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बिहार: जहां एक थी कांग्रेस...

    • शरत कुमार
    • Updated: 16 नवम्बर, 2020 04:45 PM
  • 16 नवम्बर, 2020 04:45 PM
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बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं जैसी परिस्थितियां हैं बिहार की सियासी फील्ड में कांग्रेस (Congress) की स्थिति खंडहर हो चुकीं भूतिया चीनी मिलों की तरह है. पहले बिहार के चुनाव में नेता बंद पड़ चुकीं चीनी मिलों को चालू करने का चुनावी वायदा किया करते थे. मगर यह कभी हो ना सका.

कुछ साल पहले मैं एक मित्र की बेटी की शादी में मुंबई गया था. वहां पर मुझे उत्तर प्रदेश से आए एक चीनी मिल के मालिक मिले थे. परिचय होने पर मैंने कहा कि, आप बिहार में चीनी मिल क्यों नहीं लगाते हैं? पहले तो वहां पर बहुत सारी चीनी मिल हुआ करती थीं. नीतीश कुमार की सरकार बिहार में उद्योग वापस शुरू करना चाहती है और ऐसे में चीनी मिल जैसे कृषि आधारित उद्योग बिहार के लिए वरदान साबित हो सकते हैं. उन्होंने कहा कि यह नहीं हो सकता. बिहार का शुगर फील्ड डिस्टर्ब हो चुका है और किसान ईख की खेती से तौबा कर चुके हैं. इस बीच एक पूरी नई पीढ़ी बदल चुकी है जिन्होंने कभी ईख की खेती ना ही देखी और ना ही की है. यह सुनते ही मैं यादों में खो गया. वह बचपन की यादें, जब घर में ईख की बुवाई होती थी पूरे गांव का भोज होता था. वह जश्न का माहौल, ईख की कटाई, पेराई और चाचाओं का गुड़ की चकरी लेकर शहर बेचने जाना, तमाम बातें जेहन में उभर आई. एक बार अपने बाएं हाथ की उस उंगली की तरफ देखा जो कोल्हू में ईख के साथ ही पिस गयी थी जो आज तक मुकम्मल नहीं हो पाई. उस उद्योगपति की कही हुई बातें कई दिनों तक मेरे कानों में गूंजती रहीं कि बिहार का शुगर फील्ड डिस्टर्ब हो गया है अब वहां पर चीनी मिल नहीं लग सकती है. अगर आप बिहार जाएं तो हां देखेंगे कि बिहार के हर कोने में चीनी मिलों का विशाल खंडहर भुतहा पड़ा है.

जैसे हालात हैं बिहार में कांग्रेस पूरी तरह से गर्त के अंधेरों में चली गयी है

बिहार में हर चुनाव में कांग्रेस वापसी की कोशिश करती है मगर हर बार कांग्रेस का ऐतिहासिक खंडहर और जर्जर होता जा रहा है. कांग्रेस को अब समझ लेना चाहिए कि उनकी पार्टी अतीत के उस गौरव की तरफ सपने देखने से नहीं लौट सकती है क्योंकि वोटर बेस डिस्टर्ब हो चुका है. बिहार में...

कुछ साल पहले मैं एक मित्र की बेटी की शादी में मुंबई गया था. वहां पर मुझे उत्तर प्रदेश से आए एक चीनी मिल के मालिक मिले थे. परिचय होने पर मैंने कहा कि, आप बिहार में चीनी मिल क्यों नहीं लगाते हैं? पहले तो वहां पर बहुत सारी चीनी मिल हुआ करती थीं. नीतीश कुमार की सरकार बिहार में उद्योग वापस शुरू करना चाहती है और ऐसे में चीनी मिल जैसे कृषि आधारित उद्योग बिहार के लिए वरदान साबित हो सकते हैं. उन्होंने कहा कि यह नहीं हो सकता. बिहार का शुगर फील्ड डिस्टर्ब हो चुका है और किसान ईख की खेती से तौबा कर चुके हैं. इस बीच एक पूरी नई पीढ़ी बदल चुकी है जिन्होंने कभी ईख की खेती ना ही देखी और ना ही की है. यह सुनते ही मैं यादों में खो गया. वह बचपन की यादें, जब घर में ईख की बुवाई होती थी पूरे गांव का भोज होता था. वह जश्न का माहौल, ईख की कटाई, पेराई और चाचाओं का गुड़ की चकरी लेकर शहर बेचने जाना, तमाम बातें जेहन में उभर आई. एक बार अपने बाएं हाथ की उस उंगली की तरफ देखा जो कोल्हू में ईख के साथ ही पिस गयी थी जो आज तक मुकम्मल नहीं हो पाई. उस उद्योगपति की कही हुई बातें कई दिनों तक मेरे कानों में गूंजती रहीं कि बिहार का शुगर फील्ड डिस्टर्ब हो गया है अब वहां पर चीनी मिल नहीं लग सकती है. अगर आप बिहार जाएं तो हां देखेंगे कि बिहार के हर कोने में चीनी मिलों का विशाल खंडहर भुतहा पड़ा है.

जैसे हालात हैं बिहार में कांग्रेस पूरी तरह से गर्त के अंधेरों में चली गयी है

बिहार में हर चुनाव में कांग्रेस वापसी की कोशिश करती है मगर हर बार कांग्रेस का ऐतिहासिक खंडहर और जर्जर होता जा रहा है. कांग्रेस को अब समझ लेना चाहिए कि उनकी पार्टी अतीत के उस गौरव की तरफ सपने देखने से नहीं लौट सकती है क्योंकि वोटर बेस डिस्टर्ब हो चुका है. बिहार में पूरी नई पीढ़ी आ चुकी है जिसने कभी कांग्रेस के सुनहरे अतीत को नहीं देखा.

वह नहीं जानते कि कांग्रेस की विचारधारा क्या थी और कांग्रेस ने बिहार के लिए क्या किया है. उनके सामने कोई विकल्प भी नहीं है जिस पर वह माथापच्ची कर सके कि अगर कांग्रेस को वोट दें तो हमारे भविष्य क्या होगा. बिहार के वोटर ईख की खेती की तरह कांग्रेस को वोट देना कब का छोड़ कर आगे बढ़ चुके हैं. बिहार में जिन चीजों की खेती हो रही है उसमें कांग्रेस की ईख की कोई जगह नहीं है.

कांग्रेस के नेताओं को चीनी की मिठास छोड़कर अब उस कड़वाहट के साथ जीना शुरू करना चाहिए, यह सोच कर कि दवा अक्सर कड़वी होती है. अतीत के खंडहरों को झांकना बंद कर नई शुरुआत की तरफ सोचना शुरू करनी चाहिए. चुनावी वादों की तरह केवल चुनाव में ही बिहार को याद करना बंद कर सियासी खेत तैयार करने पर ध्यान देना चाहिए जिसमें पसीना तो बहाए मगर ऐसी तकनीक का इस्तेमाल करें कि वोट की खेती भरपूर हो.

बड़ा सवाल है कि क्या बिहार में कांग्रेस के लिए कोई खेत बचा भी है. लोग विधानसभा चुनाव में महा गठबंधन की हार के लिए कांग्रेस के सिर पर ठीकरा फोड़ रहे हैं. राहुल गांधी तो किसी जिम के दरवाजे पर टंगा हुआ ऐसा पंचिंग बैग बन चुके हैं कि जिसे मुक्केबाजी नहीं आती है वह भी शौकिया तौर पर या अनायास ही एक आध मुक्का पंचिंग बैग पर लगाता हुआ गुजर जाता है. बिहार जाति और धर्म के ऐसे खांचे में बटा है जिसमें कांग्रेस के अंदर घुसने के लिए ना तो कोई खिड़की नजर आती है और ना ही जगह पाने के लिए कोना भी नजर आ रहा है.

कभी मुस्लिम तो कभी दलित तो कभी ब्राह्मण को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर सोचती है कि भागते भूत की लंगोटी ही हाथ में आ जाए. यह सच है कि बिहार में भूमिहार और ब्राह्मणों ने कांग्रेस में लंबे समय तक राज किया है. मगर सदानंद सिंह और मदन मोहन झा के जरिए भूमिहार और ब्राह्मण कांग्रेसमें नहीं लौट सकते हैं. नई पीढ़ी के बच्चों ने अपनी जातियों को कांग्रेस के जरिए राज करते हुए नहीं देखा है. कांग्रेस में अगड़ी जातियों के वर्चस्व के समय जगजीवन राम और राम लखन यादव जैसे सजावटी नेताओं के जरिए काम चलाया जाता था मगर लालू यादव के पिछड़े -दलित उभार के दौर के बाद अब बैकवर्ड क्लास चूं -चूं का मुरब्बा चूसने के मूड में नहीं है.

लालू यादव के दौर के बाद बिहार में पिछड़े और दलितों ने खुद को इंसान समझना शुरू किया और उसके बाद वर्ग संघर्ष का ऐसा दौर शुरू हुआ जिसे अगड़ी जातियों ने कानून व्यवस्था का विषय बताकर भारी हंगामा मचाया. पहले राजपूतों,और भूमिहारों ब्राह्मणों के बेटे डॉन हुआ करते थे, मगर सामाजिक आंदोलन के बाद अब पिछड़े वर्ग के लोग भी धमक जमाने लगे थे. फिर सड़कों पर संघर्ष हुआ और बिहार कानून व्यवस्था के लिए बदनाम हुआ. यह दौर था जिसमें अगड़ी जातियों के लोग विकल्प के तौर पर बीजेपी की तरफ जुड़ने लगे। विकल्प के तौर पर बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता आनंद मोहन जैसे लोग भी उभरे थे.

नीतीश कुमार के सियासी आकांक्षाओं ने अगड़ी जातियों को जगह दी. और फिर अगड़ी जातियां बीजेपी के साथ जुड़कर यादव राजवंश के सियासी की सफलता के दौर को समाप्त किया. अगड़ी जातियों की पार्टी रही कांग्रेस कंबल ओढ़ कर घी पीती है, ऐसे में ना घर की रही ना घाट की रही। क्योंकि उस दौड़ में अगड़ी जातियों को खुलकर साथ खड़े होने वाली पार्टी की जरूरत थी. जब पहली बार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे तब उनका वह स्टेटमेंट कौन भूल सकता है जब उन्होंने कहा था कि हमारी सफलता का श्रेय आनंद मोहन सिंह को जाता है.

वही आनंद मोहन जो छोटन शुक्ला हत्याकांड के बाद भूमिहारों की रैली में कलेक्टर हत्याकांड के मामले में अभी जेल में है. उसी दौर में जगन्नाथ मिश्रा और भागवत झा आजाद के परिवार के लोगों ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. सामाजिक आंदोलन खत्म हुआ तो आर्थिक संभावनाओं को लेकर जातियों में छटपटाहट शुरू हुई इसकी वजह से मल्लाहों मुशहरों और दुसादों की अलग-अलग पार्टियां बनी. यह सब लोग बीजेपी को वोट नहीं दे सकते हैं लिहाजा बीजेपी ने इनके जाति के नेताओं को जोड़ना शुरु किया और एक सफल गठबंधन मनाया.

चाहे कांग्रेस के तारिक अनवर हो या फिर राष्ट्रीय जनता दल के नेता शिवानंद तिवारी हो, बिहार में चुनावी हार के लिए कम से कम इस चुनाव में कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. क्योंकि इनके पास कोई वोटर फील्ड नहीं है जिसमें यह वोट की फसल काटे. इधर-उधर के 2-4 नेता और नेता पुत्र राष्ट्रीय जनता दल के भरोसे 19 सीट जीत गए हैं. यह कांग्रेस पार्टी के जनाधार पर नहीं जीते हैं.

उत्तर बिहार में ब्राह्मण और खासकर झा, कब का कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी की तरफ अपना रुख कर चुके हैं मगर कांग्रेस आज भी समझती है कि ब्राह्मण हमारे साथ हैं. इसी वजह से कांग्रेस में उत्तर बिहार में बुरी तरह से मात खाई है. अब सवाल उठता है कि जब बिहार में हालात ऐसे हैं तो फिर कांग्रेस के लिए जगह कहां है? जातियों की बात तो छोड़ दें, कांग्रेस के साथ अब धर्म भी नहीं रहा. सीमांचल के चुनावी नतीजे ने धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को अंदर से हिला कर रख दिया है.

भारत की राजनीति में लालू प्रसाद यादव एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनका पूरा जीवन बीजेपी और संघ परिवार से लड़ता हुआ बीता है. समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी या फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, असम गण परिषद, अन्नाद्रमुक, द्रमुक हो या फिर शिवसेना हो सभी के ऊपर सियासी सफर में कभी न कभी बीजेपी से ऊपरी या भीतरी गठबंधन का आरोप लगता रहा है. मगर लालू कहते हैं मर जाऊंगा पर बीजेपी और संघ के साथ नहीं जाऊंगा.

राष्ट्रीय जनता दल के लोग तो यहां तक कहते हैं कि लालू यादव इसकी कीमत जेल जा कर चुका रहे हैं. मगर सीमांचल के मुसलमानों ने पहली फुर्सत में ही लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को सब निपटा दिया, जब इन्हें उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. जैसे ही ओवैसी की एमआईएम विकल्प के तौर पर उन्हें मिली उन्होंने अपने धर्म को तरजीह देते हुए एमवाई समीकरण से तौबा कर लिया. ओवैसी का सबसे बड़ा चुनावी एजेंडा था कि जब 14 फ़ीसदी यादव इतनी ज्यादा सीटें जीतकर आते हैं तो 17 फ़ीसदी मुसलमान इतनी कम सीटें जीतकर क्यों आते हैं.

यानी धर्म आधारित राजनीति राष्ट्रीय जनता दल और लालू यादव के सियासी विरासत पर भारी पड़ी. जब मुसलमान धर्म के आधार पर राष्ट्रीय जनता दल को छोड़ सकते हैं तो कांग्रेस उनके लिए दूर-दूर तक कहीं विकल्प के तौर पर नजर नहीं आती है. इसलिए कांग्रेस जाति के अलावा धर्म के खांचे में भी बिहार में कहीं फिट नहीं बैठ रही है. कई बार लोग यह आरोप लगाते हैं कि कांग्रेस का जनाधार इसलिए नहीं बढ़ रहा है क्योंकि वह लालू यादव की पार्टी के साथ रहती है. मगर यह पूरा सच नहीं है.

कांग्रेसी विकल्प के तौर पर कई बार अकेले लड़ चुकी है मगर मुंह की खाई है. क्योंकि बिहार की अगड़ी जातियां सियासी रूप से काफी चतुर है और अगड़ी जातियां किसी भी तरह से सियासत पर कब्जा चाहती है इसलिए भावनाओं के आधार पर कांग्रेस के पास नहीं आएगी. भावनाओं के आधार पर अगर वोटर वोट डालते तो लालू यादव के वक्त अगड़ी जातियों के लिए संघर्ष करने वाले आनंद मोहन का परिवार राष्ट्रीय जनता दल के पास में जाता.

लोग कहते हैं कि तेजस्वी यादव जैसा मेहनत करने वाला कांग्रेस में कोई नहीं है. मगर सवाल उठता है कि मेहनत करने के लिए भी तो कुछ होना चाहिए. भौतिक विज्ञान कहता है W=F×D यानी काम उसी को कहते हैं जिसमें लगाए गए बल से कोई बदला हुआ हो. आप चाहे जितना ही बल का प्रयोग कर लें अगर चीजें बदलती नहीं है तो आपका काम शून्य हैं. डिस्प्लेसमेंट यानी बदलाव के लिए जगह चाहिए और वह जगह बिहार में कांग्रेस के लिए शून्य है. इसलिए कांग्रेस को सबसे पहले वह जमीन तलाशनी होंगी जिस पर वह पसीना बहाए.

राजस्थान चुनाव से ठीक पहले राहुल गांधी ने झालावाड़ से लेकर कोटा तक बस में रोड शो की चुनावी यात्रा की थी. सुबह महिला कांग्रेस का सम्मेलन था. वहां पर राहुल गांधी कुछ देर से पहुंचे तो हमने आयोजन में लगे नेताओं से पूछा कि देरी क्यों हो रही है तो उन्होंने कहा- राहुल गांधी बहुत मेहनती नेता है, रात को रोड शो से आए मगर उसके बावजूद कई घंटे तक जिम में रहे. काश, राहुल गांधी कुछ पसीना जिम के बाहर बहा लेते.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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