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संस्कृति

इस गांव में बच्चों से लेकर बूढ़ों तक...सभी हैं 'ब्रिज' के धुरंधर!

    • शुभम गुप्ता
    • Updated: 27 अगस्त, 2016 01:21 PM
  • 27 अगस्त, 2016 01:21 PM
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वैसे तो आम तौर पर कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को ताश खेलने से रोकता है. मगर इस गांव में ऐसा नहीं है. यहां मां-बाप खुद अपने बच्चों को ताश खेलने के लिये कहते हैं.

'ब्रिज' एक ऐसा ताश के पत्तों का खेल जिसे आम तौर पर अमीर लोग ही खेल पाते हैं. मगर मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के एक छोटे से गांव रायबिड़पुरा में 'ब्रिज' के उस्ताद बसते हैं. इस गांव की प्रतिभा को देख बिल गेट्स भी इसे 1000 डॉलर दे चुके हैं.

आबादी, महज़ 5000....मगर 500 से ज्यादा उस्ताद. जी हां...मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में रायबिड़पुरा नाम के गांव में ब्रिज खेलने वालों के नाम का डंका बजता है. वैस तो ब्रिज कोई आसान खेल नही है. इसे खेलने के लिये शतरंज से भी ज्यादा दिमाग की ज़रुरत होती है. मगर इस छोटे से गांव में किसानों से लेकर छोटी-छोटी लड़कियां तक ब्रिज खेलने में महारत हासिल कर चुकी हैं.

 इस गांव में ताश बुराई नहीं संस्कृति है...

अब आपके मन में सवाल उठता होगा कि ब्रिज जैसा ताश के पत्तों का खेल इस छोटे से गांव में कैसे आ गया? तो आपको बता दें कि इसे 1962 में इस गांव के अस्पताल में काम करने आए डॉ. मोहम्मद खान लेकर आए थे. उन्होंने ही यहां के लोगों को इस खेल को खेलना सिखाया. अब इस गांव में ब्रिज का असर इतना है कि गांव वालों ने 'ब्रिज क्लब' ही खोल दिया है.

गांव वालो का कहना है, 'हम सभी इस खेल को खेलते हैं और हम देश के कई राज्यों में इस खेल को खेल चुके हैं. साथ ही कई पुरस्कार भी जीत चुके हैं.'

यह भी पढ़ें- एक गांव की महिलाओं ने लंबे बालों से बुन डाला एक रिकॉर्ड!

इस गांव में ब्रिज खेलने वालों में शिक्षक भी शामिल हैं. और उनका तो मानना है कि...

'ब्रिज' एक ऐसा ताश के पत्तों का खेल जिसे आम तौर पर अमीर लोग ही खेल पाते हैं. मगर मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के एक छोटे से गांव रायबिड़पुरा में 'ब्रिज' के उस्ताद बसते हैं. इस गांव की प्रतिभा को देख बिल गेट्स भी इसे 1000 डॉलर दे चुके हैं.

आबादी, महज़ 5000....मगर 500 से ज्यादा उस्ताद. जी हां...मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में रायबिड़पुरा नाम के गांव में ब्रिज खेलने वालों के नाम का डंका बजता है. वैस तो ब्रिज कोई आसान खेल नही है. इसे खेलने के लिये शतरंज से भी ज्यादा दिमाग की ज़रुरत होती है. मगर इस छोटे से गांव में किसानों से लेकर छोटी-छोटी लड़कियां तक ब्रिज खेलने में महारत हासिल कर चुकी हैं.

 इस गांव में ताश बुराई नहीं संस्कृति है...

अब आपके मन में सवाल उठता होगा कि ब्रिज जैसा ताश के पत्तों का खेल इस छोटे से गांव में कैसे आ गया? तो आपको बता दें कि इसे 1962 में इस गांव के अस्पताल में काम करने आए डॉ. मोहम्मद खान लेकर आए थे. उन्होंने ही यहां के लोगों को इस खेल को खेलना सिखाया. अब इस गांव में ब्रिज का असर इतना है कि गांव वालों ने 'ब्रिज क्लब' ही खोल दिया है.

गांव वालो का कहना है, 'हम सभी इस खेल को खेलते हैं और हम देश के कई राज्यों में इस खेल को खेल चुके हैं. साथ ही कई पुरस्कार भी जीत चुके हैं.'

यह भी पढ़ें- एक गांव की महिलाओं ने लंबे बालों से बुन डाला एक रिकॉर्ड!

इस गांव में ब्रिज खेलने वालों में शिक्षक भी शामिल हैं. और उनका तो मानना है कि ब्रिज खेलने के लिये शतरंज से भी ज्यादा दिमाग की आवश्यकता होती है. वे तो इसे गणित से भी ज्यादा अच्छा मानते हैं. शिक्षकों के हिसाब से तो शासन को ब्रिज को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए. कुछ शिक्षक तो स्कूल में अपने बच्चों को भी ब्रिज सिखाते हैं. जिससे कि उनका दिमाम और तेज़ी से काम कर सके.

 शतरंज से भी ज्यादा दिमाग की जरूरत होती है इस खेल में....

वैसे तो आम तौर पर कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को ताश खेलने से रोकता है. मगर इस गांव में ऐसा नहीं है. यहां मां-बाप खुद अपने बच्चों को ताश खेलने के लिये कहते हैं. यहां तक कि 14-15 साल की लड़कियां भी निकल पड़ती हैं ब्रिज खेलने. ब्रिज यहां केवल शौक ही नहीं बल्कि इन्होंने इस खेल में इतनी महारत हासिल कर ली है कि इन लड़कियों का चयन वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिये हो गया. इन्हें इसके लिए इस्तांबुल जाना था.

मगर अफसोस सही समय पर पासपोर्ट न बन पाने के कारण ये बच्चे उस वर्ल्ड चैंपियनशिप का हिस्सा नहीं बन पाए. इस गांव की पहचान ही अब ब्रिज गांव से होने लगी है. भले ही हमारी सरकार ने इस गांव के लोगों की मदद नहीं की हो. मगर अमेरिका से माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के मालिक बिल गेट्स इस गांव को 1000 डॉलर देकर मदद कर चुके हैं.

यहां पर ऐसे कई लोग हैं जो अपने बच्चों का करियर ही ब्रिज में बनवाना चाहते हैं.

यह भी पढ़ें- इंटरनेट कनेक्शन नहीं, लेकिन देखिए कितना कनेक्टेड है ये गांव

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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