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बिहार का एक गांव जहां हर घर में इंजीनियर है

    • विवाश्वान सिंह
    • Updated: 14 जून, 2018 10:32 PM
  • 14 जून, 2018 10:32 PM
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मैनचेस्टर ऑफ बिहार के नाम से जाना जाने वाला ये गांव अब इंजीनियर फैक्टरी बन गया है. हर घर में एक इंजीनियर है आज यहां.

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) कानपुर ने रविवार, 10 जून को संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) के नतीजों की घोषणा की. न तो मेरे रिश्तेदारों और परिचितों में से कोई और न ही मैं खुद आईआईटी में एडमिशन लेना चाहता था. लेकिन फिर भी मैं आईआईटी के रिजल्ट का बड़ी ही बेसब्री से इंतजार कर रहा था, सिर्फ एक गांव के कारण. पूर्वी भारत को कम ही बच्चों को आईआईटी में भेजने के लिए जाना जाता हो, लेकिन फिर भी एक गांव है जिसने अपने बच्चों को इंजीनियरिंग के ही गोद में डालना पसंद किया. जब बिहार के लोग सिविल सेवा की तरफ मुड़ रहे थे, तो इस गांव ने आईआईटी को ही अपनाया.

माओवादी आंदोलन से ग्रसित पटवा टोली के कई बच्चे जेईई निकालकर अपनी आर्थिक स्थिति और जीवन स्तर को बदलने के सपने आंखों संजोए रहते हैं. और इसी सपने को पूरा करने के लिए मेहनत करते हैं. खुद को ध्यान भटकाने वाली हर चीज से दूर रखकर, इनका पूरा ध्यान सिर्फ जेईई को क्वालीफाइ करने में रहता है. और तेज आवाज करने वाली मशीनों के बीच बैठकर भी उन्होंने अपना ध्यान नहीं भटकने दिया और सफलता हासिल करके ही रहे. बिहार के गया जिले में पटवा टोली के बुनकर थोक में दो चीजें बनाते हैं: रंगीन कपड़ा और इंजीनियर. एक जहां उनके पूर्वजों के समय से चला आ रहा पेशा है, वहीं दूसरा काफी हद तक मंदी का परिणाम है.

बच्चों के साथ साथ माता पिता ने भी अपना जीवन आईआईटी के लिए लगा दिया

1990 के दशक में मंदी के बाद जब हैंडलूम सेक्टर में गिरावट आई थी, तब पटवा टोली के बुनकरों को अपने पारंपरिक व्यवसाय छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. उन्होंने रिक्शा चलाना, सब्जी बेचना और मजदूरी जैसे काम करना शुरू कर दिया. सौभाग्य से, पटवा टोली के बच्चों ने देश की सबसे कठिन इंजीनियरिंग परीक्षा, आईआईटी-जेईई को पास करने के लिए दिन रात एक कर दिया और दुनिया को भूलकर इस...

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) कानपुर ने रविवार, 10 जून को संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) के नतीजों की घोषणा की. न तो मेरे रिश्तेदारों और परिचितों में से कोई और न ही मैं खुद आईआईटी में एडमिशन लेना चाहता था. लेकिन फिर भी मैं आईआईटी के रिजल्ट का बड़ी ही बेसब्री से इंतजार कर रहा था, सिर्फ एक गांव के कारण. पूर्वी भारत को कम ही बच्चों को आईआईटी में भेजने के लिए जाना जाता हो, लेकिन फिर भी एक गांव है जिसने अपने बच्चों को इंजीनियरिंग के ही गोद में डालना पसंद किया. जब बिहार के लोग सिविल सेवा की तरफ मुड़ रहे थे, तो इस गांव ने आईआईटी को ही अपनाया.

माओवादी आंदोलन से ग्रसित पटवा टोली के कई बच्चे जेईई निकालकर अपनी आर्थिक स्थिति और जीवन स्तर को बदलने के सपने आंखों संजोए रहते हैं. और इसी सपने को पूरा करने के लिए मेहनत करते हैं. खुद को ध्यान भटकाने वाली हर चीज से दूर रखकर, इनका पूरा ध्यान सिर्फ जेईई को क्वालीफाइ करने में रहता है. और तेज आवाज करने वाली मशीनों के बीच बैठकर भी उन्होंने अपना ध्यान नहीं भटकने दिया और सफलता हासिल करके ही रहे. बिहार के गया जिले में पटवा टोली के बुनकर थोक में दो चीजें बनाते हैं: रंगीन कपड़ा और इंजीनियर. एक जहां उनके पूर्वजों के समय से चला आ रहा पेशा है, वहीं दूसरा काफी हद तक मंदी का परिणाम है.

बच्चों के साथ साथ माता पिता ने भी अपना जीवन आईआईटी के लिए लगा दिया

1990 के दशक में मंदी के बाद जब हैंडलूम सेक्टर में गिरावट आई थी, तब पटवा टोली के बुनकरों को अपने पारंपरिक व्यवसाय छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. उन्होंने रिक्शा चलाना, सब्जी बेचना और मजदूरी जैसे काम करना शुरू कर दिया. सौभाग्य से, पटवा टोली के बच्चों ने देश की सबसे कठिन इंजीनियरिंग परीक्षा, आईआईटी-जेईई को पास करने के लिए दिन रात एक कर दिया और दुनिया को भूलकर इस एक्जाम को निकालने के लिए मेहनत करते रहे. केसी ठाकुर के बेटे जितेंद्र प्रसाद ने 1991 में प्रतिष्ठित आईआईटी-जेईई की परीक्षा पास करके ट्रेंड सेट कर दिया. इसके बाद पड़ोस के ही अन्य बच्चों ने उनके कदमों का पालन करते हुए खुद को इस परीक्षा के लिए झोंक दिया. गांव के 1500 परिवारों ने अपने बच्चों को भारत में सबसे कठिन इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के लिए तैयार करने का फैसला किया.

हालांकि पटवा टोली में बुनकरों का बड़ा तबका अभी भी गरीबी में गुजर बसर कर रहा है. लेकिन नई पीढ़ी ने नौकरी और शिक्षा को अपना लक्ष्य बनाकर अपनी आर्थिक स्थिति को बढ़ाने का फैसला किया. पटवा टोली के बच्चे आम तौर पर प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए गया शहर में कोचिंग सेंटर में जाते हैं. छात्रों के सामने सबसे आम और बड़ी दिक्कत अंग्रेजी भाषा का न आना है. वे लोग घर पर हिंदी ही बोलते हैं. पर उनकी किताबें अंग्रेजी में होती हैं और इसके लिए वे एक शब्दकोश को लेकर बैठते हैं उससे अंग्रेजी सीखते हैं.

छात्रों के लिए ये एक छोटा मुद्दा है क्योंकि छात्रों को उनकी आवश्यक सुविधाएं प्रदान करने के लिए पूरा समुदाय एकजुट होता है. छात्रों के लिए छात्रावास जैसे "गृह केंद्र" स्थापित किए गए हैं जहां जेईई उम्मीदवार एक साथ बैठकर पढ़ाई करते हैं. जिन छात्रों ने आईआईटीआई क्लियर कर लिया है और गांव छुट्टियों में आते हैं तो वो भी बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं और उन्हें आर्थिक सहायता भी देते हैं. पटवाटोली के आईआईटीयन और इंजीनियरों ने "नव प्रयास" जैसे शैक्षिक संगठन भी बनाए हैं जो उम्मीदवारों को परीक्षाओं के लिए प्रशिक्षित करता है. वे छात्रों के लिए टैलेंट हंट जैसी परीक्षाएं आयोजित करते हैं और प्रतिभाशाली छात्रों को आगे बढ़ने में मदद करते हैं. 1998 के बाद इसके परिणाम दिखने लगे, जब तीन लड़कों ने आईआईटी में प्रवेश पाया. और 1999 में सात छात्रों ने परीक्षा पास की. उसके बाद उनलोगों ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

अंग्रेजी नहीं आती तो डिक्शनरी से पढ़ते हैं.

पिछले डेढ़ दशक में स्थानीय लोगों ने गांव से पास हुए बच्चों का एक रिकॉर्ड रखा है. इसके मुताबिक, यहां से 200 से अधिक छात्र सिर्फ आईआईटी में शामिल हुए हैं, जबकि कई अन्य एनआईटी और अन्य शीर्ष क्षेत्रीय इंजीनियरिंग संस्थानों में गए हैं. 2017 में, इस इलाके से जुड़े 20 बच्चों ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा पास की. पूरे देश में एक ही क्षेत्र से इतने सारे छात्रों का परीक्षा निकालना लगभग असंभव है.

2016 में पटवा टोली इलाके के 11 सफल आईआईटी उम्मीदवार थे और 2015 में 12. हालांकि, 2018 में केवल पांच छात्र ही इस एक्जाम को पास कर पाए. आलम ये है कि आज पटवा टोली के हर घर में कम से कम एक इंजीनियर है. साफ है कि पिछले कुछ वर्षों की कठोर परिस्थितियों ने पटवा समुदाय के इन बुनकरों को प्रगतिशील और आत्मनिर्भर बना दिया है. आईआईटीयन की सफलता इतनी शानदार थी कि युवाओं ने अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़कर इंजीनियरिंग को ही अपना लक्ष्य बना लिया. वो व्यवसाय जिसके लिए उनके शहर को "बिहार का मैनचेस्टर" के नाम से जाना जाता था.

बुनाई मशीनों की आवाज इस बात का संकेत देती है कि व्यापार अच्छा चल रहा है. पटवा टोली के बच्चे भी अपने आंखों में एक सपना बुना रहे हैं. आज, जितेंद्र अमेरिका में बस गए हैं और अन्य इंजीनियरिंग स्नातक भी विभिन्न भारतीय शहरों में काम कर रहे हैं. लेकिन गांव के कुछ आईआईटी पास लोगों ने अन्य स्थानीय लोगों को सलाह देने और समाज को कुछ अच्छा लौटाने पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. उनके इस फैसले में माता पिता का भी पूरा समर्थन है.

यहां के ग्रामीण कठिनाइयों और भूख के बावजूद अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए दूसरों की मजदूरी करते हैं या फिर दूसरों के यहां बुनकरों के रूप में काम करते हैं. इन छात्रों को राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक पहचान मिलनी चाहिए ताकि वे भारत के अन्य हाशिए वाले समुदायों के लिए प्रेरणा बन सकें.

(DailyO से साभार)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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