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गोविंदा का पैर छूने पर पाकिस्तान में बवाल, बड़ी बात यह है कि पाक में पैर छूने का महत्व अब भी है!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 24 नवम्बर, 2022 08:07 PM
  • 24 नवम्बर, 2022 08:07 PM
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जबरदस्ती अनुवांशिकी बदलने के बुरे असर दुनिया में कितने खतरनाक रहे हैं- उस पर बात नहीं होती. भारत में तो बिल्कुल नहीं होती. एक पाकिस्तानी एक्टर द्वारा गोविंदा का पैर छूने की घटना के हवाले से सावरकर पर भी एक संक्षिप्त टिप्पणी से चीजों को समझते हैं.

पाकिस्तान चाहे जितना खारिज करे, लगभग शरीया पर चलने वाला इस्लामिक देश होने के बावजूद ना तो वह अरब में है और ना ही एशिया में. यूरोप का तो हो ही नहीं सकता. भारत को वह भूल नहीं पाया है. पाकिस्तान दुनिया में एक अलग ही केजीएफ है. बावजूद कि पाकिस्तान से बेहतर भारत के लिए दुनिया में कोई और केस स्टडी हो ही नहीं सकती. उसे बार-बार देखना चाहिए. और याद करने का कोई भी मौका नहीं गंवाना चाहिए.

हुआ ये कि अरब में कोई इवेंट था सिनेमा से जुड़ा. अब वहां का कोई सिनेमाई इवेंट बिना भारत के पूरा नहीं होता. सिनेमा एक तरह से इस्लाम के लिए कुफ्र है. और उससे भी ज्यादा कुफ्र काम है उसमें काम करना. उससे भी ज्यादा कुफ्र है- बिना बुरके के सिनेमा में दिखना. अंग दिखाना. स्वाभाविक है कि यह कुफ्र अरब में कोई क्यों करेगा. लेकिन सिनेमा ऐसा कुफ्र भी है जिसके बिना काम भी तो नहीं चलता. यहां 72 हूरों की खूबसूरती दिख जाती है. नारी या पुरुष देह कम से कम पुरुष या महिलाएं टीवी सिनेमा के जरिए बुरके में भी देख ही सकती हैं. शाहरुख-सलमान की मस्तमौला देह देखना निजी कुफ्र है बस. मौलाना साब की नजर वहां नहीं पड़ती तो फतवे का भी डर नहीं है. तो बात ऐसी है कि सिनेमा तमाम अरब देशों या मुस्लिम देशों में खूब लोकप्रिय है. पैसा इफरात है 72 हूरों का हुश्न देखने के लिए.

सिनेमा के इसी इवेंट में भारत के साथ पाकिस्तान के फ़िल्मी कलाकार शामिल भी हुए थे. पाकिस्तान भी मुस्लिम देश है और सिनेमा उसके लिए भी कुफ्र है, लेकिन अभी अरब को लग रहा कि वह ईमान का पक्का नहीं है. और अपनी बेटियों को देने के लिए तैयार नहीं हुआ है. अपने बराबर का नहीं मानता. पाकिस्तान त्रिशंकु की तरह स्वर्ग के रास्ते के लिए निकला है, मगर अभी बीच में ही लटका हुआ है. ना इधर, ना उधर. जो इवेंट बताया जा रहा है उसमें गोविंदा भी थे. पाकिस्तान के कोई फहाद भी थे. उन्होंने लपककर गोविंदा का पैर छुआ. रणवीर भी वहीं बैठे थे. शायद हमउम्र होने की वजह से उन्हें गले लगाया. फहाद ने गोविंदा की खूब तारीफ़ भी की.

पाकिस्तान में भारी बवाल हो गया....

पाकिस्तान चाहे जितना खारिज करे, लगभग शरीया पर चलने वाला इस्लामिक देश होने के बावजूद ना तो वह अरब में है और ना ही एशिया में. यूरोप का तो हो ही नहीं सकता. भारत को वह भूल नहीं पाया है. पाकिस्तान दुनिया में एक अलग ही केजीएफ है. बावजूद कि पाकिस्तान से बेहतर भारत के लिए दुनिया में कोई और केस स्टडी हो ही नहीं सकती. उसे बार-बार देखना चाहिए. और याद करने का कोई भी मौका नहीं गंवाना चाहिए.

हुआ ये कि अरब में कोई इवेंट था सिनेमा से जुड़ा. अब वहां का कोई सिनेमाई इवेंट बिना भारत के पूरा नहीं होता. सिनेमा एक तरह से इस्लाम के लिए कुफ्र है. और उससे भी ज्यादा कुफ्र काम है उसमें काम करना. उससे भी ज्यादा कुफ्र है- बिना बुरके के सिनेमा में दिखना. अंग दिखाना. स्वाभाविक है कि यह कुफ्र अरब में कोई क्यों करेगा. लेकिन सिनेमा ऐसा कुफ्र भी है जिसके बिना काम भी तो नहीं चलता. यहां 72 हूरों की खूबसूरती दिख जाती है. नारी या पुरुष देह कम से कम पुरुष या महिलाएं टीवी सिनेमा के जरिए बुरके में भी देख ही सकती हैं. शाहरुख-सलमान की मस्तमौला देह देखना निजी कुफ्र है बस. मौलाना साब की नजर वहां नहीं पड़ती तो फतवे का भी डर नहीं है. तो बात ऐसी है कि सिनेमा तमाम अरब देशों या मुस्लिम देशों में खूब लोकप्रिय है. पैसा इफरात है 72 हूरों का हुश्न देखने के लिए.

सिनेमा के इसी इवेंट में भारत के साथ पाकिस्तान के फ़िल्मी कलाकार शामिल भी हुए थे. पाकिस्तान भी मुस्लिम देश है और सिनेमा उसके लिए भी कुफ्र है, लेकिन अभी अरब को लग रहा कि वह ईमान का पक्का नहीं है. और अपनी बेटियों को देने के लिए तैयार नहीं हुआ है. अपने बराबर का नहीं मानता. पाकिस्तान त्रिशंकु की तरह स्वर्ग के रास्ते के लिए निकला है, मगर अभी बीच में ही लटका हुआ है. ना इधर, ना उधर. जो इवेंट बताया जा रहा है उसमें गोविंदा भी थे. पाकिस्तान के कोई फहाद भी थे. उन्होंने लपककर गोविंदा का पैर छुआ. रणवीर भी वहीं बैठे थे. शायद हमउम्र होने की वजह से उन्हें गले लगाया. फहाद ने गोविंदा की खूब तारीफ़ भी की.

पाकिस्तान में भारी बवाल हो गया. होना ही था. पैर छूना भी तो असल में कुफ्र ही है कि इस्लाम के हिसाब से. फहाद ने गैरइस्लामिक काम क्यों किया? बावजूद कि पैर छूना, नमस्कार करना- गैर इस्लामिक कैसे हो सकता है. कम से कम पाकिस्तान के संदर्भ में. किसी के आगे श्रद्धा सम्मान से झुकाना तो भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया के तमाम इलाकों में अपने बड़े-बुजुर्गों के प्रति सम्मान दिखाना भर है. गोविंदा ने थोड़े कहा कि हमारा पैर छू लो. सलाम ही कहते तो गोविंदा बुरा नहीं मानते. उन्होंने तो बस अरबी अभिवादन की जगह भारतीय उपमहाद्वीप के प्रचलन को स्वाभाविक तरीके से स्वीकार किया. अब ये बताइए कि आप अपने माता-पिता, बड़े भाई बंधु, गुरुजनों को सलाम थोड़े कहेंगे. कह भी देंगे तो वो बुरा थोड़े मानेंगे. हंस देंगे कि ये क्या है. ऐसे ही किसी मुस्लिम स्कॉलर का भी सम्मान करते हैं.

गोविंदा का पैर छूते फहाद और राजा बाबू का एक सीन.

गोविंदा के मामले से पता चलता है कि बहुत सारे "कुफ्र" अभी भी पाकिस्तान की स्मृति में जिंदा हैं. अब आगे दूसरा किस्सा जिसके रास्ते यहीं आकर जुड़ जाते हैं. मैं पिछले तीन साल से इन चीजों पर गौर कर रहा हूं.

जब-जब भारत में कोई सामाजिक बहस चरम पर पहुंच कर एक निर्णायक सामाजिक परिवर्तन का रूप धरते नजर आने लगती है- दुनियाभर के शांतिदूतों के पेट में दर्द होने लगता है. पाकिस्तान को भी दर्द होने लगता है. फिर तो क्या उनका प्रधानमंत्री, क्रिकेटर, मुफ्ती मौलाना सब बाप-बाप चिल्लाते हुए बताने लगते हैं कि देखों, चिचा हमारे यहां कितना सहिष्णु माहौल है. सोशल मीडिया, यूट्यूब आदि प्लेटफॉर्म पर उसके तमाम मौलवी मंदिर तक जाने का सबसे खौफनाक वाला "कुफ्र" करते हैं. लाइव वीडियो बनाते हैं और दिखाते हैं कि देखो-देखो, पाकिस्तान में सहिष्णुता के साथ ऐसे रहा जाता है. तो आप भी रहिए. आप रह रहे हैं क्या सहिष्णुता के साथ उनकी तरह.

पाकिस्तान के कोई मौलवी साब एक डरे, सहमे, घबराए, सकुचाए युवा पुजारी से बड़े प्यार से पूछते हैं- तुम्हें क्या कहा जाता है?

पीछे से मौलवी के लश्कर में शामिल कोई एक बताता है- यह हिंदुओं के "उलेमा" हैं.

उन्हें उस शब्द के बारे में नहीं पता जो पूजा पाठ कराने वालों के लिए इस्तेमाल होता है. असल में उन्हें क्या कहा जाता है. ऐसा इसलिए कि वहां की राजनीति, समाज, शिक्षा में एक संस्कृति को पूरी तरह से मिटाया जा चुका है. कोई संवैधानिक, सांस्थानिक मदद नहीं. जिन चीजों को आप मदद के रूप में प्रचारित होकर खुशी से लहालोट हो जाते हैं- असल में वह ढकोसला भर है उनका. वहां मंदिर, मंदिरों में नहीं, अब लोगों के घरों के सबसे कोने में सुरक्षित हैं. हो भी क्यों ना. जहां शेरे- पंजाब रणजीत सिंह और शहीद-ए-आजम भगत सिंह के स्टेच्यू से भी दिक्कत है भला वहां, किसी देवता की मूर्ति के "कुफ्र" को जगह कैसे दी जा सकती है. छोटी-छोटी सड़ी हुई कालोनियों में लोग छिपकर अपने मंदिर को बचाते हैं. देवताओं की फोटो का प्रिंट निकाल लेते होंगे अपने कम्प्यूटर से और स्मृतियों के सहारे संस्कृति और परंपरा को जीवित रखा है अबतक. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक.

पाकिस्तान में हिंदू संस्कृति और उसकी परंपराओं के बारे में लोग नहीं जानते हैं. खानपान और पहनावा थोपा जा चुका है. वहां गैरमुस्लिम संस्कृति सिर्फ और सिर्फ स्मृति के सहारे सर्वाइव करने को विवश है. लेकिन कितने दिन तक? नीचे एक मजेदार वीडियो है मुफ्ती तारीक मसूद का. वह पाकिस्तान के सबसे बड़े काली माता मंदिर का दौरा कर रहे हैं. उनकी जिज्ञासाओं और सवालों से पता चल जाएगा कि मैंने जो कहा है वह हवा हवाई नहीं है. और यह कोई एक सैम्पल भर नहीं है. ऐसे हजारों वीडियो मिल जाएंगे यूट्यूब पर. गोरी या गानवी जैसे खूंखार मानवता विरोधी पिशाचों के नाम पर पाकिस्तान मिसाइल क्यों बनाता है- जबकि इन्हीं के हाथों आज का पाकिस्तान ही पैरों तले सबसे बुरी तरह रौंदा गया- आप समझ सकते हैं.

सावरकर के बलात्कार विरोधी तर्क पर विवाद करने से पहले पाकिस्तान को देख लीजिए

वीर सावरकर के बलात्कार संबंधी तर्क पर विवाद करने वालों को वॉर क्राइम में रेप क्यों किया जाता था- उसके हासिल का अर्थ पाकिस्तान के हवाले से अच्छी तरह समझ लेना चाहिए. या फिर किसी योग्य मानव विज्ञानी की सलाह लेनी चाहिए. खूंखार सेनाओं की जिद आखिर रेप के जरिए अनुवांशिकी बदलने पर क्यों थी, उन्हें समझ आ जाएगा. सावरकर विरोधियों को ध्यान देना चाहिए.

सावरकर ने महान शिवाजी की आलोचना की कि उन्होंने जीतों के बाद महिलाओं को सम्मान सहित दुश्मन को वापस किया, रेप नहीं करवाए. उन्होंने भारत के कुछ सैन्य अभियानों की भी आलोचना की है कि रेप क्यों नहीं करवाया और उसके अंजाम क्या रहे. खैर, मैं यहां सावरकर की बात से सहमत नहीं हूं. इसकी दो वजहें हैं. एक तो यह हर लिहाज से महिलाओं के खिलाफ क्रूरता है. और दूसरा अब औरंगजेब का समय नहीं है. बावजूद कि औरंगजेब का समय कभी भी आ सकता है. और वह ख़त्म ही कहां हुआ था? रेप और अनुवांशिकी परिवर्तन के फायदे भारत की संस्कृति और उसका विमर्श नहीं थे कभी. मुझे नहीं मालूम वो रहा होगा कभी. लेकिन वो संस्कति भारतीय विमर्श में लाखों साल पहले पीछे छूट चुकी है. भारत ने रेप के जरिए चीजों को अपने पक्ष में नहीं किया. सावरकर तो भारत से कह रहे हैं कि वह इतिहास से सबक लेते हुए रेप के टूल को स्वीकार करे. सावरकर के इस विचार को समाज ने खारिज किया है.

और सावरकर के समूचे विचार को किसी भी तरह गलत साबित करने का मजेदार विरोधाभास यह है कि औरंगजेब से संघर्ष करने वाले शिवाजी तो महान हैं ही जिससे वह संघर्ष कर रहे हैं, वही बलात्कारी औरंगजेब भी महान है. ऐसे चमत्कार दुनिया में सिर्फ भारत और पाकिस्तान में ही दिखेंगे. पाकिस्तान का तो फिर भी समझ में आ जाता है, लेकिन भारत का यह रहस्य अभी भी अबूझ है. कॉमरेड बताइए, ऐसा क्यों?

यूट्यूब पर हिंगलाज माता के मंदिर से जुड़े कुछ वीडियोज पर सर्च करिए. दुर्गा सप्तशती, चालीसा में सुना ही होगा- हिंगलाज में तुम्हीं भवानी... यह वही मंदिर है. सती का एक अंग यहां भी गिरा था. यहां का पुजारी दावा करता है कि मंदिर सृष्टि के आसपास का और करीब 32 लाख साल पुराना. यह प्रलय तक रहेगा. शायद ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के बाद की परिघटना में या उसके बाद का मंदिर. अब यह मत कहिएगा कि वेद तो कुछ साल पहले लिखे गए. हो सकता है कि वेद पांच दस हजार साल पहले लिखे गए हों. दस इसलिए कहा जा रहा कि भारतीय गणना में मनु करीब करीब 10 हजार साल पहले थे. बावजूद वेद वाचिक परंपरा में थे और इसी वजह से यूरोप ने इसे चरवाहों का गीत भी कहा. जब उसके अर्थ का "ज्ञान" हुआ तो लोगों ने उसे लिखा. जैसे गायत्री मंत्र जिसे विश्वामित्र का लिखा कहा जाता है. जबकि वह विश्वामित्र से पहले से था श्रुति और स्मृति के जरिए. विश्वामित्र को उस मन्त्र का ज्ञान भर हुआ था. उन्होंने लिखा नहीं था. पृथ्वी कैसे बनी नासदीय सूक्त और नासा लगभग एक निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं. विज्ञान और वेद कई निष्कर्षों पर एकमत दिखने लगे हैं.

खैर, हिंगलाज के कुछ टूर वीडियो सर्च करिए. उसमें वहां के पुजारी के साथ इंटरव्यू सुनिए.

लोग सवाल करते हैं- यह कौन (हिंगलाज) हैं?

पुजारी बताता है- यह हमारी देवी हैं. (वह सृष्टि की उत्पत्ति के साथ उनका इतिहास बताता है. शब्दों के मायने होते हैं तो लोग देवी का मतलब समझ नहीं पाते.)

पुजारी उन्हें बताता है- जैसे नबी, फ़रिश्ते या पैगम्बर आदि होते हैं दूसरे धर्मों में हमारे लिए वैसे ही हैं ये. बावजूद पाकिस्तान में जो लड़के देवी का मतलब नहीं समझ पाते वह उसे नानी मां का मंदिर नाम से जान लेते हैं. उनकी स्मृति जान लेती है. यह मंदिर पाकिस्तान के जिस इलाके में है असल में वह भी दुनिया का सबसे प्राचीनतम आदिवासियों का इलाका है. वहां के ट्राइब जो अब मुस्लिम हैं बावजूद नानी मां के मंदिर को आस्था के साथ मानते हैं. सालभर में एक तगड़ा मेला लगता है. पाकिस्तान के तमाम इलाकों से हिंदू कोशिश करते हैं कि नानी मां की यात्रा में जरूर शामिल हों. स्थानीय मुस्लिम तो सर्वे सर्वा है उस यात्रा का.

हिंगलाज में क्या व्यवस्थाएं हैं- उसे छोड़ दीजिए. जब संस्कृति ही नहीं बच रही तो व्यवस्थाओं पर क्यों ही रोना. वैसे इसी इलाके में कुछ सुप्त ज्वालामुखी भी हैं जिन्हें आज भी वहां के लोग चंद्रगुप्त और अशोक से जोड़कर देखते हैं. बावजूद कि पाकिस्तान अपने शरीया को बचाने के लिए अपने इतिहास में यह बात भी पढ़ाने से परहेज करता है. एक वीडियो का लिंक नीचे है. ऐसे ढेरों वीडियो आप यूट्यूब पर देख सकते हैं. हिंगलाज भारतीय उपमहाद्वीप के तमाम जनजातियों की कुलदेवी रही हैं. इनमें सबसे ख़ास महिष्मति पर राज करने वाले यादव कुल का हैहय राजवंश है. और मजेदार यह भी है कि हिंगलाज में आज का पुजारी गुसाईं हैं. जो भारत की अतिपिछड़ा जाति से है. शिव और शक्ति की पूजा तमाम मंदिरों में इसी जाति के लोग करते हैं और उन्हें लगभग अछूत माना जाता है. लोग इनका अन्न तक ग्रहण नहीं करते. माना जाता है कि इनका अन्न शिव की संपत्ति है. बावजूद ये पूजनीय हैं.  

अच्छी बात यह है कि "हिंदू राष्ट्र" भारत में यह दिक्कत नहीं है. यहां मुसलमानों उनकी संस्कृति, उनके धार्मिक अधिकारों का जितना सम्मान हो सकता, वह है. यहां गैर मुस्लिम भी पैगम्बरों और उनकी कहानियां, उनकी संस्कृति जानते हैं. बात चाहे गोविंदा-फहाद की हो, हिंगलाज की हो- स्मृतियां तो जिंदा रह जाती हैं. और इन्हीं स्मृतियों को मारने के लिए विध्वंस किया जाता है. शहरों के नाम बदले जाते हैं. भाषा को ख़त्म किया जाता है. खान-पान पहनावे को बदला जाता है. उत्तर प्रदेश के संकिसा और कम्पिल को फर्रुखाबाद कर दिया जाता है. 1714 में कोई फरुखशियर नाम का एक आदमी यह बदलाव कर देता है. और कम्पिल का हजारों साल पुराना इतिहास महाभारत से कटकर 1714 से शुरू हो जाता है. 1714 से एक नई संस्कृति का सूत्रपात हो जाता है. 1714 को सही साबित करने के लिए महाभारत के इतिहास को तमाम तरह से तर्कों से आलोचना और घृणा का पात्र बनाने की कोशिश होती है.

यह इसलिए होता है कि आप दुनिया की सारी प्राचीनता को मिटा देंगे तो खुद ब खुद बचा हुआ प्राचीन हो जाएगा, और इस तरह उसकी श्रेष्ठता का दंभ पूरा हुआ. यह सिर्फ भारत में हुआ. दुनिया की तमाम संस्कृतियों में लोगों ने इसी चीज को नहीं छोड़ा. रूस की धरती पर इस्लाम जरूर पहुंचा, लेकिन वहां फारुख शब्द जगह नहीं बना पाया वह ख्रेश्चोव ही रहा. और उइगर में चीन असल में अपने सी, पी, इंग, पिंग, झींग बचाने के लिए ही तमाम जतन कर रहा है. कुर्द इसी चीज को बचाने के लिए ईरान के हाथों भी पिस रहे हैं और तुर्की के भी. अभी तुर्की ने बिना वजह एयरस्ट्राइक किया.

संस्कृति से किसी को क्या दिक्कत है समझ में नहीं आता. और संस्कृति कोई जबरदस्ती स्वीकार करने वाली चीज तो है ही नहीं.


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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