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बॉलीवुड में उर्दू के लिए नसीरुद्दीन की चिंता और हिंदी पर एमके स्टालिन की आशंका क्यों एक जैसी है?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 29 जनवरी, 2023 12:56 PM
  • 28 जनवरी, 2023 02:28 PM
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भारत में इस वक्त अलगाववाद का भाव लिए तमाम तरह के बयान आ रहे हैं. कुछ पर बात हो रही है कुछ पर नहीं. मगर उन्हें गौर से देखिए- तो सबमें एक तगड़ा कनेक्शन साफ़ नजर आता है. क्यों इसे नसरुद्दीन शाह और एमके स्टालिन के अलग-अलग बयानों से भी समझा जा सकता है, जो असल में एक ही है. लेकिन इस पर कोई बहस नहीं होगी. जैसे देश के शहरों को कर्बला बना देने पर बहस नहीं हुई.

हमेशा से मुगलों को भारत का आर्किटेक्ट बताने वाले नसीरुद्दीन शाह ने एक बार फिर मुगलिया विरासत को लेकर अपनी चिंताएं सार्वजिनक की हैं. इस बार उनकी चिंता मुगलिया उपनिवेश की भाषा उर्दू को लेकर है. जिसका मकसद मजहबी ही नजर नहीं आता है. एक इंटरव्यू में उन्होंने उर्दू को लेकर बॉलीवुड फिल्मों को खूब खरी खोटी सुनाई. ऐतिहासिक चिंता जताते हुए नसीरुद्दीन ने दावा किया कि हिंदी फिल्मों में कुछ भी बेहतर नहीं हुआ है. उन्होंने कहा- "आज हमें हमारी फिल्मों में उर्दू कहां सुनने को मिलती है. पहले सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट पर उर्दू नजर आता था. क्योंकि उर्दू में शायरी और गानों के लिरिक हुआ करते थे. लेकिन अब सब बदल गया है. अब उर्दू के शब्दों का कोई इस्तेमाल नहीं होता. अब बेहूदा अल्फाज होते हैं."

हालांकि "बेहूदा" अल्फाज क्या है- इस बारे में उन्होंने नहीं बताया. हो सकता है कि नसीरुद्दीन शाह के मुताबिक़ वह बेहूदा अल्फाज आजकल हिंदी फिल्मों में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही स्थानीय बोलियों के शब्द हों. उपनिवेश के सिंडिकेट को स्थानीयता से हमेशा शिकायत रही है. वह चाहे कुछ भी हो. नसीरुद्दीन से पूछना चाहिए कि भला उर्दू भारत की भाषा कैसे हो गई जो वे इतना चिंतित हैं? उर्दू समेत इन्हीं तमाम चिंताओं के समाधान के लिए ही तो भारत के विभाजन को वाजिब बताते हुए देश के टुकड़े किए गए थे. यह भारत और बॉलीवुड की चिंता के बजाए पाकिस्तान की चिंता विषय होता तो समझ में आता. नसीरुद्दीन शाह के बयान से ऐसा लग रहा है कि जैसे तमाम चिंताओं की वजह से भारत का विभाजन हो गया, मगर बॉलीवुड विभाजन में एक कॉमन व्यवस्था है. बॉलीवुड की जिमेम्दारी भारत से पाकिस्तान तक सभी भाषा भाषी लोगों के लिए काम करना है. बॉलीवुड काम कर भी रहा है.

नसीरुद्दीन शाह और एमके स्टालिन.

उर्दू पर...

हमेशा से मुगलों को भारत का आर्किटेक्ट बताने वाले नसीरुद्दीन शाह ने एक बार फिर मुगलिया विरासत को लेकर अपनी चिंताएं सार्वजिनक की हैं. इस बार उनकी चिंता मुगलिया उपनिवेश की भाषा उर्दू को लेकर है. जिसका मकसद मजहबी ही नजर नहीं आता है. एक इंटरव्यू में उन्होंने उर्दू को लेकर बॉलीवुड फिल्मों को खूब खरी खोटी सुनाई. ऐतिहासिक चिंता जताते हुए नसीरुद्दीन ने दावा किया कि हिंदी फिल्मों में कुछ भी बेहतर नहीं हुआ है. उन्होंने कहा- "आज हमें हमारी फिल्मों में उर्दू कहां सुनने को मिलती है. पहले सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट पर उर्दू नजर आता था. क्योंकि उर्दू में शायरी और गानों के लिरिक हुआ करते थे. लेकिन अब सब बदल गया है. अब उर्दू के शब्दों का कोई इस्तेमाल नहीं होता. अब बेहूदा अल्फाज होते हैं."

हालांकि "बेहूदा" अल्फाज क्या है- इस बारे में उन्होंने नहीं बताया. हो सकता है कि नसीरुद्दीन शाह के मुताबिक़ वह बेहूदा अल्फाज आजकल हिंदी फिल्मों में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही स्थानीय बोलियों के शब्द हों. उपनिवेश के सिंडिकेट को स्थानीयता से हमेशा शिकायत रही है. वह चाहे कुछ भी हो. नसीरुद्दीन से पूछना चाहिए कि भला उर्दू भारत की भाषा कैसे हो गई जो वे इतना चिंतित हैं? उर्दू समेत इन्हीं तमाम चिंताओं के समाधान के लिए ही तो भारत के विभाजन को वाजिब बताते हुए देश के टुकड़े किए गए थे. यह भारत और बॉलीवुड की चिंता के बजाए पाकिस्तान की चिंता विषय होता तो समझ में आता. नसीरुद्दीन शाह के बयान से ऐसा लग रहा है कि जैसे तमाम चिंताओं की वजह से भारत का विभाजन हो गया, मगर बॉलीवुड विभाजन में एक कॉमन व्यवस्था है. बॉलीवुड की जिमेम्दारी भारत से पाकिस्तान तक सभी भाषा भाषी लोगों के लिए काम करना है. बॉलीवुड काम कर भी रहा है.

नसीरुद्दीन शाह और एमके स्टालिन.

उर्दू पर नसीरुद्दीन शाह के बयान को समझने के लिए पहले अफगानिस्तान और पाकिस्तान को समझिए

वैसे ही जैसे चंडीगढ़ की भूमिका हरियाणा और पंजाब के बीच है. बॉलीवुड और भारत की तमाम संस्थाओं को लेकर नसीरुद्दीन जैसे लोगों की राय तो यही नजर आती है. वर्ना तो वे अरबी संस्कृति को लेकर हमेशा परेशान नहीं रहते. या तो उर्दू जैसी चिंताओं पर पूरे संदर्भ के साथ आते. बावजूद कि भारत में उर्दू की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में दमन और उत्पीड़न की एक ऐसी भयावह दास्तान है जिसका पूरा सच नहीं बताया जाता. उर्दू उम्मा और उसके उपनिवेशवादी उद्देश्य को मूर्त करने का उपक्रम था. अगर ऐसा नहीं होता तो भला अकबर जैसा आततायी बादशाह किसी देश में रातोंरात तलवार के जोर पर फारसी के रूप में एक ऐसी भाषा कैसे थोप सकता था- भूमिपुत्र जिसका अलीफ बे तक नहीं जानते थे. अकबर की कोशिशों में पहले हिंदी और फिर नाजायज तरीके से उर्दू पैदा हुई. उर्दू जिसे भारत का लोक आज भी 'लश्करी जुबान' ही कहता है. लश्करी जुबान अदब भी भाषा कैसे बन जाती है- यह बड़ा विषय है.

इतिहास भूगोल को लेकर आज की तारेकेह में भारत की तमाम परेशानियों की जड़ में उर्दू जैसी चिंताएं ही हैं. उर्दू के जरिए ही चीजों को गोल मोलकर आज हमारी नसों में खून की तरह बहाया गया है. और असल में मुगलों की यही योजना भी थी. वर्ना तो अरबी साहित्य में इतिहास का जो सच दिखता है उसके तथ्यों पर उर्दू के जरिए पर्दा नहीं डाला जाता जिसे अंग्रेजी के जरिए वामपंथी कार्यकर्ताओं ने एकदम मिटा दिया. आप जिस पर विवाद करते हैं, अरबी साहित्य उस बहुत स्पष्ट बता देता है. भारत को हमेशा ध्यान देना चाहिए कि तालिबान बनने से पहले अफगानिस्तान भी एक शुद्ध वामपंथी देश बन चुका था. वामपंथ की मंजिल क्या होती है- आज के तालिबान को देखकर समझा जा सकता है. भारतीय उपमहाद्वीप में उम्मा के लिए असल मुहिम क्या थी यह भी आज के अफगानिस्तान से बेहतर समझा जा सकता है. तथागत के अवशेष अफगानिस्तान में ही हैं. पाकिस्तान भी अपनी गति में अफगानिस्तान बनने के बिल्कुल नजदीक है.

भारत में बुद्धिजीवियों, कलाकारों, इतिहासकारों और जेएनयू जैसे तमाम इंस्टीट्यूशंस की क्या भूमिका रही है- इसे समझना हो तो प्रोफ़ेसर पुष्पेश पंत का हालिया इंटरव्यू जरूर देखना चाहिए. इसमें उन्होंने बताया है कि लुटियंस के खोखले अंग्रेजी दा- थापरों और चंद्रों की वजह से क्यों उन जैसे लोगों को इतिहास से अलग अपनी राह चुननी पड़ी. उन्होंने यह भी बताया है कि असल में भारत विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले "रामपुर" जैसे अशराफ घरानों के जरिए हकीकत में किया क्या गया जिसका भयानक असर भारतीय समाज और राजनीति की चेतना पर पड़ा. और यह पता चल जाता है कि कैसे औरंगजेब को जिंदा पीर बताने वाला भारत का महान और प्रमाणिक इतिहासकार बन गया. इंटरव्यू में शुरुआत के आधे घंटे को जरूर सुनिए.

नसीरुद्दीन शाह की उर्दू के लिए चिंता हिंदी को लेकर एमके स्टालिन की आशंका से साफ़ हो जाती है

नसीरुद्दीन शाह की चिंता उर्दू है या कुछ और, इसे समझना मुश्किल नहीं. अगर चीजों की टाइमिंग और क्रोनोलाजी देखें तो लगता है कि उनकी चिंता असल में उर्दू के लिए है ही नहीं. बल्कि यह उसी उस राजनीतिक कोशिश का हिस्सा नजर आ रहा है जहां भारत की बहुलता को निशाना बनाकर उसे अराजकता में झोकने का लंबे वक्त से प्रयास हो रहा है. उर्दू बेशक विदेशी मूल के कुछ लोगों की भाषा हो सकती है, उन्हें इस्तेमाल करने की स्वतंत्रता भी है- मगर वह भारत की भाषा कभी नहीं हो सकती है. विभाजन के बाद भारत में उसका वजूद भी खोजना संप्रभुता पर हमला है. अगर हकीकत में भारत की भाषा होती तो शायद नसीरुद्दीन शाह चिंता नहीं जता रहे होते. भारत में तमाम लोक भाषाओं को सरकारी प्रश्रय नहीं है, सामूहिक स्तर पर भी वैसे प्रयास नहीं होते जैसे उर्दू के लिए होते हैं बावजूद लोक भाषाएं ना सिर्फ व्यवहार में जिंदा हैं बल्कि उसे बोलने वालों की संख्या दिनों दिन बढ़ रही है. उनका कारोबारी स्वरुप भी खड़ा हो रहा है. कायदे से देखें तो असल में उर्दू को लेकर नसीरुद्दीन की चिंता क्या वह हिंदी को लेकर एमके स्टालिन की आशंका में साफ नजर आती है.

अभी तीन दिन पहले ही स्टालिन ने हिंदी विरोधी आंदोलन में जान गंवाने वाले लोगों को लेकर हुए एक कार्यक्रम में केंद्र सरकार पर जबरदस्ती हिंदी थोपने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा- "केंद्र सरकार ने प्रशासन से लेकर शिक्षा तक हर क्षेत्र में हिंदी को थोपने की प्रथा बना ली है. एक राष्ट्र, एक धर्म, एक परीक्षा, एक भोजन, एक संस्कृति की तरह वे एक भाषा के जरिए अन्य राष्ट्रीय वर्गों की संकृति नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं." स्टालिन के बयान से बू आ रही है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है. भारत तो पहले से ही एक राष्ट्र है. हो सकता है कि मोदी के आने की वजह से वह टूट गया हो. लेकिन राहुल गांधी भी तो उसी राष्ट्र को जोड़ने निकले हैं. तमिलनाडु से उनकी यात्रा शुरू हुई और स्टालिन ने ही उसमें जोर लगाया. और संस्कृति भी एक ही है अपनी स्थानीयता समेटे हुए. हां, भाषाएं और बोलियां अलग हैं और यह कहीं नहीं दिखा कि हिंदी को उनपर थोपा गया हो.

अलग भाषाभाषी भारतीय संस्कृति में स्वाभाविक रूप से हिंदी इकलौती भाषा है जो खुद ब खुद संपर्क भाषा के रूप में मजबूत हुई. उसे किसी ने प्रचारित नहीं किया. भारत के लोक की संपर्क भाषा वही है. हिंदी के बाद सिर्फ संस्कृत और अंग्रेजी में ही यह क्षमता है. लेकिन वह एक दायरे में भारत के अलग क्षेत्रों को जोड़ती है और दुर्भाग्य से स्थानीयता का अतिक्रमण भी करती है. चीजों की क्रोनोलाजी देखें तो समझ में आता है कि स्टालिन असल में भाषा के बहाने तमिल अस्मिता को उभार रहे और जाने अनजाने भारतीय संप्रभुता को नुकसान पहुंचाने वाली राजनीति कर रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे नसीरुद्दीन की कोशिश है.

उन्हें बताना चाहिए कि कैसे हिंदी ने तमिल या दूसरी भारतीय भाषाओं का अतिक्रमण किया. बावजूद कि पिछले कुछ सालों में देशभर में तमिल समेत अन्य भारतीय भाषाओं का दायरा उनके निश्चित भूगोल से ज्यादा विस्तार पाता दिखता है. उत्तर के लोग भी दक्षिण भारतीय भाषाएं सीख रहे हैं. और तमिल समेत सभी भाषाओं पर हर भारतीय को गर्व है. यह भी दिलचस्प है कि पिछले कुछ सालों में हिंदी ने सबसे ज्यादा विस्तार तमिलनाडु में ही पाया है. और इसकी वजह सिर्फ यही है कि आज की तारीख में तमिल दक्षिण से निकलकर उत्तर के ज्यादा नजदीक खड़ा होना चाहता है. उसमें कोई सरकारी प्रयास नहीं बल्कि स्वाभाविक सांस्कृतिक और कारोबारी पक्ष हैं.

तमिल अस्मिता तो बहाना है, निशाने पर हिंदू हैं और विरोध इतना अंधा है कि वह भारत विरोध बन चुका है

असल में स्टालिन की चिंता तमिल नहीं है. वह बंटवारे की एक राजनीति करते दिख रहे हैं. उनका हिंदू विरोधी रुख साफ़ दिख रहा है. तमिलनाडु में जिस तरह भाजपा उभार पाते दिख रही है वह भी उनकी चिंता का बड़ा सवाल है और हिंदी के बहाने वह तमिलनाडु में भाजपा को रोकने की कोशिशें कर रहे हैं. मगर उन्हें अब तक कोई सफलता नहीं मिली है. इस दिशा में सरकार बनाने के बाद उन्होंने सबसे पहले हिंदू मंदिरों में अनुसूचित जाति और जनजाति के पुजारियों की नियुक्ति की. उन्हें लगा था कि फैसले का विरोध होगा. मगर यह तो कभी सवाल ही नहीं रहा तो कोई पूजा पाठ का विरोध क्यों करेगा? विरोध नहीं हुआ.

सामजिक बंटवारे का यह फ़ॉर्मूला नहीं चला तो स्टालिन ने हिंदू मंदिरों की सम्पत्ति का ईसाईकरण करना शुरू कर दिया. इसका विरोध है. और यह जायज है. तमिलनाडु में ईसाईयों की एक धारा तमिल अस्मिता को रोम के साथ जोड़ती है. करीब 10 हजार साल पुराने उत्खनन में रोम से जुड़े जो कारोबारी निशान मिले हैं उसके आधार पर. बावजूद कि तमिल समाज से वह यह सवाल छिपा ले जाते हैं कि दो हजार साल पहले ईसाइयत नाम की चीज दुनिया में थी ही नहीं. और भारत दुनिया का केंद्र था. सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम हर तरफ उसके सबूत मिलते हैं. इसका मतलब यह भी नहीं है कि तमिलनाडु या भारत की सभ्यता रोम की वंश परंपरा से निकली है. लेकिन शायद इसी चीज को स्थापित करने के लिए ही बहुत चालाकी से शिव, विष्णु और गणपति के उपासक महान चोल साम्राज्य को अहिंदू भी करार दे दिया जाता है. इन कामों के लिए हमेशा लोकप्रिय चेहरों का ही इस्तेमाल किया जाता है. इसी कोशिश में डीएमके के पेरोल पर पलने वाले 'बौद्धिक कार्यकर्ता' कैथोलिक पेरियार को उत्तर में महिमामंडित करने की कोशिश में नजर आते हैं फिलहाल.

अब तक तमिल अस्मिता के नाम पर तमिलनाडु का समाज कई सवालों पर चुप हो जाया करता था. मगर उन्हें अब हिंदू विरोध की चीजें समझ में आने लगी हैं. उन्होंने ज्यादा बेहतर समझ लिया है कि असल में पिक्चर क्या है? लोगों में यह समझ स्टालिन सरकार के ईसाईकरण अभियान से और बढ़ी है. खासकर तब जब स्टालिन के बेटे ने खुद को सरेआम 'प्राउड कैथोलिक' बताया. लोगों की आशंकाओं को किसी सबूत की जरूरत नहीं रही. तमिलनाडु में यह निर्णायक मोड़ है. क्योंकि अब तक किसी भी द्रविड़ नेता ने अपनी धार्मिक पहचान जाहिर नहीं की थी. उन्होंने खुद को नास्तिक बताकर हिंदू विरोध को हवा दी और अब उस स्थिति में आ चुके हैं कि अपनी धार्मिक पहचान की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं. फिर नास्तिक बनकर हिंदुओं के खिलाफ जो माहौल बनाया गया, उन्हें बांटा गया- उसे क्या कहा जाए. साजिश.

समाज को अपना हित अहित फिल्म अभिनेताओं और नेताओं की बजाए हकीकत को देखकर करना होगा

चीजों से पता चल रहा कि उन्होंने एक लक्ष्य पा लिया है और अब निर्णायक लक्ष्य की तरफ ज्यादा बोल्ड तरीके से बढ़ रहे हैं. यह तथ्य सिर्फ तमिलनाडु नहीं समूचे भारतीय समाज को गौर से समझना चाहिए. जिस मुख्यमंत्री का बेटा खुद को प्राउड कैथोलिक बता रहा हो, हिंदुओं पर विवादित टिप्पणियां करने वाले ईसाई धर्मगुरु के साथ नजर आता हो- अगर वह हिंदी भर की बात कहते तो चीजें समझ में आतीं. लेकिन हिंदी के बहाने उन्होंने राष्ट्र धर्म और संस्कृति को लेकर जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया उसमें अलगाव की बू साफ़ है. समझ में नहीं आता कि इस तरह के बयान देने वाला नेता आखिर भारत जोड़ो यात्रा में क्या जोड़ रहा था?

अडानी के प्रकरण में अमेरिका की एक 'फ्रिंज एजेंसी' हिंडनबर्ग रिसर्च की भूमिका देखें तो पता चलता है कि उन्हें किसी भी तरह भारत की चीजों को नुकसान पहुंचाना है. देश में क्या चल रहा है इसे समझना हो तो उसी अमेरिकी संस्था हिंडनबर्ग रिसर्च की कोशिशों की वजह से भारत में पहली पीढ़ी के अरबपति को किस तरह नुकसान पहुंचाया जा रहा है और कांग्रेस की उसमें किस तरह की दोहरी भूमिका है- समझा जा सकता है. जयराम रमेश के जरिए कांग्रेस ने हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट पर जांच की बेतुकी मांग की है. यह वही कांग्रेस है कि जिसके नेता राहुल, अडानी के गाली देते हैं और उन्हीं की पार्टी की सरकारें उसी अडानी को अपने राज्यों में निवेश के लिए बुलाकर तारीफ़ करती हैं.

भारतीय समाज को राजनीति में सवालों पर डंटकर खड़ा होना होगा. राजनीतिक दलों को विदेशी ताकतों के इशारे पर संप्रभुता और देश की संस्थाओं के साथ खिलवाड़ करने की छूट तो नहीं दी जा सकती. आप उन मुद्दों को राजनीति का विषय कैसे बना सकते हो जिनकी वजह से संप्रभुता को नुकसान पहुंच रहा है.


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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