती हैं. मन करता है उनके पास बैठकर बस उनसे जीवन की कहानी सुनती रहूं. बचपन में मेरा सबसे प्रिय खेल अपनी नानी की बूढ़ी चमड़ी पर दो उंगलियों से घेरा बना उसे और नरम कर छूते रहना था. आज जब अख़बार में तुर्की में भी कोरोना के संकट की ख़बर पड़ी तो मुझे वह बूढ़ी महिला याद आ गई. तुर्की के पमुकले टाउन में जिस होटल में रुकी थी उसके सामने ही एक देसी अंदाज़ में बना घर था. एक तुर्किस्तानी घर. आकर्षण था उस घर में. घर के अहाते में बंधे मवेशी और द्वार पर रखा एक पुराना ट्रैक्टर इस बात की गवाही दे रहे थे कि घर किसी किसान का है.

संकट है तो क्या हुआ ये वो वक़्त है जब हमें अपनी ख़ुशी खोजन ी चाहिए

मैं घूमते हुए तस्वीरें ले रही थी तभी एक बुजुर्ग ट्रैक्टर चलाते हुए उस घर की तरफ़ आए. ट्रैक्टर की आवाज़ सुन एक बुजुर्ग महिला बाहर निकलीं जो शायद उनकी पत्नी थीं. मुझे देख वो मुस्कुराईं और भीतर चली गईं. और जाते हुए दे गईं मुझे यह खूबसूरत तस्वीर जो हमेशा उस सुंदर से टाउन की याद दिलाती रहेगी जो ऐतिहासिक था, लहलहाते खेतों से सजा था और जहां मैंने दुनिया का एक ऐसा नज़ारा देखा जो शायद कहीं और नहीं मिलेगा. सोचती हूं क्या...

मेरे प्रिय,

उस समय में जी रही हूं जहां यह तय नहीं है कि मैं कल भी देखूंगी या नहीं. फिर भी मैं या मेरी कल्पनाएं, या संभवतः मेरे जैसे अनेकों की कल्पनाएं इस वक़्त में भी अपने कल, या भविष्य, या बुढ़ापे के बारे में सोच रही होंगी. मुझे बुढ़ापा आकर्षित करता है. जीवन का वह दौर आकर्षित करता है जब इंसान इस भ्रम में जी सकता है कि उसने सब कुछ जी लिया, अब बस कुछ दिन बाकी हैं. जवानी के आगे 'बहुत कुछ' पड़ा है की बात मुझे कई बार शून्य में चले जाने के लिए उकसाती है. बूढ़े लोग, उनकी चमड़ी पर पड़ी झुर्रियां मुझे आकर्षित करती हैं. मन करता है उनके पास बैठकर बस उनसे जीवन की कहानी सुनती रहूं. बचपन में मेरा सबसे प्रिय खेल अपनी नानी की बूढ़ी चमड़ी पर दो उंगलियों से घेरा बना उसे और नरम कर छूते रहना था. आज जब अख़बार में तुर्की में भी कोरोना के संकट की ख़बर पड़ी तो मुझे वह बूढ़ी महिला याद आ गई. तुर्की के पमुकले टाउन में जिस होटल में रुकी थी उसके सामने ही एक देसी अंदाज़ में बना घर था. एक तुर्किस्तानी घर. आकर्षण था उस घर में. घर के अहाते में बंधे मवेशी और द्वार पर रखा एक पुराना ट्रैक्टर इस बात की गवाही दे रहे थे कि घर किसी किसान का है.

संकट है तो क्या हुआ ये वो वक़्त है जब हमें अपनी ख़ुशी खोजन ी चाहिए

मैं घूमते हुए तस्वीरें ले रही थी तभी एक बुजुर्ग ट्रैक्टर चलाते हुए उस घर की तरफ़ आए. ट्रैक्टर की आवाज़ सुन एक बुजुर्ग महिला बाहर निकलीं जो शायद उनकी पत्नी थीं. मुझे देख वो मुस्कुराईं और भीतर चली गईं. और जाते हुए दे गईं मुझे यह खूबसूरत तस्वीर जो हमेशा उस सुंदर से टाउन की याद दिलाती रहेगी जो ऐतिहासिक था, लहलहाते खेतों से सजा था और जहां मैंने दुनिया का एक ऐसा नज़ारा देखा जो शायद कहीं और नहीं मिलेगा. सोचती हूं क्या वह बूढ़ी महिला कोरोना के संकट से बच पाएगी? सच कहूं तो अब ऐसे ख़याल आते ही मैं भागने लगती हूं.

अब और सोचना नहीं चाहती इस भय के बारे में, इस त्रासदी के बारे में. अब तो सुनो, किसी शाम मैं चल पड़ना चाहती हूं चांद को ढूंढते हुए. ख़ाली हाथ निकल जाना चाहती हूं घर से और बैठ जाना चाहती हूं किसी सड़क के किनारे. जहां बिखरे हों कुछ सूखे पत्ते. जहां बरसी हो हाल ही में बादल की कोई टुकड़ी.  जहां से गुज़रते हैं हज़ारों लोग पहनकर चेहरों पर तरह-तरह के रंग. मैं बस उन्हें देखना चाहती हूं और चुन लेना चाहती हूं कुछ रंग अपनी फीकी पड़ती ज़िन्दगी के लिए.

पर क्या किसी और के रंग मुझ पर चढ़ेंगे? क्या नभ के तारों से पा जाती है अंधियारी निशा भी रूप? वे तो बस झिलमिला सकते हैं दरिया के जल पर, प्रतिबिंबित होते हैं और भ्रम जाल में फांसते हैं, वे क्या किसी को अपना रंग देंगे? क्या कभी धधकती आग सा ये लाल रंगी सूरज ही दे पाता है किसी को सदा के लिए कंचन? उसे तो एक घनघोर घटा ही लील जाती है, नहीं तो प्रत्येक सांझ ही उसे धमकाती सी आ धमकती है कि उसका भी अस्तित्व सदा के लिए नहीं, वह क्या किसी को रंग देने का दम्भ भरेगा?

कोई नहीं दे सकता किसी को सुख का रंग. वह तो निरा निजी धन है. भय, त्रासदी, बेचैनी के बीच अब मुझे भी अपना यह धन स्वयं ही खोज लेना होगा. अपना रंग, जिसमें मैं लिपटी रहूं, जिसमें ही मिले मुझे चांद की शीतलता और सूर्य की तपिश भी. ऐसा स्वेत रंग जिसमें सब होकर भी कुछ ना होने का भ्रम बना रहे. जो मेरे प्रति उनके व्यवहार का गुलाम न हो जो सिर्फ अपने होने की बात कहते हैं.

कोशिश तो बहुत की थी कि किसी रँगसाज़ से इसे रंगवा लूं, कोई इस पर इंद्रधनुष के रंग चुरा 'सुख' लिख दे और मैं उसी से ख़ुशियों के सारे रंग कहीं उढेल दूं. कितना अच्छा होता अगर ऐसा होता. मैं तुम्हारा निर्मोही रंग ओढ़ लेती और तुम पर लेप कर देती जुड़ाव का, प्रेम का, राग का, मोह का. तब क्या तुम समझ पाते मेरी बेचैनी?

ये बेचैनी न जाने क्यों आजकल मेरी शामों को उदास करने लगी है. जाने किससे मिलने के लिए कहती है, किससे बात करने के लिए कहती है. जब इसकी उदासी के लिए कोई संगाती ढूंढने लगती हूं तो मचल जाती है कि अकेली रहेगी और जब अकेली रहती हूँ तो जिद करती है कि कोई साथी चाहिए.

बढ़ती उम्र के रोग लगने लगे हैं मुझे क्या? या ज़िन्दगी के रंग सूखने लगे हैं. सुनो, मुझे इस नीरसता से बहुत डर लगता है. इसलिए मैं अक्सर ही आजकल निकल जाती हूं घर से, सड़कों पर रस ढूंढने. पर वहां से भी हताश होकर ही लौटती हूं. मुझे अकेलेपन से डर लगने लगा है, खालीपन से डर लगने लगा है. कितना अच्छा होता अगर तुम होते, फिर तुम और मैं शाम को रंग-बिरंगी कंदीलों से रोशन कर देते.

तुम्हारी

प्रेमिका

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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