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Sushant Singh Rajput Suicide: छोटे शहर वालों के लिए तो दिल तोड़ने वाली खबर

    • मंजीत ठाकुर
    • Updated: 14 जून, 2020 06:48 PM
  • 14 जून, 2020 06:42 PM
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एक्टर सुशांत सिंह राजपूत (Actor Sushant Singh Rajput Commits Suicide) हैं से थे जो गए हैं. खबर सामने आने के बाद पूरा देश स्तंब्ध है. सवाल ये है कि छोटे शहरों के प्रतिनिधि के रूप में, जो जाकर मुश्किल से मुश्किल चोटी पर परचम लहरा दे क्या लोग आगे उसे याद रख पाएंगे?

जानने वाले कहते हैं सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput suicide) पूर्णिया के पास मलहारा नाम के किसी छोटी जगह के थे. मुंबई (Mumbai) जैसी जगहों में, जहां मुंबई से बाहर की दुनिया बाहरगांव कही जाती है, मलहारा छोड़िए, पूर्णिया भी कम ही लोग जानते हैं. चमकदमक की उस दुनिया में सुशांत सिंह राजपूत पटनावाले कहलाते थे. सवाल यह नहीं है कि सुशांत पटना के थे या पूर्णिया के, महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि छोटे शहरों के प्रतिनिधि के रूप में, जो जाकर मुश्किल से मुश्किल चोटी पर परचम लहरा दे, एक चेहरा और कम हो गया है.

सुशांत सिंह राजपूत उन चेहरों का स्पष्ट प्रतीक थे, जो कुंअर बेचैन की इन पंक्तियों को परदे पर अपने गालों पर पड़ने वाले खूबसूरत गड्ढों और कातिलाना मुस्कान से सजीव करते थे.

दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए,

जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे,

जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब,

तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में,

जिन्हें तुमने जीता है.

पर सुशांत सिंह राजपूत हैं से थे हो गए. फेसबुक पर उनके बारे में जब लिखा तो कई पाठकों ने टिप्पणी की कि काश, कोई 2020 के साल को इस डिलीट कर सकता! राजपूत ने खुदकुशी की और अमूमन लोग खुदकुशी को कायरों का काम कह रहे हैं. कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजयी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर फिल्म बनी थी तो इन्हीं सुशांत सिंह राजपूत को रूपहले परदे पर धोनी का चेहरा बनाया गया था. चेहरा फिट बैठा था और फिल्म हिट हुई थी. इतिहास में अब जब तक महेंद्र सिंह धोनी का नाम रहेगा, परदे पर सुशांत सिंह राजपूत भी उनके चेहरे के प्रतिनिधि के रूप में जीवित रहेंगे.

सुशांत सिंह राजपूत...

जानने वाले कहते हैं सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput suicide) पूर्णिया के पास मलहारा नाम के किसी छोटी जगह के थे. मुंबई (Mumbai) जैसी जगहों में, जहां मुंबई से बाहर की दुनिया बाहरगांव कही जाती है, मलहारा छोड़िए, पूर्णिया भी कम ही लोग जानते हैं. चमकदमक की उस दुनिया में सुशांत सिंह राजपूत पटनावाले कहलाते थे. सवाल यह नहीं है कि सुशांत पटना के थे या पूर्णिया के, महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि छोटे शहरों के प्रतिनिधि के रूप में, जो जाकर मुश्किल से मुश्किल चोटी पर परचम लहरा दे, एक चेहरा और कम हो गया है.

सुशांत सिंह राजपूत उन चेहरों का स्पष्ट प्रतीक थे, जो कुंअर बेचैन की इन पंक्तियों को परदे पर अपने गालों पर पड़ने वाले खूबसूरत गड्ढों और कातिलाना मुस्कान से सजीव करते थे.

दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए,

जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे,

जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब,

तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में,

जिन्हें तुमने जीता है.

पर सुशांत सिंह राजपूत हैं से थे हो गए. फेसबुक पर उनके बारे में जब लिखा तो कई पाठकों ने टिप्पणी की कि काश, कोई 2020 के साल को इस डिलीट कर सकता! राजपूत ने खुदकुशी की और अमूमन लोग खुदकुशी को कायरों का काम कह रहे हैं. कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजयी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर फिल्म बनी थी तो इन्हीं सुशांत सिंह राजपूत को रूपहले परदे पर धोनी का चेहरा बनाया गया था. चेहरा फिट बैठा था और फिल्म हिट हुई थी. इतिहास में अब जब तक महेंद्र सिंह धोनी का नाम रहेगा, परदे पर सुशांत सिंह राजपूत भी उनके चेहरे के प्रतिनिधि के रूप में जीवित रहेंगे.

सुशांत सिंह राजपूत का यूं दुनिया से चले जाना छोटे शहरों में बड़े सपने संजोने वालों के लिए मायूस करने वाला है.

सुशांत सिंह राजपूत के साथ दो विडंबनाएं हुईं. पहली, छोटे शहरों से आकर धाक जमाने वाले और दुनिया जीत लेने वाले जज्बे से भरे लोगों के एक प्रतीक पुरुष अगर खुद महेंद्र सिंह धोनी हैं, तो दूसरे प्रतीक खुद सुशांत सिंह राजपूत भी हैं. इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत की एक और फिल्म छिछोरे भी आई थी.फिल्म छिछोरे में वह अपने ऑनस्क्रीन बेटे के लिए प्रेरणा की तरह सामने आते हैं जो अवसाद में है. अपने उस बेटे को अवसाद से निकालने के लिए वह अपने सहपाठियों को खोज निकालते हैं. पर अपने जीवन के अवसाद, क्योंकि इस लेख के लिखे जाने तक कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुशांत सिंह राजपूत अवसाद में थे, को कम करने के लिए वह कुछ नहीं कर पाए.

क्या सुशांत सिंह राजपूत जैसे फिल्मी नायकों के इस कदर आत्महत्या करने का असर पड़ेगा? हिंदुस्तान जैसी जगह में जहां आगे बढ़ने की राह में तमाम किस्म की दुश्वारियां दरपेश होती हैं, जहां अपनी दसवीं का नतीजा जानने से लेकर ग्रेजुएशन में परीक्षा के लिए फॉर्म भरने तक किसी किरानी की जेब गर्म करनी होती है, जहां चौथी श्रेणी के छोटी-छोटी नौकरियों के लिए पीएचडी जैसी उपाधियां हासिल करने वाले हजारों लोग आवेदन कर देते हैं, जहां नौकरी के लिए हुई परीक्षा में घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले नित दिन उजागर होते रहते हैं, वहां हमारे बच्चों को, खासकर छोटे शहरों और गांवो के लोगों को प्रेरणा कहां से मिलेगी?

यह प्रेरणा इन्हीं विजेताओं से आती है, जो कभी धोनी के रूप में, कभी जहीर खान के रूप में, कभी सुशांत सिंह राजपूत के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं. टीवी से शुरुआत करके सीढी-दर-सीढ़ी सिनेमा की संकरी दुनिया में अपनी जगह बनाना और उस में पैर जमाकर अपने लिए अच्छी भूमिकाएं हासिल करना खासी मशक्कत का काम है.

सुशांत सिंह राजपूत ने यह सब किया था. पर, आज उनकी आत्महत्या की घटना से उनको अपना आदर्श मानने वाला एक बड़ा तबका यह जरूर सोचेगा कि क्या इस भीड़ में जगह बनाकर आगे खड़े होने की जद्दोजहद इतनी जानलेवा है?

हो सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के पीछे कोई और वजह हो. अवसाद न हो, निजी रिश्ते हों या शायद कोई ऐसा दवाब, जो जाहिर न किए जा सकते हो. पर, नायक होते ही से क्या जिम्मेदारी नहीं बढ़ जाती? भीड़ आपकी भूमिका पर सिर्फ तालियां बजाने नहीं आती, वह आपके किरदार का चोला ओढ़कर फिर अपने गांवो-कस्बों में उसे दूसरों तक ले जाती है.

संभवतया सुशांत सिंह राजपूत ने कुंअर बेचैन की कविता का बाकी आधा हिस्सा नहीं पढ़ा था, पढ़ा होता तो शायद हमारा मुस्कुराता हुआ बांका नायक हमारे बीच होता.

जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे,

और कांपोगे नहीं...

जब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क नहीं

सब कुछ जीत लेने में..

और अंत तक हिम्मत न हारने में.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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