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Post-poll alliance वाली सरकार से बेहतर है दोबारा चुनाव कराना

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 19 मई, 2018 02:46 PM
  • 19 मई, 2018 02:46 PM
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लोकतंत्र का जैसा मजाक कर्नाटक में उड़ाया जा रहा है, वो ये बताने के लिए काफी है कि, जब तक देश की जनता गठबंधन की राजनीति को सिरे से खारिज नहीं करती हालात ऐसे ही बद से बदतर होते रहेंगे.

कश्मीर, बिहार, गोवा, मणिपुर, मेघालय कहने को तो पांच राज्य हैं. ऐसे राज्य जिनमें दूर-दूर तक आपस में कोई समानता नहीं है. चाहे खान पान हो या फिर संस्कृति, कला और वेशभूषा ये हर मामले में एक दूसरे से उलट हैं. इतना जानने और समझने के बावजूद यदि किसी से "समानता" की बात को लेकर सवाल किया जाए तो व्यक्ति विचलित हो जाएगा. प्रश्न करने पर व्यक्ति एक सुर में कहेगा कि इन पांचों राज्यों में समानता की बात करना अपने आप में कोरी लफ्फाजी है. मगर जब इस सवाल को राजनीति के अंतर्गत राजनीतिक परिदृश्य में देखा जाए तो जवाब मिलना आसान हो जाता है. राजनीति के मद्देनजर उपरोक्त पांचों राज्यों में गठबंधन की सरकार है और इनमें भी सबसे ताजा मामला कर्नाटक का है. जहां भाजपा सत्ता में न आ सके इसलिए कांग्रेस और जेडीएस ने हाथ मिलाया है.

भारत की राजनीति में दो विरोधी दलों का गठबंधन के नाम पर हाथ मिलाना कोई नई बात नहीं है

इन तमाम राज्यों में गठबंधन की सरकार देखने के बाद मन में कुछ प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं. पहला सवाल जो हमारे सामने आता है वो ये कि आखिर राजनीति में गठबंधन कितना सही है. अब इस सवाल के जवाब को अगर नैतिकता के दायरे में रखकर देखें तो कहा यही जा सकता है कि ये एक ऐसा माध्यम है जहां राजसत्ता द्वारा ऐसा करते हुए भोली भली जनता को ठगने का काम किया जाता है.

इस बात को समझने के लिए हम कर्नाटक का उदाहरण लेते हैं. कर्नाटक में एक ऐसा वर्ग था जिसने खुले तौर पर भाजपा की नीतियों का साथ दिया और भाजपा के पक्ष में वोट दिया वहीं एक वर्ग वो भी था जो कांग्रेस या फिर जेडीएस के साथ आया. यानी जिसे भाजपा के अलावा कांग्रेस नहीं पसंद थी उसने जेडीएस को चुना. जो भाजपा और जेडीएस को सही नहीं मानता था उसने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया.

अब इन कही गई बातों का अवलोकन करें तो ये भी...

कश्मीर, बिहार, गोवा, मणिपुर, मेघालय कहने को तो पांच राज्य हैं. ऐसे राज्य जिनमें दूर-दूर तक आपस में कोई समानता नहीं है. चाहे खान पान हो या फिर संस्कृति, कला और वेशभूषा ये हर मामले में एक दूसरे से उलट हैं. इतना जानने और समझने के बावजूद यदि किसी से "समानता" की बात को लेकर सवाल किया जाए तो व्यक्ति विचलित हो जाएगा. प्रश्न करने पर व्यक्ति एक सुर में कहेगा कि इन पांचों राज्यों में समानता की बात करना अपने आप में कोरी लफ्फाजी है. मगर जब इस सवाल को राजनीति के अंतर्गत राजनीतिक परिदृश्य में देखा जाए तो जवाब मिलना आसान हो जाता है. राजनीति के मद्देनजर उपरोक्त पांचों राज्यों में गठबंधन की सरकार है और इनमें भी सबसे ताजा मामला कर्नाटक का है. जहां भाजपा सत्ता में न आ सके इसलिए कांग्रेस और जेडीएस ने हाथ मिलाया है.

भारत की राजनीति में दो विरोधी दलों का गठबंधन के नाम पर हाथ मिलाना कोई नई बात नहीं है

इन तमाम राज्यों में गठबंधन की सरकार देखने के बाद मन में कुछ प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं. पहला सवाल जो हमारे सामने आता है वो ये कि आखिर राजनीति में गठबंधन कितना सही है. अब इस सवाल के जवाब को अगर नैतिकता के दायरे में रखकर देखें तो कहा यही जा सकता है कि ये एक ऐसा माध्यम है जहां राजसत्ता द्वारा ऐसा करते हुए भोली भली जनता को ठगने का काम किया जाता है.

इस बात को समझने के लिए हम कर्नाटक का उदाहरण लेते हैं. कर्नाटक में एक ऐसा वर्ग था जिसने खुले तौर पर भाजपा की नीतियों का साथ दिया और भाजपा के पक्ष में वोट दिया वहीं एक वर्ग वो भी था जो कांग्रेस या फिर जेडीएस के साथ आया. यानी जिसे भाजपा के अलावा कांग्रेस नहीं पसंद थी उसने जेडीएस को चुना. जो भाजपा और जेडीएस को सही नहीं मानता था उसने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया.

अब इन कही गई बातों का अवलोकन करें तो ये भी मिल रहा है कि कर्नाटक में इन तीनों ही प्रमुख दलों के लॉयल वोटर थे जो अपनी अपनी पसंद की पार्टी की सरकार बनवाना चाहते थे. कहा ये जा सकता है कि जिस तरह कर्नाटक में भाजपा के खिलाफ जेडीएस और कांग्रेस एक साथ आए उसने न सिर्फ वोटर्स के साथ छल किया बल्कि ये भी बताया कि भारतीय राजनीति में नैतिकता की कोई जगह नहीं है और यहां जो भी रिश्ते बनते हैं वो केवल स्वार्थ के लिए बनते हैं.

अगर कर्नाटक में भी जेडीएस और कांग्रेस साथ आए हैं तो इसमें दोनों ही दलों का स्वार्थ छुपा हुआ है

यदि इस बात को समझना हो तो हमें उन रैलियों को भी याद करना होगा जिनमें कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न सिर्फ भाजपा और पीएम मोदी बल्कि जेडीएस और एचडी कुमारस्वामी तक के बारे में कई कुतर्क दिए थे. एक तरफ राहुल गांधी के कुतर्क, फिर उन्हीं का एचडी को गले लगाना तमाम बातों से पर्दे उठा देता है. और ये बता देता है कि राजनीति में जब बात मौके की आती है तो दूरियां नजदीकियों में परिवर्तित हो जाती है.

बेहतर है दोबारा चुनाव कराना

निश्चित तौर पर चुनाव एक आसान प्रक्रिया नहीं है. एक चुनाव के लिए जहां एक तरफ सरकार द्वारा काफी खर्च किया जाता है तो वहीं इससे जुड़ी दिक्कतों का सामना आम आदमी को भी करना पड़ता है. मगर जब परिस्थिति ऐसी हो तो ये कहना गलत नहीं है कि ऐसे परिदृश्य में चुनाव दोबारा होने चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि बात जब लोकतंत्र की होती है तो वहां जनता से बड़ा कोई कारक काम नहीं करता है. कहा जा सकता है कि यदि किसी राज्य में चुनावों के बाद एक दूसरे की नीतियों के विरोधी किन्हीं दो दलों का गठबंधन होता है तो ये न सिर्फ लोकतंत्र की हत्या करने जैसा है बल्कि मर्यादा के लिहाज से अलोकतांत्रिक है.

गठबंधन ही वो कारण हैं जिसके चलते कश्मीर में मोदी सरकार ने महबूबा मुफ़्ती की बात मानी

जनता भी करती है गठबंधन का विरोध

इस बात को समझने के लिए हम कश्मीर का उदाहरण ले सकते हैं. जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने मोदी सरकार से मांग की थी कि रमजान के मद्देनजर सुरक्षाबल कोई भी ऑपरेशन लांच न करें. मोदी सरकार ने भी रहमदिली का परिचय देते हुए राज्य की मुख्यमंत्री की इस बात को तरजीह दी और बात मान ली. ऐसा क्यों हुआ इसकी अगर वजह पर गौर करें तो मिलता है कि राज्य में पीडीपी का एनडीए से गठबंधन है. आपको बताते चलें कि इस दौरान अगर कोई हमला होता है तो सामान्य नागरिकों की जान बचाने के लिए सुरक्षाबलों को पलटवार का अधिकार रहेगा. इसके साथ ही सेना की सामान्य पेट्रोलिंग जारी रहेगी. सरकार का फैसला सिर्फ जम्मू कश्मीर में ही लागू होगा, यह एलओसी पर लागू नहीं होगा. ज्ञात हो कि महबूबा मुफ़्ती और मोदी सरकार की इस पहल की जहां एक तरफ सराहना हुई तो वहीं एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था जिसने इस कृत्य की आलोचना की.

कर्नाटक में जो चल रहा है वो लोकतंत्र के साथ एक भद्दा मजाक है

नतीजे आने के बाद जिस तरह का सियासी घमासान कर्नाटक में देखने को मिल रहा है उसके बाद ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं है कि, वहां भाजपा, कांग्रेस और जेडीएस द्वारा और कुछ नहीं बस लोकतंत्र के साथ एक भद्दा मजाक किया जा रहा है जिसके दूरगामी परिणाम बेहद घातक होने वाले हैं.

माना जा रहा है कर्नाटक चुनाव ने विद्रोह की आग को हवा देने का काम किया है

कर्नाटक की देखा देखी गोवा, मणिपुर मेघालय में भी शुरू हो गया है विद्रोह

कर्नाटक में भाजपा सरकार बनाना चाहती है. विपक्ष उसके विरोध में है और राजनीति बदस्तूर जारी है. अभी कर्नाटक का ये सियासी ड्रामा खत्म भी नहीं हुआ था कि गोवा, मणिपुर और मेघालय में कांग्रेस बागी तेवर में आ गयी है और मांग कर रही है कि यदि नियमों को कर्नाटक में नकारा जा रहा है तो उसी तर्ज पर गोवा, मणिपुर और मेघालय में कांग्रेस को मौका दिया जाए.

दोबारा चुनाव ही है पारदर्शिता का एक मात्र माध्यम

देश में जैसे हालात हैं ये कहना गलत नहीं है कि यहां मुद्दों की अपेक्षा मतलब की राजनीति अधिक होती है. अब जब ऐसा हो ही रहा है और फायदे के लिए गठबंधन को एक बड़े हथियार के तौर पर पेश किया जा रहा है तो ऐसे हालात में उन जगहों पर दोबारा चुनाव हो ही जाने चाहिए जहां स्वार्थ सिद्धि के लिए अलग अलग दल साथ आए हैं और उन्होंने सरकारें बनाई हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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