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फिल्में, जिन्होंने भारतीयों में खेल प्रेम पैदा किया

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 06 अगस्त, 2021 05:31 PM
  • 06 अगस्त, 2021 05:31 PM
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यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं करना चाहिए कि हमारे देश में क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के लिए संसाधन अपर्याप्त हैं. उससे भी ज्यादा खेलों के प्रति लचर मानसिकता है. समाज और सियासत दोनों स्तर पर. पिछले 15-20 साल में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों ने लोगों का ध्यान खींचा है. इसमें सिनेमा का भी योगदान है.

"पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब." ये वो महामंत्र है जिसे ना जाने कितनी पीढ़ियों में बच्चों को उनके मां बाप, घर परिवार और रिश्तेदार-नातेदारों ने घुट्टी में पिलाई है. ना जाने कितनी पीढ़ियां इसी महामंत्र के साथ बड़ी हुई होंगी. चोरी-छिपे ही खेलकूद किया होगा और पकड़े जाने पर पिटाई हुई होगी. एक पूरी पीढ़ी ने यकीन कर लिया कि खेल कूदकर कुछ भी नहीं किया जा सकता है. कुछ भी नहीं यानी कुछ भी नहीं. कॉलेज में खेलों से हमारी पीढ़ी या उससे पहले भी, कन्नी काटते थे, शर्माते थे या चिढ़ाये जाते होंगे. महामंत्र का असर जो था. इसमें भविष्य के लिए कभी कोई गुंजाइश ही नहीं तलाशी गई.

जबकि उसी समय अजय जडेजा, युवराज सिंह आ रहे थे. धूमकेतू की तरह सचिन तेंदुलकर चमक चुके थे. पता चला कि कई क्रिकेटर्स ने तो पढ़ाई-लिखाई की ही नहीं. ठीक से पढ़ लिख नहीं पाने वाले एमएस धोनी भी आए. हमारे माता-पिता तो नहीं मगर हम लोग इतना समझ रहे थे कि यार खेलों में भी शानादर भविष्य हो सकता है. मगर वो चकाचौंध हमेशा क्रिकेट में ही दिखी. लिएंडर पेस, महेश भूपति का नाम याद है. विश्वनाथन आनंद का भी नाम याद रहने लगा. कभी-कभार टीवी पर उनका खेल भी देखते. मगर यही लगता था कि इनका खेल तो हमारी अपनी औकात से बाहर की चीज है. बहुत समझ में भी नहीं आता था. पर जब श्वेत श्याम टीवी पर कुछ भी नहीं होता तो मन मारकर देख लेते. जैसे कृषि दर्शन देखते थे.

हमें हमेशा पीएमटी, आईआईटी और यूपीएससी के ही सपने दिखाए गए. सपने हैसियत और औकात से बाहर नजर आए तो उससे थोड़ा और नीचे खिसकाकर एसएससी जैसे क्लर्कियल परीक्षाओं, बीएड और बीटीसी तक पहुंच गए. चतुर्थ श्रेणी हमारी पीढ़ी के तमाम होनहारों के लिए अंतिम सम्मानित भविष्य था. कुछ होशियार लोग वकालत की 'डिग्री' बैकअप में रखते थे. डूबते को तिनके के सहारे की तरह. धनराज पिल्लै और कुछ एथलीट का नाम सुना जरूर मगर याद इसलिए नहीं रहा कि इनका भी कोई भविष्य है? ये तो बहुत बाद में शहर जाकर पता चला कि स्पोर्ट्स कोटा में तमाम जगह खिलाड़ी होना भी सुनहरा भविष्य बना सकता है....

"पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब." ये वो महामंत्र है जिसे ना जाने कितनी पीढ़ियों में बच्चों को उनके मां बाप, घर परिवार और रिश्तेदार-नातेदारों ने घुट्टी में पिलाई है. ना जाने कितनी पीढ़ियां इसी महामंत्र के साथ बड़ी हुई होंगी. चोरी-छिपे ही खेलकूद किया होगा और पकड़े जाने पर पिटाई हुई होगी. एक पूरी पीढ़ी ने यकीन कर लिया कि खेल कूदकर कुछ भी नहीं किया जा सकता है. कुछ भी नहीं यानी कुछ भी नहीं. कॉलेज में खेलों से हमारी पीढ़ी या उससे पहले भी, कन्नी काटते थे, शर्माते थे या चिढ़ाये जाते होंगे. महामंत्र का असर जो था. इसमें भविष्य के लिए कभी कोई गुंजाइश ही नहीं तलाशी गई.

जबकि उसी समय अजय जडेजा, युवराज सिंह आ रहे थे. धूमकेतू की तरह सचिन तेंदुलकर चमक चुके थे. पता चला कि कई क्रिकेटर्स ने तो पढ़ाई-लिखाई की ही नहीं. ठीक से पढ़ लिख नहीं पाने वाले एमएस धोनी भी आए. हमारे माता-पिता तो नहीं मगर हम लोग इतना समझ रहे थे कि यार खेलों में भी शानादर भविष्य हो सकता है. मगर वो चकाचौंध हमेशा क्रिकेट में ही दिखी. लिएंडर पेस, महेश भूपति का नाम याद है. विश्वनाथन आनंद का भी नाम याद रहने लगा. कभी-कभार टीवी पर उनका खेल भी देखते. मगर यही लगता था कि इनका खेल तो हमारी अपनी औकात से बाहर की चीज है. बहुत समझ में भी नहीं आता था. पर जब श्वेत श्याम टीवी पर कुछ भी नहीं होता तो मन मारकर देख लेते. जैसे कृषि दर्शन देखते थे.

हमें हमेशा पीएमटी, आईआईटी और यूपीएससी के ही सपने दिखाए गए. सपने हैसियत और औकात से बाहर नजर आए तो उससे थोड़ा और नीचे खिसकाकर एसएससी जैसे क्लर्कियल परीक्षाओं, बीएड और बीटीसी तक पहुंच गए. चतुर्थ श्रेणी हमारी पीढ़ी के तमाम होनहारों के लिए अंतिम सम्मानित भविष्य था. कुछ होशियार लोग वकालत की 'डिग्री' बैकअप में रखते थे. डूबते को तिनके के सहारे की तरह. धनराज पिल्लै और कुछ एथलीट का नाम सुना जरूर मगर याद इसलिए नहीं रहा कि इनका भी कोई भविष्य है? ये तो बहुत बाद में शहर जाकर पता चला कि स्पोर्ट्स कोटा में तमाम जगह खिलाड़ी होना भी सुनहरा भविष्य बना सकता है. किसी खेल की पूछ पकड़कर कोई ढंग की सरकारी नौकरी तो मिल ही सकती है.

ओलिम्पिक में जश्न मनाती भारतीय महिला टीम.

बहुतयात "चालाक" लोग मिल जाएंगे जिन्होंने स्पोर्ट्स लिया भी तो सरकारी नौकरी के लिए. नौकरी मिली और बाद में खेल दूसरी प्राथमिकता और फिर साल दो साल बाद ख़त्म. कुल मिलाकर इतनी लंबी चौड़ी भूमिका देश में खेलों के भविष्य और उस दिशा में हमारे प्रयास और मानसिकता को लेकर है. लंबे समय तक देश में खेल का मतलब क्रिकेट को समझ लिया गया. और ये हमारे लिए खेल से ज्यादा मनोरंजन और ग्लैमर का विषय बना. दुर्भाग्य से इसके अच्छे और बुरे दोनों तरह के परिणाम सामने आए. अच्छे परिणाम ये रहे कि आज हम विश्व क्रिकेट में शीर्ष पर हैं. हमारे पास उम्दा खिलाड़ियों का बैकअप है. हम किसी को कहीं भी हारने में सक्षम हैं. दो तीन दशक पहले क्रिकेट में कभी कभार करिश्मा जरूर करते लेकिन "तूती" जैसी चीजें नहीं थीं.

किसी भी देश में खेलों का ढांचा उपलब्ध संसाधनों और उसके प्रति लोकरुचि से तैयार होती है. और बड़ी उपलब्धियां ही माहौल बनाती हैं. क्रिकेट को लेकर माहौल भी 1983 विश्वकप जीत और उसके बाद सिलसिलेवार उपलब्धियों की वजह से बना जो घरेलू मैदानों पर हासिल हुए. यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं करना चाहिए कि हमारे देश में क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के लिए संसाधन अपर्याप्त हैं. उससे भी ज्यादा खेलों के प्रति लचर मानसिकता है. समाज और सियासत दोनों स्तर पर. पिछले 15-20 साल में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों ने लोगों का ध्यान खींचा है. निश्चित ही इसमें खिलाड़ियों की व्यक्तिगत लगन और उपलब्धियां, कुछ राज्यों की तरफ से मुहैया करवाए गए संसाधनों का हाथ रहा है. लेकिन सिनेमा ने भी पिछले कुछ सालों में खेलों के प्रति जागरूकता बढ़ाने का काम किया है.

हमारे यहां सिनेमा में हर तरह की फ़िल्में बनती हैं. हमने विश्व स्तर का सिनेमा भी बनाया है. लेकिन दूसरे देशों की तरह हमने खेलों और खिलाड़ियों की गाथाओं को स्क्रीन पर उतारने में संकोच किया. मन दबाया. हमें ऊपर वाले मुहावरे की वजह से रिस्क दिखा. ऐसी कहानियां जो लोगों को प्रेरित करती और पीढियां तैयार करतीं. ऐसी कहानी जो खेलों के प्रति समाज और राजनीति को जागरुक करतीं. इस मामले में हमारे सिनेमा के हाथ तंग ही रहे. मनोरंजन माध्यमों का जन जागरुकता में क्या योगदान है यह बताने की जरूरत नहीं. उसके साक्ष्य भी मिल जाते हैं. पिछले दिनों ओलिम्पिक में भारतीय महिला टीम की जीत के बाद शाहरुख खान की "चक दे इंडिया" पर एक मजेदार बहस सोशल मीडिया में दिखी. दरअसल, ध्रुव राठी ने एक ट्वीट किया था कि हमारी पूरी पीढ़ी "चक दे इंडिया" को देखते हुए बड़ी हुई. ध्रुव के कहने का मतलब मुझे यही लगता है कि भारतीय महिला हॉकी खिलाड़ियों को मोटिवेट करने में शाहरुख की फिल्म का भी बहुत बड़ा योगदान रहा. ओलिम्पिक खेल रही ज्यादातर खिलाड़ी फिल्म आने के वक्त 10 से 15 साल रही होंगी. उनपर जरूर असर हुआ होगा.

हालांकि मसला महिला खिलाड़ियों की जीत के क्रेडिट वार में उलझ गया. फिलहाल ये दावे से बताना मुश्किल है कि मौजूदा कितनी हॉकी खिलाड़ियों को शाहरुख की फिल्म ने मोटिवेट किया? मगर इस बात में कोई शक नहीं कि हॉकी के प्रति आम लोगों की धारणा बदलने में शाहरुख की फिल्म का योगदान नहीं था. ये कमाल की फिल्म थी और इसके आने के बाद ना जाने कितने लोगों को हॉकी के लिहाज से भारत के अतीत के बारे में पता चला होगा. लोगों को ताज्जुब होगा, लेकिन कुछ रिपोर्ट्स में यह भी सामने आया कि शाहरुख की फिल्म के बाद देश में हॉकी की बिक्री करीब डेढ़ गुना से ज्यादा तक बढ़ गई थी. हाकी खरीदने वाले किशोर थे. वो कौन किशोर थे जिन्होंने हॉकी की स्टिक खरीदी? हो सकता है कि स्टिक खरीदने वाले बच्चों में कोई भी आज के ओलिम्पिक टीम का हिस्सा ना हो, लेकिन ऐसा असंभव है कि जिन्होंने स्टिक खरीदा वो किसी मैदान पर ना उतरे हों. उनकी देखा-देखी गली-मोहल्ले गांव गिराव के दूसरे लोग आगे ना बढ़े हों. चाहे अपने आसपास के खिलाड़ियों की उपलाभियों (छोटी ही सही) को देखकर. चक दे इंडिया 14 साल पहले आई थी और कॉमनवेल्थ गेम्स में भारतीय महिला टीम की जीत से प्रेरित थी. हालांकि इसकी कहानी फिक्शनल थी.

लोगों को विजेंदर और मैरीकॉम से पहले भारतीय बॉक्सर्स के कितने नाम मालूम हैं? क्या पान सिंह तोमर और भाग मिल्खा भाग ने एथलीट के लिए माहौल नहीं बनाया. भला कौन इस बात को इनकार सकता है. फोगाट सिस्टर्स की उपलब्धियों और दंगल की रिकॉर्डतोड़ सफलता के बाद हरियाणा, दिल्ली एनसीआर और राजस्थान के तमाम इलाकों में कुश्ती की क्रांति दिखने लगी है. ना जाने कितने ट्रेनिंग सेंटर्स चलने लगे हैं. लोग अपने बच्चों को भी भेज रहे हैं. अब नॉर्थ ईस्ट, हरियाणा जैसे राज्यों में बॉक्सिंग के रिंग खूब दिख रहे हैं. एथलीट, बॉक्सिंग और कुश्ती को क्रिकेट के सामने किसने ग्लैमराइज किया? हमारे यहां से कोई ऐसा बड़ा एथलीट नहीं हुआ. मुझे हैरानी हुई जब मैंने पाया कि मेरे गांव और आसपास के बहुत सारे बच्चे आजकल रोज 20-20, 30-30 किलोमीटर दौड़ रहे हैं. भोर में मैराथन. कोई शरीर में टायर बांध कर दौड़ रहा है. आसपास खूब बॉलीबाल खेला जा रहा है. दावे से कह सकता हूं कि इनके मां बाप ने ऐसा करने को नहीं बोला है. लेकिन अब रोक भी नहीं रहे हैं. इसके पीछे आखिर कौन है?

निश्चित ही सिनेमा ने खेलों के प्रति हमें शिक्षित किया, सही दिशा दिखाई और भरोसा जगाया. उस मुहावरे को भी पलट कर रख दिया कि खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब. इस ओलिम्पिक में खासकर महिला खिलाड़ियों ने जो व्यक्तिगत और टीम उपलब्धि हासिल की है वो देश में होनहार खिलाड़ियों को पैदा करने के लिहाज से टर्निंग पॉइंट बनने जा रहा है. हम ना जाने कितने वंदना कटियार, पुनिया, दहिया बनाने के लिए तैयार हैं. ये देश में 83 के क्रिकेट विश्वकप वाला क्षण साबित हो सकता है. अच्छा होगा कि बॉलीवुड और दूसरे रीजनल सिनेमा खिलाड़ियों के संघर्ष और उपलब्धियों को परदे पर दिखाए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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