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तान्हाजी इस्लामोफोबिक नहीं है, गलती आपकी है जो मुगलों के दौर में भी गंगा-जमुनी तहजीब खोज रहे हो!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 25 जुलाई, 2022 02:24 PM
  • 25 जुलाई, 2022 02:24 PM
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कुछ लोग औरंगजेब को विदेशी मानने को तैयार नहीं. उन्हें लगता है कि औरंगजेब भी 'पसमांदा' मुसलमान यानी शुद्ध भारतीय था. और इसी आधार पर जब भी तान्हाजी जैसी कहानियों पर फ़िल्में बनती हैं, पुरस्कार मिलता है- लोग गंगा जमुनी तहजीब खोजने लगते हैं. दुर्भाग्य यह है कि मध्यकाल में कोई गंगा जमुनी तहजीब नजर नहीं आती.

68वें राष्ट्रीय फिल्म अवॉर्ड की घोषणा हो चुकी है. भारतीय सिनेमा के दो दिग्गज अभिनेताओं अजय देवगन और सुरिया को संयुक्त रूप से श्रेष्ठ अभिनेता का अवॉर्ड दिया जाएगा. अजय देवगन को तान्हाजी: द अनसंग वॉरियर के लिए जबकि सुरिया को सूरराई पोतरू के लिए सम्मान मिलेगा. दोनों फ़िल्में साल 2020 में आई थीं और दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया था. तान्हाजी हिंदी में थी जबकि सूरराई पोतरू का निर्माण तमिल में हुआ था. यह तीसरी बार है जब तीन दशक के करियर में अजय देवगन को तीसरी बार श्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जा रहा है. इससे पहले एक्टर को साल 1998 में जख्म के लिए और फिर साल 2002 में द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह के लिए श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिल चुका है.

हालांकि अजय देवगन को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने से कुछ लोगों के पेट में जोर का दर्द उठा है. यह हैरानी की बात नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय पुरस्कारों पर हमेशा से सरकारों का दखल नजर आया है. मगर एक वर्ग को ऐसा लग रहा है कि तान्हाजी राष्ट्रीय पुरस्कार के लायक फिल्म है ही नहीं. लोगों को लग रहा कि भाजपा से नजदीकियों की वजह से एक्टर को पुरस्कृत किया जा रहा है. वैसे अजय देवगन ने भाजपा या नरेंद्र मोदी के लिए अपने झुकाव को जाहिर करने में कभी संकोच नहीं किया है. मगर उन्होंने भाजपा विरोधी दलों पर किसी तरह की राजनीतिक टिप्पणी नहीं की और दूसरे बॉलीवुड अभिनेताओं की तरह उन्हें भाजपा नेताओं के आसपास चक्कर काटते नहीं देखा गया है.

मगर बात जहां तक तान्हाजी के कंटेंट और उसमें अजय देवगन के काम की है- तमाम आरोप निराधार हैं. इसे जांचने में किसी रॉकेट तकनीकी की जरूरत भी नहीं है. इंटरनेट पर ही सबूत मिल जाते हैं. तान्हाजी को टीसीरीज के साथ खुद अजय देवगन ने प्रोड्यूस भी किया था. यह एक पीरियड ड्रामा थी. भारतीय इतिहास के एक योद्धा तान्हाजी मालसुरे की कहानी जिनके बारे में महाराष्ट्र से बाहर बहुत कम लोगों को जानकारी थी. मगर फिल्म के जरिए जब उन्हें अपने शूरवीर के पराक्रम का पता चला- लोग हैरान रह गए.

68वें राष्ट्रीय फिल्म अवॉर्ड की घोषणा हो चुकी है. भारतीय सिनेमा के दो दिग्गज अभिनेताओं अजय देवगन और सुरिया को संयुक्त रूप से श्रेष्ठ अभिनेता का अवॉर्ड दिया जाएगा. अजय देवगन को तान्हाजी: द अनसंग वॉरियर के लिए जबकि सुरिया को सूरराई पोतरू के लिए सम्मान मिलेगा. दोनों फ़िल्में साल 2020 में आई थीं और दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया था. तान्हाजी हिंदी में थी जबकि सूरराई पोतरू का निर्माण तमिल में हुआ था. यह तीसरी बार है जब तीन दशक के करियर में अजय देवगन को तीसरी बार श्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जा रहा है. इससे पहले एक्टर को साल 1998 में जख्म के लिए और फिर साल 2002 में द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह के लिए श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिल चुका है.

हालांकि अजय देवगन को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने से कुछ लोगों के पेट में जोर का दर्द उठा है. यह हैरानी की बात नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय पुरस्कारों पर हमेशा से सरकारों का दखल नजर आया है. मगर एक वर्ग को ऐसा लग रहा है कि तान्हाजी राष्ट्रीय पुरस्कार के लायक फिल्म है ही नहीं. लोगों को लग रहा कि भाजपा से नजदीकियों की वजह से एक्टर को पुरस्कृत किया जा रहा है. वैसे अजय देवगन ने भाजपा या नरेंद्र मोदी के लिए अपने झुकाव को जाहिर करने में कभी संकोच नहीं किया है. मगर उन्होंने भाजपा विरोधी दलों पर किसी तरह की राजनीतिक टिप्पणी नहीं की और दूसरे बॉलीवुड अभिनेताओं की तरह उन्हें भाजपा नेताओं के आसपास चक्कर काटते नहीं देखा गया है.

मगर बात जहां तक तान्हाजी के कंटेंट और उसमें अजय देवगन के काम की है- तमाम आरोप निराधार हैं. इसे जांचने में किसी रॉकेट तकनीकी की जरूरत भी नहीं है. इंटरनेट पर ही सबूत मिल जाते हैं. तान्हाजी को टीसीरीज के साथ खुद अजय देवगन ने प्रोड्यूस भी किया था. यह एक पीरियड ड्रामा थी. भारतीय इतिहास के एक योद्धा तान्हाजी मालसुरे की कहानी जिनके बारे में महाराष्ट्र से बाहर बहुत कम लोगों को जानकारी थी. मगर फिल्म के जरिए जब उन्हें अपने शूरवीर के पराक्रम का पता चला- लोग हैरान रह गए.

तान्हाजी के किरदार में अजय देवगन.

तान्हाजी के बॉक्स ऑफिस और इंटरनेट पर फिल्म की लोकप्रियता का पता लगा सकते हैं 'लिबरल'

तान्हाजी के कंटेंट को तथ्यहीन, सतही, औसत और प्रोपगेंडा बताने वालों को समझना चाहिए कि लंबे वक्त बाद किसी पीरियड ड्रामा के लिए दर्शकों का हुजूम सिनेमाघरों में भागता दिखा था. फिल्म ने बेशुमार पैसे कमाए. करीब 110 से 150 करोड़ के बजट में बनी फिल्म ने टिकट खिड़की पर अपनी लागत से कई गुना ज्यादा कमाई करने में कामयाब रही. बॉलीवुड हंगामा के मुताबिक़ भारतीय बॉक्स ऑफिस पर फिल्म का लाइफ टाइम कलेक्शन 279 करोड़ था. ओवरसीज बॉक्स ऑफिस पर भी फिल्म ने करीब 90 करोड़ से ज्यादा कमाए थे. इस तरह देखा जाए तो फिल्म का कुल ग्रॉस कलेक्शन 367.65 करोड़ से ज्यादा का रहा. बॉलीवुड फिल्मों के लिहाज से यह ब्लॉकबस्टर कलेक्शन था. फिल्म की कमाई उसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा सबूत है. टीवी प्रीमियर में भी तान्हाजी भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे ज्यादा देखी गई फिल्मों में शुमार है.

इंटरनेट का कोई ऐसा प्लेटफॉर्म नजर नहीं मिलता जहां फिल्म की तारीफ़ ना की गई हो. यहां तक कि IMDb पर फिल्म की ओवरआल रेटिंग 10 में से 7.5 है. करीब 30 हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड यूजर ने इसे रेट किया है. करीब-करीब हजार की संख्या में यूजर्स रिव्यू हैं जहां लोगों ने दिल खोलकर तारीफ़ की है. यहां लोगों को जाकर देखना चाहिए कि फिल्म के बारे में आम दर्शकों की भावनाएं क्या हैं? IMDb पर भी जिन लोगों ने फिल्म की आलोचना की है- उन्होंने भी असल में फिल्म के एजेंडाग्रस्त होकर प्रोपगेंडा फैलाने के ही आरोप लगाए हैं. कोरोना माहामारी से पहले IMDb पर सिनेमाघरों में रिलीज हुई किसी फिल्म के लिए यह रेटिंग हर लिहाज से शानदार मानी जा सकती है.

तान्हाजी अजय देवगन के करियर की प्रभावशाली भूमिकाओं में से एक

तान्हाजी की ऐसी एक भी समीक्षा देखने को नहीं मिली जिसमें समीक्षकों ने फिल्म की आलोचना की हो. बल्कि ओम राउत के लेखन-निर्देशन में तान्हाजी: द अनसंग वॉरियर के रूप में मास एंटरटेनर बनाने के लिए मेकर्स की जमकर तारीफ़ ही हुई. मुख्य कलाकारों के अलावा काजोल, नेहा शर्मा, शरद केलकर समेत लगभग सभी कलाकारों की तारीफ़ ही हुई. अजय देवगन ने खैर तान्हाजी के किरदार को परदे पर जीवंत कर ही दिया था. तान्हाजी के रूप में अजय देवगन को देखते हुए एक सेकेंड के लिए भी नहीं लगा था कि कोई एक्टर परदे पर अभिनय कर रहा हो. अजय ने किरदार के सभी इमोशंस को कहानी की जरूरत के हिसाब से ही अच्छे तरीके से ढोया. यहां तक कि सैफ अली खान ने भी नकारात्मक भूमिका के जरिए प्रभावशाली अभिनय किया.

तान्हाजी को इस्लामोफोबिक बताने से पहले उस दौर का देशकाल तो देख लीजिए

तान्हाजी को इस्लामोफोबिक ड्रामा भी नहीं जा सकता. पता नहीं लोग किस तर्क के आधार पर तान्हाजी के लिए 'इस्लामोफोबिक' शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं. यह समझ से परे है कि इतिहास की सच्ची घटनाओं से प्रेरित एक कहानी जिस देशकाल में है- भला उसे आज की सुविधाजनक इस्लामोफोबिया शब्दावली में कैसे समेटा जा सकता है? लोग यह क्यों भूल रहे हैं कि शिवाजी की जंग मुगलों से थी और उस वक्त औरंगजेब के रूप में मुगलिया इतिहास का सबसे क्रूर शासक राज कर रहा था.

उसके एजेंडा में पूरब पश्चिम-उत्तर-दक्षिण भारत के हर कोने पर मुगलिया सल्तनत का आधिपत्य और इस्लाम का प्रचार प्रसार था. और दक्खिन में औरंगजेब की राह का सबसे बड़ा रोड़ा शिवाजी और उनके मराठे लड़ाके थे. ऐतिहासिक रूप से इस बात पर भी बहस करने का कोई मतलब नहीं कि मुगलों के खिलाफ मराठा साम्राज्य का मकसद क्या था? सनातन या हिंदुत्व जो भी समझें- हिंदवी साम्राज्य का मकसद साफ था.  

तान्हाजी को इस्लामोफोबिया बताने वालों की बड़ी दिक्कतें है. पहली दिक्कत यह है कि जब वे करीब-करीब 350 साल पहले के इतिहास को देखते हैं तो उनकी दृष्टि आजादी के बाद के भारत की होती है. वो मुगलिया दौर को भी लोकतांत्रिक या गंगा जमुनी तहजीब के दौर में देखते हैं, जबकि उस वक्त धर्म के साथ भूगोल एक बड़ा मसला था. दूसरी दिक्कत यह भी है कि इस्लामोफोबिया की रट लगाने वाले मुगलों को विदेशी की बजाए भारतीय के रूप में ही देखते हैं.

कुछ-कुछ उसी तरह जैसे आज किसी भारतीय ने अमेरिका या ब्रिटेन की नागरिकता हासिल कर ली हो और मन मिजाज से वह आम स्थानीय नागरिकों जैसा ही हो? बुद्धिजीवियों को चाहिए कि औरंगजेब में अगर जुन्हें भारतीयता के गुण और लक्षण मिलते हैं तो उसे पोस्टरों में छपवाकर भारत की गलियों में चस्पा करवा देना चाहिए. लोगों का इतिहासबोध अगर गलत है तो उन्हें जानने का हक़ है कि औरंगजेब कितना बड़ा भारतीय संत था. बुद्धिजीवियों औरंगजेब पसमांदा मुसलमान नहीं विदेशी ही था. भारतीय मुसलमान तो जिहाद के नारे पर भी मुगलों के साथ लड़ने की बजाए अपने राजाओं के लिए ही लड़ और मर रहे थे. उनमें से एक शिवाजी महाराज भी थे.

तान्हाजी जैसा शौर्य भारतीय इतिहास में दुर्लभ है, अजय की फिल्म उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि

कोली परिवार में जन्मे तान्हाजी छात्रपति शिवाजी महाराज के सरदार थे. उन्हें सिंहगढ़ की ऐतिहासिक लड़ाई के लिए जाना जाता है. शिवाजी ने कोंडाना के दुर्ग को जीतने का कार्य उन्हें सौंपा था. तान्हाजी के बेटे की शादी थी, मगर मुगलों के हाथों मराठों के अपमान का बदला लेने के लिए उन्होंने पहले कोंडाना को जीतने का मन बनाया. तान्हाजी ने बेजोड़ शौर्य का परिचय देते हुए सिंहगढ़ के दुर्गम किले को जीत भी लिया. हालांकि बेहद मुश्किल अभियान में वे शहीद हुए. शिवाजी की इतिहास प्रसिद्द उक्ति- 'गढ़ आया पर सिंह गया' उसी शहादत के सम्मान में व्यक्त उदगार है. तान्हाजी प्रतापगढ़ की प्रसिद्द लड़ाई में भी शामिल रहे जहां शिवाजी महाराज ने आततायी अफजल खान को फाड़कर मार डाला था.

अब समझ में नहीं आता कि मुगलिया साम्राज्य से हिंदवी साम्राज्य के संघर्ष को आज के समय में किस तरह देखा जाए? औरंगजेब को संत बना दिया जाए या फिर उसे भारतीय मानकर दिखाया जाए जैसे बॉलीवुड ने मुग़ल-ए-आजम से जोधा अकबर तक दिखाया है. वह भी फर्जी तथ्यों के सहारे. या फिर वे जैसे थे वैसे दिखाया जाए. तान्हाजी जब आई थी- अपने ऐतिहासिक ज्ञान का हवाला देते हुए सैफअली खान ने भी फिल्म के तथ्यों को राजनीति से प्रेरित बताया था और यह कहने की कोशिश की कि तब तो भारत की आज जैसी अवधारणा ही नहीं थी. तब दो रियासतों का संघर्ष सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लिए योद्धाओं का आपसी संघर्ष था. क्या सच में ऐसा था? अगर यह सत्ता के लिए योद्धाओं का आपसी संघर्षभर था तो अजय देवगन की निंदा करने वालों को बताना चाहिए कि औरंगजेब ने तुलापुर में शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी की भयावह हत्या क्यों करवाई?

अजय देवगन जैसी फिल्म तान्हाजी जैसे योद्धाओं को भारत की सच्ची श्रद्धांजलि है. फिल्म मेकर्स को चाहिए कि इतिहास के भूले बिसरे योद्धाओं की गौरवशाली कहानियों को जनता के बीच लेकर जाए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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