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हां, शशि कपूर के मूल्‍यांकन में कमी रह गई

    • मंजीत ठाकुर
    • Updated: 18 मार्च, 2019 11:19 AM
  • 05 दिसम्बर, 2017 09:51 PM
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शशि का व्यक्तित्व कई मायनों में खास था और उन्होंने ऐसा बहुत कुछ किया जिसे भुला पाना सिनेमा और समाज दोनों के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. शशि हमेशा रिस्क लेने की हिम्मत के लिए याद किये जाएंगे.

कभी-कभी कुछ ज्यादा खूबसूरत होना भी अड़चन बन जाता है. शशि कपूर अगर थोड़े कम खूबसूरत, थोड़े कम आकर्षक होते तो हिंदी सिनेमा की दिग्गज शख्सियतों में कब के शुमार हो गए होते. फिल्मकार उनकी अभिनय क्षमता से अधिक उनके 'लुक' को भुनाने में मुब्तिला रहे और शशि को हमेशा बतौर रोमांटिक नायक पेश किया गया. अब जब वो नहीं हैं, तो शायद फिल्म आलोचक और इतिहासकार न सिर्फ उनकी सदाबहार अदाकारी बल्कि जोखिम मोल लेने वाले एक फिल्म निर्माता के तौर पर और थियेटर में उनके योगदान का नए सिरे से मूल्यांकन करें.

महज पंद्रह साल की उम्र में शशि कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर में 75 रु के वेतन पर काम करने लगे. शशि को राज कपूर ने सब कुछ सिखाया. अभिनय से लेकर मंच पर रोशनी की व्यवस्था, साज-सज्जा और पूरे प्रबंधन तक उन्होंने सब सीखा. राज कपूर ने उन्हें स्टुडियो के सबसे ऊपर लाइटिंग सीखने के लिए भेज दिया था.

ये बॉलीवुड का दुर्भाग्य रहा कि शशि की अदाकारी के बजाय उनकी खूबसूरती पर हमेशा बल दिया गया

शशि को बहुत कुछ करना पड़ा. उनकी राह आसान नहीं थी. उन्हें राज और शम्मी कपूर द्वारा छोड़ी गई भूमिकाएं निभानी पड़ीं. उन्हें अक्सर पृथ्वी थिएटर की नाटक मंडली के बाहरी दौरों में बतौर एक्स्ट्रा साथ में जाना पड़ा. जब वे सहायक स्टेज मैनजर बना दिए गए तो उन्हें कई बार ट्रक के ऊपर बैठकर मंच की साज-सज्जा और कपड़ों की रखवाली करनी पड़ती थी. आग (1948) और आवारा (1951) में राज कपूर के बचपन की भूमिकाएं निभानी पड़ी.

डबल शिफ्ट उनके शुरुआती करियर का हिस्सा था. वे पृथ्वी थिएटर और शेक्सपियराना में बारी-बारी जाते. शेक्सपियराना भी घुमंतू थिएटर कंपनी थी, जिसे जेनिफर केंडल के पिता ज्याफ्री केंडल चलाते थे. जेनिफर बाद में उनकी पत्नी बनीं. 18 वर्ष की उम्र में शशि कपूर की मुलाकात जेनिफर से हुई...

कभी-कभी कुछ ज्यादा खूबसूरत होना भी अड़चन बन जाता है. शशि कपूर अगर थोड़े कम खूबसूरत, थोड़े कम आकर्षक होते तो हिंदी सिनेमा की दिग्गज शख्सियतों में कब के शुमार हो गए होते. फिल्मकार उनकी अभिनय क्षमता से अधिक उनके 'लुक' को भुनाने में मुब्तिला रहे और शशि को हमेशा बतौर रोमांटिक नायक पेश किया गया. अब जब वो नहीं हैं, तो शायद फिल्म आलोचक और इतिहासकार न सिर्फ उनकी सदाबहार अदाकारी बल्कि जोखिम मोल लेने वाले एक फिल्म निर्माता के तौर पर और थियेटर में उनके योगदान का नए सिरे से मूल्यांकन करें.

महज पंद्रह साल की उम्र में शशि कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर में 75 रु के वेतन पर काम करने लगे. शशि को राज कपूर ने सब कुछ सिखाया. अभिनय से लेकर मंच पर रोशनी की व्यवस्था, साज-सज्जा और पूरे प्रबंधन तक उन्होंने सब सीखा. राज कपूर ने उन्हें स्टुडियो के सबसे ऊपर लाइटिंग सीखने के लिए भेज दिया था.

ये बॉलीवुड का दुर्भाग्य रहा कि शशि की अदाकारी के बजाय उनकी खूबसूरती पर हमेशा बल दिया गया

शशि को बहुत कुछ करना पड़ा. उनकी राह आसान नहीं थी. उन्हें राज और शम्मी कपूर द्वारा छोड़ी गई भूमिकाएं निभानी पड़ीं. उन्हें अक्सर पृथ्वी थिएटर की नाटक मंडली के बाहरी दौरों में बतौर एक्स्ट्रा साथ में जाना पड़ा. जब वे सहायक स्टेज मैनजर बना दिए गए तो उन्हें कई बार ट्रक के ऊपर बैठकर मंच की साज-सज्जा और कपड़ों की रखवाली करनी पड़ती थी. आग (1948) और आवारा (1951) में राज कपूर के बचपन की भूमिकाएं निभानी पड़ी.

डबल शिफ्ट उनके शुरुआती करियर का हिस्सा था. वे पृथ्वी थिएटर और शेक्सपियराना में बारी-बारी जाते. शेक्सपियराना भी घुमंतू थिएटर कंपनी थी, जिसे जेनिफर केंडल के पिता ज्याफ्री केंडल चलाते थे. जेनिफर बाद में उनकी पत्नी बनीं. 18 वर्ष की उम्र में शशि कपूर की मुलाकात जेनिफर से हुई थी. वे उस वक्त समकालीन हिंदी थिएटर के साथ शेक्सपियर के नाटकों में भी सक्रिय थे.

वे 1963 तक शेक्सपियराना के साथ रहे. शायद वहीं उनके अभिनय में निखार आया. कुल जमा इक्कीस साल की उम्र में शशि शादी करके पिता भी बन गए थे. और अब उन्हें परिवार के लिए कमाना भी था. बेमन से वे हिंदी फिल्मों में काम करने लगे. हालांकि 1961 में चारदीवारी से शुरू होकर यश चोपड़ा निर्देशित धर्मपुत्र तक, उनकी शुरुआती कुछ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रहीं. आखिर पांच साल बाद फ्लॉप फिल्मों का यह दौर टूटा और नायिका नंदा के साथ उनकी फिल्म जब जब फूल खिले (1965) कामयाब रही. यह जोड़ी सात फिल्मों तक बनी रही.

बॉलीवुड में शशि हमेशा रिस्क लेने की क्षमता के लिए जाने गए हैं

1960 के दशक के आखिरी वर्षों में उनकी कई रोमांटिक कॉमेडी फिल्में हिट हुईं. इनमें प्यार का मौसम (1968), आ गले लग जा और हसीना मान जाएगी (1969) थीं. 1970 के दशक में उनका जलवा रहा और अमिताभ बच्चन के साथ उनकी दीवार (1975), कभी-कभी (1976), त्रिशूल (1978) और सुहाग (1979) जैसी सफल फिल्में आईं. यह जोड़ी 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में भी सिलसिला (1981) और नमक हलाल (1982) जैसी सफल फिल्में देती रही. इंडस्ट्री में तो यह मजाक आम हो गया था कि शशि कपूर अमिताभ बच्चन की पसंदीदा हीरोइन हैं.

अगर शशि कपूर ने दीवार में उम्दा किरदार नहीं निभाया होता तो वह हिंदी सिनेमा में 'मील का पत्थर' नहीं बनती. अपनी भूमिका को थोड़ा अंडरप्ले करके उन्होंने परदे पर बिगड़ैल एंटी-हीरो भाई अमिताभ की अतिनाटकीय भूमिका को संतुलित बना दिया. उनकी अभिनय क्षमता उन फिल्मों में खिलकर उभरती है जिनमें वे इंसानी जज्बातों की पेचीदगियों को उभारते हैं. खासकर उन दो फिल्मों में जिनके निर्माता वे खुद और निर्देशक श्याम बेनेगल थे. जुनून में वे पागलपन की हद तक प्रेम का इजहार करने वाले प्रेमी बने हैं तो महाभारत में आधुनिक दौर के कर्ण का किरदार निभाया है. उन्होंने उसकी पीड़ा, हताशा और चतुराई को क्या खूब परदे पर उकेरा है.

शशि कपूर शायद भारतीय सिनेमा के पहले असली अंतरराष्ट्रीय स्टार थे. शशि ने मर्चेंट-आइवरी की छह फिल्मों में काम किया. शुरुआत 1963 में हाउसहोल्डर से हुई. 1970 में बॉम्बे टॉकी और 1982 में हीट ऐंड डस्ट. हीट ऐंड डस्ट ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई. उसमें वे रूमानी पर चालाक नवाब की भूमिका में हैं.

ये तस्वीर ये बताने के लिए काफी है कि शशि पर्दे पर ही रोमांटिक नहीं थे.

शेक्सपियर-वाला व्यावसायिक तौर पर नाकाम रही पर अंतरराष्ट्रीय निर्देशकों की नजर उन पर पड़ी. प्रेटी पॉली (1967) में वे हेले मिल्स के साथ रोमांटिक किरदार में उतरे, जिसके निर्देशक ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त गाइ ग्रीन थे. अमेरिकी निर्देशक कोनार्ड रुक्स ने उन्हें 1972 में सिद्धार्थ में लिया. अमेरिकी निर्देशक जेक्स आइवरी ने मुझसे कहा था कि शशि कपूर भारत में कैरी ग्रांट जैसे अभिनेता हो सकते थे, बशर्ते उन्हें अच्छे निर्देशक मिलते. उनका यह भी मानना था कि वे इंसान के स्याह पक्ष को उभारने में माहिर थे. बॉम्बे टॉकीज पर चर्चा में उन्होंने कहा, "सबका स्याह पक्ष होता है और शशि इसे उभारने में सक्षम हैं."

अंतरराष्ट्रीय निर्देशकों ने उनके स्याह पक्ष को उभारा, चाहे वह द डिसीवर (1988) में चालाक भद्रपुरुष हो जो ठगी करता है या हनीफ कुरैशी की पटकथा पर आधारित स्टीफन फरीयर्स के सैमी ऐंड रोजी गेट लेड (1987) में मतलबी पाकिस्तानी बिजनेसमैन. उनकी आखिरी कुछ फिल्में जिनमें अमिताभ के साथ उनके निर्देशन में बनी अजूबा भी थी, नाकाम रहीं. लेकिन न्यू देल्ही टाइम्स हो या जुनून, शशि एक फिल्मकार के तौर पर सार्थक फिल्मों को सहारा देने वाली शख्सियत बने रहे थे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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