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जिम्मी शेरगिल ने किस वजह से साइन कर ली थी कॉलर बम, जिसे देखना समय की बर्बादी है

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 14 सितम्बर, 2021 01:39 PM
  • 10 जुलाई, 2021 08:41 PM
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अफसोस जिम्मी शेरगिल के लिए होता है. लग ये रहा है कि उन्हें शायद अब फ़िल्में ही नहीं मिल रहीं और महज हीरो बने रहने के लिए वो कॉलर बम जैसे जोखिम उठा रहे हैं. जबकि वो कमाल के अभिनेता हैं. उनकी आंखे, डील-डौल, अभिनय, संवाद अदायगी में बहुत दम है.

डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हुई कॉलर बम देखने के बाद उसकी समीक्षा पर सोचते हुए मुझे यही लगा कि आखिर वो बढ़िया चीजें क्या हैं जिसके बारे में मैं अपने पाठकों को ईमानदारी से कुछ बता सकूं. अफसोस, मुझे फिल्म में एक भी ऐसी कोई बढ़िया चीज नहीं मिली. सिवाय इसके कि कोई अगर जिम्मी शेरगिल का फैन है, उस तरह का दर्शक है जिसे हर हाल में रोज फिल्म देखनी ही है या कैमरे की नजर से ख़ूबसूरत पहाड़ की कुछ झलकियां देखना चाहता है- तो वो बिना झिझक कॉलर बम देख सकता है. बाकी इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि किसी पाठक को फिल्म देखने के लिए मजबूर किया जाए या सलाह दी जाए.

दरअसल, सस्पेंस थ्रिलर के नाम पर ज्ञानेश झोटिंग ने ऐसा मजाक रच दिया है कि अब क्या ही कहें. दर्शक अगर इस फिल्म को थ्रिलर की कसौटी मान लें तो भविष्य में अच्छी फिल्म होने के बावजूद लोग थ्रिलर के नाम से ही कतराने लगेंगे. उन्हें कॉलर बम का हादसा नजर आने लगेगा. समझ नहीं आ रहा कि ऐसी सिनेमाई आपदा रचने का असल दोषी कौन है? वो लेखक जो बेहतर फलसफे पर कहानी लेकर आया मगर उसे कायदे से बुन ही नहीं पाया. कहानी का ठीक से निर्देशन ही नहीं हो पाया. या फिर प्रोजेक्ट के लिए ढंग का एडिटर तक नहीं मिला जो विजुअल की काट-छांट करके उसे थोड़ा चुस्त तो बना ही सकता था. या जिम्मी शेरगिल और राजश्री देशपांडे को छोड़कर फिल्म के तमाम कलाकार जो कहानी और उसके किरदार को सही तरीके से समझ ही नहीं पाए और उन्होंने कॉलर बम सिर्फ इसलिए कर ली क्योंकि वो एक फिल्म में नजर आने वाले थे. गलतियां इतने तरह की और इतनी लेयर्ड हैं कि फिल्म शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती है.

सनावर के एक सुपरकॉप मनोज हेसी (जिम्मी शेरगिल) का अतीत उसका पीछा कर रहा है. और उसके एक अपराध से कई लोगों की जिंदगी मौत के मुहाने खड़ी हो जाती है. सस्पेंस थ्रिलर के नाम पर जबरदस्ती कई वाहियात से...

डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हुई कॉलर बम देखने के बाद उसकी समीक्षा पर सोचते हुए मुझे यही लगा कि आखिर वो बढ़िया चीजें क्या हैं जिसके बारे में मैं अपने पाठकों को ईमानदारी से कुछ बता सकूं. अफसोस, मुझे फिल्म में एक भी ऐसी कोई बढ़िया चीज नहीं मिली. सिवाय इसके कि कोई अगर जिम्मी शेरगिल का फैन है, उस तरह का दर्शक है जिसे हर हाल में रोज फिल्म देखनी ही है या कैमरे की नजर से ख़ूबसूरत पहाड़ की कुछ झलकियां देखना चाहता है- तो वो बिना झिझक कॉलर बम देख सकता है. बाकी इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि किसी पाठक को फिल्म देखने के लिए मजबूर किया जाए या सलाह दी जाए.

दरअसल, सस्पेंस थ्रिलर के नाम पर ज्ञानेश झोटिंग ने ऐसा मजाक रच दिया है कि अब क्या ही कहें. दर्शक अगर इस फिल्म को थ्रिलर की कसौटी मान लें तो भविष्य में अच्छी फिल्म होने के बावजूद लोग थ्रिलर के नाम से ही कतराने लगेंगे. उन्हें कॉलर बम का हादसा नजर आने लगेगा. समझ नहीं आ रहा कि ऐसी सिनेमाई आपदा रचने का असल दोषी कौन है? वो लेखक जो बेहतर फलसफे पर कहानी लेकर आया मगर उसे कायदे से बुन ही नहीं पाया. कहानी का ठीक से निर्देशन ही नहीं हो पाया. या फिर प्रोजेक्ट के लिए ढंग का एडिटर तक नहीं मिला जो विजुअल की काट-छांट करके उसे थोड़ा चुस्त तो बना ही सकता था. या जिम्मी शेरगिल और राजश्री देशपांडे को छोड़कर फिल्म के तमाम कलाकार जो कहानी और उसके किरदार को सही तरीके से समझ ही नहीं पाए और उन्होंने कॉलर बम सिर्फ इसलिए कर ली क्योंकि वो एक फिल्म में नजर आने वाले थे. गलतियां इतने तरह की और इतनी लेयर्ड हैं कि फिल्म शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती है.

सनावर के एक सुपरकॉप मनोज हेसी (जिम्मी शेरगिल) का अतीत उसका पीछा कर रहा है. और उसके एक अपराध से कई लोगों की जिंदगी मौत के मुहाने खड़ी हो जाती है. सस्पेंस थ्रिलर के नाम पर जबरदस्ती कई वाहियात से हुक बनाने की कोशिश तो की गई मगर कुछ भी स्टेब्लिश ना हो पाने की वजह से कहानी बिखर जाती है. बिखराव में ना तो मनोरंजन बचता है, ना अभिनय और ना ही कोई सोचने वाली बात जिस पर दिमाग के घोड़े ही दौड़ा दिए जाएं. करीब डेढ़ घंटे तक भागदौड़ के अलावा कुछ नहीं दिखता. राजनीति और समाज में हिंदू-मुस्लिम के झगड़े का छौंका जबरदस्ती लगा दिया गया. फिल्म शुरुआत के दस से बीस मिनट में ही ख़त्म हो जाती है. स्कूल की बिल्डिंग कुछ खूबसूरत लोकेशंस के अलावा सबकुछ नकली नजर आता है. नेताजी, पुलिस, मुस्लिम बुजुर्ग की लिंचिंग के लिए जुटी भीड़ और यहां तक कि एंटी टेररिस्ट ऑपरेशन के लिए आया कमांडोज का जत्था. जो टेररिस्ट है वो तो ठीक दूसरे ही फ्रेम में विक्टिम नजर आता है. बाद में बेसिर पैर के कई ट्विस्ट घुसा दिए गए हैं.

सोनी टीवी के शो सीआईडी का एकमात्र एपिसोड डेढ़ घंटे की समूची कॉलर बम पर बहुत भारी है. पूरी फिल्म में सिर्फ एक बात समझ में आती है कि किसी व्यक्ति के द्वारा अतीत में किया गया अपराध भविष्य में कई अपराधों को जन्म देता है और अगली पीढियां निश्चित ही प्रभावित हो सकती हैं. कुछ साल पहले हॉलीवुड स्टार टॉम हैंक्स की "क्लाउड एटलस" में लगभग इसी दर्शन को (By each crime and every kindness we birth our future, यानी प्रत्येक अपराध और दयालुता के साथ हम अपने भविष्य को जन्म देते हैं) दिखाने की कोशिश की गई थी. लेकिन वो थ्रिलर नहीं थी. ज्ञानेश झोटिंग को अगर यही बात समझानी थी तो बेहतर ये होता कि जिम्मी शेरगिल और दूसरे कलाकारों को लेकर वेबीनार कर लेते और लोगों को बता देते. थ्रिलर के नाम पर कॉलर बम बनाकर इतना संसाधन खर्च करने की कोई जरूरत नहीं थी.

ज्ञानेश झोटिंग की पूरी फिल्म से कहीं ज्यादा बेहतर कॉलर बम का ट्रेलर है. कम से कम वो इतना असरदार तो है कि उसे देखने के बाद पूरी फिल्म को देखने की इच्छा जग जाती है.

अफसोस बस जिम्मी शेरगिल के लिए होता है. लग ये रहा है कि उन्हें शायद अब फ़िल्में ही नहीं मिल रहीं और महज हीरो बने रहने के लिए वो कॉलर बम जैसे जोखिम उठा रहे हैं. जबकि वो कमाल के अभिनेता हैं. उनकी आंखे, डील-डौल, अभिनय, संवाद अदायगी में बहुत दम है. हासिल, मोहब्बतें, साहेब बीवी और गैंगस्टर और स्पेशल 26 जैसी कई फिल्मों में जिम्मी दिखा चुके हैं कि वो क्या बाला हैं. बावजूद हिंदी के निर्माता-निर्देशक उन्हें कायदे की भूमिकाओं में कास्ट करने को तैयार नहीं हैं. कायदे से जिम्मी के लिए कहानियां लिखी जानी चाहिए. ऐसे खपाकर तो उनकी रेंज ही ख़त्म कर दी जाएगी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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