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Board results: अपने बच्चे को ट्रॉफी नहीं इंसान समझें...

    • अंकिता जैन
    • Updated: 15 जुलाई, 2020 09:59 PM
  • 15 जुलाई, 2020 09:59 PM
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तमाम बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे (Board Results ) आए हैं और बच्चों (kids) ने भी एक से एक बढ़ियां नंबर हासिल किये हैं मगर जैसा अब मां बाप (Parents) का रुख है साफ़ है कि बच्चों से ज्यादा नंबरों की फ़िक्र मां बाप को है जिन्होंने अपने बच्चों को इंसान नहीं नंबर लाने की मशीन समझ लिया है.

मार्कशीट्स (Marksheet) शो ऑफ़ पहले गली-मोहल्ला स्तर तक होता था. किसी के बच्चे के बढ़िया नंबर आ गए हों तो वह गली के बीचोंबीच खड़े होकर बाकियों से उनके बच्चों के नंबर पूछता था. आजकल यही काम इनडायरेक्ट वे में सोशल मीडिया पर मार्कशीट्स चस्पा करके होता है. आजकल मास्टर भी बड़े दयालु हो गए हैं जो 100 में से 100 दे देते हैं. हमारे टाइम के मास्टर तो गणित (Maths) में भी सुलेख का आधा नंबर काट लेते थे. 100 दिखते ही परफॉर्मेंस प्रेशर डबल हो जाता है. यही कारण है कि जब-जब रिज़ल्ट आता है 80 से 100 वाले दिखते हैं. 60 से 80 वाले तो यह भी बताने में झिझकते हैं कि इस साल उनके यहां किसी ने बोर्ड दिए. रिज़ल्ट पर रोने से कोई फ़ायदा नहीं अगर बच्चा आगे के लिए सबक नहीं ले रहा है. वह सबक कैसे ले? अगर माता-पिता ख़ुद ही कम नंबर देखकर हाइपर हुए पड़े हैं. बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि जो करना है परीक्षा (Examination) के पहले तक करो.

ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज बच्चों के साथ बाप भी नंबर की रेस में भाग रहे हैं

 

पापा जब कहते थे कि 'मेरी मम्मी ने तो हाई स्कूल में थर्ड डिवीज़न आने पर रसगुल्ले बंटवाए थे' तो मम्मी कहती थीं इन्हें ये भी बताया करो कि कैसे आपने छः महीने तक बीमार रहने के बाद भी एमएससी गणित में यूनिवर्सिटी टॉप किया था. उनकी यही बातें हमें हिम्मत देतीं और मुझे और बहन को एमटेक तक ले गईं. मुझे बनस्थली से और बहन को आईआईटी से. आपको एक जगह दाख़िला नहीं मिला तो दूसरी जगह मिल जाएगा. एक प्रतियोगी परीक्षा में रह गए तो दूसरी में मौका मिल जाएगा.

हमें तो यह भी सिखाया गया कि परीक्षा के एक घंटे पहले पढ़ना भी बंद कर दो, 'अगर सालभर थोड़ा-थोड़ा पढ़ोगे तो परीक्षा के समय इस आपाधापी की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.' परीक्षा के एक घंटे पहले दिमाग बिल्कुल शांत हो...

मार्कशीट्स (Marksheet) शो ऑफ़ पहले गली-मोहल्ला स्तर तक होता था. किसी के बच्चे के बढ़िया नंबर आ गए हों तो वह गली के बीचोंबीच खड़े होकर बाकियों से उनके बच्चों के नंबर पूछता था. आजकल यही काम इनडायरेक्ट वे में सोशल मीडिया पर मार्कशीट्स चस्पा करके होता है. आजकल मास्टर भी बड़े दयालु हो गए हैं जो 100 में से 100 दे देते हैं. हमारे टाइम के मास्टर तो गणित (Maths) में भी सुलेख का आधा नंबर काट लेते थे. 100 दिखते ही परफॉर्मेंस प्रेशर डबल हो जाता है. यही कारण है कि जब-जब रिज़ल्ट आता है 80 से 100 वाले दिखते हैं. 60 से 80 वाले तो यह भी बताने में झिझकते हैं कि इस साल उनके यहां किसी ने बोर्ड दिए. रिज़ल्ट पर रोने से कोई फ़ायदा नहीं अगर बच्चा आगे के लिए सबक नहीं ले रहा है. वह सबक कैसे ले? अगर माता-पिता ख़ुद ही कम नंबर देखकर हाइपर हुए पड़े हैं. बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि जो करना है परीक्षा (Examination) के पहले तक करो.

ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज बच्चों के साथ बाप भी नंबर की रेस में भाग रहे हैं

 

पापा जब कहते थे कि 'मेरी मम्मी ने तो हाई स्कूल में थर्ड डिवीज़न आने पर रसगुल्ले बंटवाए थे' तो मम्मी कहती थीं इन्हें ये भी बताया करो कि कैसे आपने छः महीने तक बीमार रहने के बाद भी एमएससी गणित में यूनिवर्सिटी टॉप किया था. उनकी यही बातें हमें हिम्मत देतीं और मुझे और बहन को एमटेक तक ले गईं. मुझे बनस्थली से और बहन को आईआईटी से. आपको एक जगह दाख़िला नहीं मिला तो दूसरी जगह मिल जाएगा. एक प्रतियोगी परीक्षा में रह गए तो दूसरी में मौका मिल जाएगा.

हमें तो यह भी सिखाया गया कि परीक्षा के एक घंटे पहले पढ़ना भी बंद कर दो, 'अगर सालभर थोड़ा-थोड़ा पढ़ोगे तो परीक्षा के समय इस आपाधापी की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.' परीक्षा के एक घंटे पहले दिमाग बिल्कुल शांत हो जाना चाहिए.जो पढ़ा उसे बस फिर मन में दोहराओ. किताबों से टाटा कह दो. हम आज के बच्चों को पहले दिन से ही परफॉर्मेंस प्रेशर में झोंक देते हैं.

हर टेस्ट में टॉप करो, हर असाइनमेंट में टॉप करो. बच्चा अगर आर्ट्स चुन ले तो बाहर वाले छोड़िए मां-बाप को ही लगने लगता है बच्चा कमज़ोर है इसलिए गणित नहीं ले पाया. आय हाय! अब लोग क्या कहेंगे? 6 साल की उम्र से कोडिंग सिखाने की इच्छा रखने वाले पैरंट्स के लिए बच्चे का सब्जेक्ट चुनना उसकी पसंद का नहीं रुतबे का सवाल बन गया है. जितना कठिन माना जाने वाला सब्जेक्ट बच्चा पढ़ेगा, उतना ही होशियार माना जाएगा ना.

रिज़ल्ट वाले दिन बच्चों से ज़्यादा माता-पिता शर्मिंदा होते हैं. मैंने ऐसे भी लोग देखे हैं जो बच्चों के ग़लत नंबर बताते हैं ताक़ि इज़्ज़त बची रहे. ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि असल में वे बच्चों को अगली बार भी मेहनत करने से बचा रहे हैं. झूठ बोलना हल नहीं है. सालभर मेहनत करना हल है.

दसवीं बारहवीं तो बहुत बड़ी क्लासेस हैं आजकल फेसबुक पर प्राइमरी के बच्चों की मार्कशीट भी पोस्ट करके पैरेंट्स दिखाते हैं मेरे बच्चे के 100 में से 100 आए. बच्चे में पैदा होते ही ये कॉम्पटीशन दुनिया नहीं असल में पैरेंट्स ख़ुद भरते हैं. बच्चा रट्टा मारकर भी 100 ले आए तो घरवाले ख़ुश हैं. इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे कितना ज्ञान मिला.

पापा का पढ़ा गणित ऐसा था कि उनके पढ़ाई छोड़ने के 20-30 साल बाद भी जब हम उनसे गणित का कठिन से कठिन सवाल पूछते तो वे उसे हमसे पहले हल कर लेते. जबकि कोर्स बदल चुका है. किताबें बदल चुकी हैं. आपका बच्चा अगर किताबों में क्या लिखा है यह जानता है और कम नंबर लाया है तो उसे बजाय डांटने के उसकी रुचि समझने की कोशिश करें.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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