• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

बिहार चुनाव के बाजीगर और दिलबर पर भारी दिलरुबा

    • शरत कुमार
    • Updated: 17 नवम्बर, 2020 11:13 PM
  • 17 नवम्बर, 2020 09:43 PM
offline
बिहार (Bihar) के लोगों ने नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को चौथी बार मौका दिया है. बिहार में अगर आज नीतीश अपना चौथा टर्म पूरा करने में कामयाब हुए हैं तो इसकी बड़ी वजह महिलाएं (Women voters) हैं जिन्हें जेडीयू (JDU) के अलावा भाजपा (BJP) को भी धन्यवाद देना चाहिए.

शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर का यह डायलॉग मशहूर हुआ था कि हारते- हारते जीत जाने वाले को बाजीगर कहते हैं. बिहार (Bihar) के चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) राजनीति के बाजीगर बनकर उभरे हैं. लेकिन हमारे भावुकतावादी समाज में जीतते -जीतते हार जाने वाले को दिलबर समझा जाता है. तो कह सकते हैं कि बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) राजनीति के नए दिलबर बन गए हैं. बाजीगर नीतीश कुमार की छवि ऐसी कभी नहीं रही जिनके जीतने पर कोई अफसोस करे और दिलबर तेजस्वी यादव इस तरह मैदान में खेले कि ऐसे कम लोग होंगे जिन्हें तेजस्वी के हारने का अफसोस ना रहा हो. मगर बिहार चुनाव की दिलरुबा तो बिहार की महिलाएं (Women voters of Bihar) हैं जिसने सबका दिल मोह लिया है. बिहार का चुनाव समान्यत: देश में होने वाले राज्यों के और चुनाव जैसा ही था मगर बिहार के चुनाव में मंथन से जो चुनावमृत निकला है वाह बेहद सुकून देने वाला है. मंथन हुआ है तो विष भी निकलेगा ही. मगर जो अमृत निकला है वह भारतीय लोकतंत्र के लिए इतना कल्याणकारी है कि यहीं से उम्मीद भी बंधती है.

यह उम्मीद है विषपान करने वाले नीलकंठ के मिल जाने का. बिहार चुनाव के नतीजों और उनके विश्लेषण पर ध्यान दें तो ऐसा लगता है की बिहार की महिलाएं बिहार के चुनाव में मंथन से निकले विष को पीकर भारतीय लोकतंत्र को अमृत बाटेंगी. बिहार चुनाव में जिस तरह से चुनाव प्रचार हुआ है या फिर जिस तरह से नेताओं की भाषा रही है या फिर चुनावी मुद्दे रहे हैं यह अराजक दौर में संतोष पैदा करता है.

मगर दो बातों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर काफी बहस चल रही है कि क्या बिहार भी अब धार्मिक असहिष्णुता और राष्ट्रवाद का प्रयोगशाला बनेगा. बीजेपी ने जिस तरह से बिहार के घरों में सेंध लगाई है उसे लेकर समाज के एक वर्ग में संशय है. हिंदू वाहिनी से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाली रेणु देवी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को लेकर चलने वाले तर किशोर प्रसाद को उप मुख्यमंत्री बनाने पर कई लोग संदेह व्यक्त कर रहे...

शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर का यह डायलॉग मशहूर हुआ था कि हारते- हारते जीत जाने वाले को बाजीगर कहते हैं. बिहार (Bihar) के चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) राजनीति के बाजीगर बनकर उभरे हैं. लेकिन हमारे भावुकतावादी समाज में जीतते -जीतते हार जाने वाले को दिलबर समझा जाता है. तो कह सकते हैं कि बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) राजनीति के नए दिलबर बन गए हैं. बाजीगर नीतीश कुमार की छवि ऐसी कभी नहीं रही जिनके जीतने पर कोई अफसोस करे और दिलबर तेजस्वी यादव इस तरह मैदान में खेले कि ऐसे कम लोग होंगे जिन्हें तेजस्वी के हारने का अफसोस ना रहा हो. मगर बिहार चुनाव की दिलरुबा तो बिहार की महिलाएं (Women voters of Bihar) हैं जिसने सबका दिल मोह लिया है. बिहार का चुनाव समान्यत: देश में होने वाले राज्यों के और चुनाव जैसा ही था मगर बिहार के चुनाव में मंथन से जो चुनावमृत निकला है वाह बेहद सुकून देने वाला है. मंथन हुआ है तो विष भी निकलेगा ही. मगर जो अमृत निकला है वह भारतीय लोकतंत्र के लिए इतना कल्याणकारी है कि यहीं से उम्मीद भी बंधती है.

यह उम्मीद है विषपान करने वाले नीलकंठ के मिल जाने का. बिहार चुनाव के नतीजों और उनके विश्लेषण पर ध्यान दें तो ऐसा लगता है की बिहार की महिलाएं बिहार के चुनाव में मंथन से निकले विष को पीकर भारतीय लोकतंत्र को अमृत बाटेंगी. बिहार चुनाव में जिस तरह से चुनाव प्रचार हुआ है या फिर जिस तरह से नेताओं की भाषा रही है या फिर चुनावी मुद्दे रहे हैं यह अराजक दौर में संतोष पैदा करता है.

मगर दो बातों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर काफी बहस चल रही है कि क्या बिहार भी अब धार्मिक असहिष्णुता और राष्ट्रवाद का प्रयोगशाला बनेगा. बीजेपी ने जिस तरह से बिहार के घरों में सेंध लगाई है उसे लेकर समाज के एक वर्ग में संशय है. हिंदू वाहिनी से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाली रेणु देवी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को लेकर चलने वाले तर किशोर प्रसाद को उप मुख्यमंत्री बनाने पर कई लोग संदेह व्यक्त कर रहे हैं.

बिहार में वाक़ई नीतीश कुमार और भाजपा को महिलाओं का एहसान मानना चाहिए

उनके मन में लगी इस आग को इस बात से भी हवा मिल रही है कि ओवैसी की एमआईएमआईएम ने उन्मादी धार्मिक प्रचार के बल पर बिहार के मुसलमानों में गहरी पैठ बनाई है.पर बिहार में जो महिलाओं का वोटिंग पैटर्न रहा है उसे देखकर लगता है जैसे भारतीय लोकतंत्र को बिहार की महिलाएं कह रही हों- 'मैं हूं ना'.

चुनाव पश्चात रिसर्च के आए आंकड़ों पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि महिलाओं में खासकर युवा महिलाओं ने बीजेपी को वोट दिया है. यानी घर की चाबी अगर महिलाओं के हाथ में है तो इससे बेहतर सुकून की बात कुछ और हो नहीं सकती है. सवाल उठता है कि महिलाओं ने पुरुष से इतर वोट क्यों डालें हैं. कुछ लोगों का तर्क है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला योजना से उनका जीवन आसान कर दिया है तो कुछ लोगों का कहना है कि नीतीश कुमार ने उनके बच्चों के लिए अच्छे स्कूल बना दिया है.

मगर यह पूरा सच नहीं है क्योंकि जिस रसोई घर में महिलाएं गैस जलाती हैं वहां महंगाई की मार भी है और जिस स्कूल में महिलाएं बच्चे को पढ़ने के लिए भेजती हैं वहां टीचर नहीं आने की समस्या भी हैं. बहुत सारे लोगों का ऐसा मानना है जिसमें दम नजर आता है कि ऐसा नहीं है कि महिलाओं ने कोई प्लानिंग कर महागठबंधन को कम वोट दिया है बल्कि उनके जेहन में अनैच्छिक रूप से कानून व्यवस्था की समस्या या कहें कि समाज में हिंसा का खौफ बैठा रहता है.

लालू राज की पुरानी यादें कहें या बीजेपी के बार-बार याद दिलाने की कोशिश कहें, हो सकता है कि उनके अंतर मन में डर अनायास बैठ गया हो. इस तरह के डर का मुकाबला पूरी दुनिया में महिलाएं सबसे ज्यादा डट कर कर रही हैं. बीजेपी अगर उग्र राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद के रास्ते पर चलना चाहेगा तो बिहार के महिलाएं कभी भी चाबी लगा सकती हैं. इसी तरह अगर सीमांचल में महिलाओं के वोटिंग पैटर्न को देखें तो वहां पर मुस्लिम पुरुषों ने ओवैसी की पार्टी को वोट ज्यादा दिया है बनिस्बत मुस्लिम महिलाओं के। मुस्लिम महिलाओं ने महागठबंधन को ज्यादा वोट दिया है.

इसलिए अच्छी बात यह है कि बीजेपी और जदयू की सरकार बिहार के विकास के एजेंडे पर पर ही चलने में अपनी भलाई समझेगी. इतिहास गवाह रहा है और फिलहाल दुनिया गवाह है कि धार्मिक कट्टरवाद और उग्र राष्ट्रवाद के खिलाफ पूरी दुनिया में महिलाएं ही लड़ी हैं और महिलाएं ही लड़ रही हैं. विभाजन से पहले बंगाल प्रेसिडेंसी जिसका हिस्सा बिहार भी 1912 तक था.

तब उस वक्त महान लेखक रविंद्र नाथ टैगोर ने 1905 में गोरा जैसी कालजयी उपन्यास की रचना की थी. गोरा उपन्यास का नायक घोर जातिवादी और उग्र राष्ट्रवादी होता है. वह भारत का उदय और भविष्य हिंदू जातिवाद और उग्र राष्ट्रवाद में देखता है मगर नायिका सुचारिता अपने तर्क के बल पर उसे महसूस करा देती है कि राष्ट्र इससे आगे की चीज है. अगर आप बिहार में जाएं तो आज भी आप गोरा उपन्यास की नायिका सुचारिता, ललिता और आनंदमयी से मिल सकते हैं.

यही वजह है कि बीजेपी के लिए बिहार, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा अब तक पहुंच से दूर है. यहां पर महिलाओं की वजह से ही बीजेपी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात को दोहरा नहीं पाई है. यहां तक कि बिहार ,पश्चिम बंगाल और उड़ीसा को कर्नाटक भी नहीं बन पाए है. आपको ऐसा लगता है कि महिलाओं की ताकत पर मैं कुछ ज्यादा भरोसा कर रहा हूं तो इसके पीछे एक सामाजिक और धार्मिक संदर्भ भी है.

सामाजिक संदर्भ तो यह है कि जब आप ईस्ट से वेस्ट की तरफ बढ़ते हैं तो यह पाते हैं कि ईस्ट में महिलाएं निर्णय लेने की क्षमता में होती हैं और पुरुषों पर हावी होती हैं और जैसे-जैसे आप वेस्ट की तरफ बढ़ते हैं महिलाओं के निर्णय लेने की क्षमता कम होती जाती है और पुरुषवादी समाज हावी होता चला जाता है. बंगाल में महिलाओं का जितना वर्चस्व है उससे थोड़ा कम बिहार में है और आगे की तरफ आएंगे आप तो उत्तर प्रदेश में और कम हो जाता है.

हरियाणा और राजस्थान आते-आते महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं रहती है और जैसे ही आप पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरफ जाते हैं महिलाओं की स्थिति जानवरों के बराबर हो जाती है. मैं इसे धार्मिक परिपेक्ष में भी देखता हूं कि लोग जिस तरह के भगवान की पूजा करते हैं उसी तरह से उनका स्वभाव हो जाता है. पूरब में देवी की पूजा होती है इसलिए महिलाएं हावी रहती हैं बिहार में देवी के साथ-साथ शंकर भगवान की पूजा होती है जहां पर आपको बिहार की जनता शिव जी की बारात में आए बाराती लगेंगे.

मगर भगवान शंकर मां पार्वती से ही डरते थे. उत्तर प्रदेश आते-आते श्री राम की पूजा शुरू हो जाती है जहां पर सीता पूजनीय तो है मगर निर्णय में उसका कोई नाम हामी नहीं है. हरियाणा और राजस्थान में हर कदम पर आपको बाला जी मिल जाएंगे जहां पर मंदिर में महिलाएं नहीं रहती हैं. अगर देवी का मंदिर मिल भी जाए तो ज्यादातर सती माता के मंदिर है. जो पितृसत्तात्मक समाज का घोतक है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरफ चले जाएं तो तो देवी पूजन का कोई कंसेप्ट ही नहीं है.

हमारे पत्रकार मित्र शिप्रा माथुर ने अमेरिकी चुनाव पर महिलाओं के संदर्भ में मुनीर नियाजी का एक शेर शेयर किया है है जिसके जरिए मैं अपनी बात कह रहा हूं.

शहर का तब्दील होना शाद रहना और उदास

रौनकें जितनी यहां हैं औरतों के दम से हैं

मुनीर नियाज़ी

बिहार के बारे में लोग कहते हैं कि यह ऐतिहासिक रूप से समस्या ग्रसित राज्य है. कोई ना कोई फॉल्ट लाइन यहां पर हमेशा रहा है तभी तो महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर, सिखों के अंतिम गुरु गुरु गोविंद सिंह तक को यहां अवतरित होना पड़ा. पर इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि जब भी कोई समाज में फॉल्ट लाइन डेवलप होता है तो दिशा दिखाने वाला बिहार से निकलता है. उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार चुनाव के मंथन से लोकतंत्र का भविष्य निकलेगा.

ये भी पढ़ें -

कांग्रेस की हार पर कपिल सिब्बल का निशाना!

बिहार: जहां एक थी कांग्रेस...

बिहार की तरह बंगाल में भी तीसरा मोर्चा होगा?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲