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...और इस तरह करणी सेना के गुंडों से मैंने पत्नी की रक्षा की

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 25 जनवरी, 2018 04:52 PM
  • 25 जनवरी, 2018 04:52 PM
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सिनेमाघर पहुंचा तो वहां का नजारा डरावना था. पूरा परिसर किसी छावनी में बदल चुका था. एक बार तो लगा कि कहीं दक्षिण कोरिया के सनकी तानाशाह किम जोंग उन ने इस सिनेमा हॉल पर हमला तो नहीं कर दिया.

बीती रात पत्नी से डिनर को लेकर बहस हुई. पूरा दिन माहौल गर्म और स्थिति तनावपूर्ण थी. शाम को हथियार डाल दिये, संधि हुई, और फ़ैसला हुआ कि साथ में फ़िल्म देखी जाए. फ़िल्म के लिए हम दोनों ने सेफ़ कार्ड खेला और "टाइगर ज़िंदा है" देखने का इरादा किया.

चूंकि छुट्टी थी तो जो लटके हुए काम थे, वो भी दिन में निपटा लिए. शाम को 6.00 बजे इस आस से निकले की "टाइगर ज़िंदा है" का कोई शो मिल जाएगा. बुक माय शो पर चेक किया तो यहां दिल्ली के लाजपत नगर वाले 3सी मॉल में फ़िल्म थी. जल्दी-जल्दी ओला कैब बुक की और दिल्ली की सर्दी, स्मॉग और ढेर सारी कार्बन डाईऑक्साइड खाकर हम पूछते पाछते सिनेमा घर तक आ गए थे.

सिनेमाघर पहुंचा तो वहां का नजारा डरावना था. पूरा परिसर किसी छावनी में बदल चुका था. एक बार तो लगा कि कहीं दक्षिण कोरिया के सनकी तानाशाह किम जोंग उन ने इस सिनेमा हॉल पर हमला तो नहीं कर दिया. फिर याद आया कि अरे नहीं ये सब तो "पद्मावत" के लिए है.

अच्छा चूंकि 7.45 हो चुके थे तो मैंने जल्दी से मॉल में प्रवेश किया. पुलिस वालों ने पहले मुझे, फिर मेरी पत्नी को देखा और देखकर हमें इग्नोर कर दिया. वो पूरी मुस्तैदी से दोबारा अपने काम में जुट गए, हम भी आगे बढ़ गए.

अब 3सी मॉल प्रशासन दर्शकों की सुरक्षा के लिए गंभीर था या उन्हें सख्त इंस्ट्रक्शन्स मिले थे पता नहीं. मगर आज टिकट विंडो से पहले ही वहां दो बैरिकेडिंग लगी थी. आधुनिक तकनीक से लैस उपकरण लगाकर हम दोनों की चेकिंग हुई और फाइनली हम टिकट विंडो पर आए. वहां आकर पता चला कि सभी फिल्मों के सारे शो कैंसिल हैं और केवल पद्मावत का 9.50 के शो का टिकट अवेलेबल है. हम ओला को 208 रुपए का किराया देकर मॉल पहुंचे थे. हमारी फ़िल्म टाइगर ज़िंदा है कैंसिल थी. अब हमारे पास एक विकल्प था भंसाली की पद्मावत का रात 9.50 का शो.

इस पद्मावत ने बीवी के सामने...

बीती रात पत्नी से डिनर को लेकर बहस हुई. पूरा दिन माहौल गर्म और स्थिति तनावपूर्ण थी. शाम को हथियार डाल दिये, संधि हुई, और फ़ैसला हुआ कि साथ में फ़िल्म देखी जाए. फ़िल्म के लिए हम दोनों ने सेफ़ कार्ड खेला और "टाइगर ज़िंदा है" देखने का इरादा किया.

चूंकि छुट्टी थी तो जो लटके हुए काम थे, वो भी दिन में निपटा लिए. शाम को 6.00 बजे इस आस से निकले की "टाइगर ज़िंदा है" का कोई शो मिल जाएगा. बुक माय शो पर चेक किया तो यहां दिल्ली के लाजपत नगर वाले 3सी मॉल में फ़िल्म थी. जल्दी-जल्दी ओला कैब बुक की और दिल्ली की सर्दी, स्मॉग और ढेर सारी कार्बन डाईऑक्साइड खाकर हम पूछते पाछते सिनेमा घर तक आ गए थे.

सिनेमाघर पहुंचा तो वहां का नजारा डरावना था. पूरा परिसर किसी छावनी में बदल चुका था. एक बार तो लगा कि कहीं दक्षिण कोरिया के सनकी तानाशाह किम जोंग उन ने इस सिनेमा हॉल पर हमला तो नहीं कर दिया. फिर याद आया कि अरे नहीं ये सब तो "पद्मावत" के लिए है.

अच्छा चूंकि 7.45 हो चुके थे तो मैंने जल्दी से मॉल में प्रवेश किया. पुलिस वालों ने पहले मुझे, फिर मेरी पत्नी को देखा और देखकर हमें इग्नोर कर दिया. वो पूरी मुस्तैदी से दोबारा अपने काम में जुट गए, हम भी आगे बढ़ गए.

अब 3सी मॉल प्रशासन दर्शकों की सुरक्षा के लिए गंभीर था या उन्हें सख्त इंस्ट्रक्शन्स मिले थे पता नहीं. मगर आज टिकट विंडो से पहले ही वहां दो बैरिकेडिंग लगी थी. आधुनिक तकनीक से लैस उपकरण लगाकर हम दोनों की चेकिंग हुई और फाइनली हम टिकट विंडो पर आए. वहां आकर पता चला कि सभी फिल्मों के सारे शो कैंसिल हैं और केवल पद्मावत का 9.50 के शो का टिकट अवेलेबल है. हम ओला को 208 रुपए का किराया देकर मॉल पहुंचे थे. हमारी फ़िल्म टाइगर ज़िंदा है कैंसिल थी. अब हमारे पास एक विकल्प था भंसाली की पद्मावत का रात 9.50 का शो.

इस पद्मावत ने बीवी के सामने हीरो बना दिया!

मैं पत्नी का मुंह देख रहा था, पत्नी मेरा. हम दोनों को कुछ समझ नहीं आ रहा था. पहले तो मन में आया कि इतनी दूर आए हैं तो चलो फ़िल्म देख लेते हैं. फिर मन के किसी कोने से सवाल हुआ कि अगर कुछ हो गया तो क्या होगा? सवाल गहरे होते चले गए जैसे अपने तक तो ठीक है, पत्नी के साथ कुछ हुआ तो जिम्मेदारी ले पाओगे? 5 मिनट में इससे मिलते जुलते 10-15 सवाल दिमाग में आए और उन सब का जवाब था नहीं.

हालांकि पत्नी समझदार है तो उसे समझाने बुझाने का प्रयास किया. शुरुआत में पत्नी को लगा मुझे उसे फ़िल्म दिखानी ही नहीं है और मैं बस उसे टाइमपास के लिए इतनी दूर लाया हूं. मगर कुछ देर बाद शायद उसे मेरी बातें समझ आ गयी और हम वापस हो लिए. वापस आते वक़्त सामने एक पुलिस वाला खड़ा था जो अपने अधिकारी को मौके की ब्रीफिंग दे रहा था और बता रहा था कि दर्शकों की सुरक्षा के मद्देनजर "3 पुलिस वाले थिएटर के अंदर हैं, दो सिविल ड्रेस में एक यूनिफार्म में" मैंने उसकी बात सुनी और पत्नी को देखा, पत्नी मुझे घूर रही थी.

ख़ैर अब हम बाहर थे. ठंडी हवा चल रही थी. पुलिस की जीपें खड़ी थीं. हूटर बज रहे थे. पुलिस वाले हॉल की तरफ़ आ रहे थे. हम पति- पत्नी भी दबे मन से हॉल से जा रहे थे.

शाम खराब नहीं करनी थी तो पत्नी के साथ डिनर कर लिया. शायद वो अब भी गुस्सा है, कि मैं उसे फ़िल्म नहीं दिखा पाया. मगर मुझे संतोष है कि मैंने करणी सेना के गुंडों की संभावित बदतमीजी से उसे सुरक्षित रखा और उसकी रक्षा की. अभी कुछ देर पहले एक मित्र का फोन आया. मित्र उम्र में मुझसे बड़े हैं दिल्ली में 20 साल से हैं. उन्हें सारी बात बताई. उन्होंने भी इतनी बात कहकर फ़ोन काटा कि "बेकार में माचो बनने से कोई फ़ायदा नहीं है. अब तुम अकेले नहीं हो, तुमने अच्छा और सही फ़ैसला किया".

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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