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Sirf EK Bandaa Kaafi Hai Movie Review: बेस्ट कोर्ट रूम ड्रामा, जरूर देखना चाहिए

    • तेजस पूनियां
    • Updated: 28 मई, 2023 02:10 PM
  • 28 मई, 2023 02:10 PM
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Sirf EK Bandaa Kaafi Hai Movie Review in Hindi: हिन्दी सिनेमा में ढेरों ऐसी फिल्में आईं हैं जिनमें कोर्ट रूम ड्रामा नजर आता है या कथित बाबाओं की कहानियां नजर आती हैं. लेकिन यह फिल्म उन सभी में अपने को शीर्ष पर ले जाकर खड़ा करती है.

फिल्म के शुरू होते ही पहले सीन में बाप बेटे का संवाद सुनाई पड़ता है जिसमें बाप अपने बच्चे से कह रहा है, ''सब राक्षसों का वध करने वाले शिव जी हैं. जैसे लालच, भूख, वासना सब राक्षसी कामों की शुरुआत यहीं से होती है. बच्चा कहता है प्लीज शिव जी मेरे अंदर के लालच को मार दो. बच्चे के अंदर का लालच क्या है भला? वो तो मन के सच्चे होते हैं न!'' अब फिल्म का दूसरा सीन देखिए जहां वही बाप जो वकील है वह कोर्ट में कहता है, ''मैं रावण को माफ कर देता अगर उसने रावण बन कर सीता का अपहरण किया होता लेकिन उसने साधु का भेस धारण किया था जिसका प्रभाव पूरे संसार के साधुत्व और सनातन पर सदियों तक रहेगा, जिसकी कोई माफी नहीं है.''

दो संवाद यूं तो फिल्म की कहानी सेट करने में पर्याप्त है लेकिन ऐसे ही कई और संवाद भी हैं जो इस फिल्म को लिखने वालों, उसे बनाने वालों पर ही नहीं बल्कि उसे देखने वालों पर भी गर्व करवाने के लिए काफ़ी है. यह फिल्म सीधे तौर पर तो आसाराम बापू का जिक्र नहीं करती किंतु जिस हुलिए के साथ और जिस कहानी को यह दिखाना चाहती है वह जरूर उस कथित बाबा आसाराम से मिलती है जो आज जेल की सलाखों में कैद है. और जिसकी कहानी हर कोई जानता है.

कोर्ट रूम ड्रामा को पर्दे पर बखूबी बयां करती है मनोज बाजपेयी की हालिया रिलीज फिल्म

एक तरफ बाबा जो स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि खोलकर परमार्थ और धर्मार्थ का काम कर रहा है लेकिन साथ ही वह दूसरी तरफ वह छोटी-छोटी बच्चियों को अपने कब्र में जाने के दिन गिनने की उम्र में भी हवस का शिकार बना रहा है. आखिर क्यों कर रहा है वो ऐसा कायदे से इस पर भी शोध होना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे कर लेते हैं ये लोग.

उसी बाबा के खिलाफ कोर्ट में पांच साल तक केस चलता है और सजा सुनाए जाने वाले दिन उस 16 साल की पीड़ित बच्ची का वकील...

फिल्म के शुरू होते ही पहले सीन में बाप बेटे का संवाद सुनाई पड़ता है जिसमें बाप अपने बच्चे से कह रहा है, ''सब राक्षसों का वध करने वाले शिव जी हैं. जैसे लालच, भूख, वासना सब राक्षसी कामों की शुरुआत यहीं से होती है. बच्चा कहता है प्लीज शिव जी मेरे अंदर के लालच को मार दो. बच्चे के अंदर का लालच क्या है भला? वो तो मन के सच्चे होते हैं न!'' अब फिल्म का दूसरा सीन देखिए जहां वही बाप जो वकील है वह कोर्ट में कहता है, ''मैं रावण को माफ कर देता अगर उसने रावण बन कर सीता का अपहरण किया होता लेकिन उसने साधु का भेस धारण किया था जिसका प्रभाव पूरे संसार के साधुत्व और सनातन पर सदियों तक रहेगा, जिसकी कोई माफी नहीं है.''

दो संवाद यूं तो फिल्म की कहानी सेट करने में पर्याप्त है लेकिन ऐसे ही कई और संवाद भी हैं जो इस फिल्म को लिखने वालों, उसे बनाने वालों पर ही नहीं बल्कि उसे देखने वालों पर भी गर्व करवाने के लिए काफ़ी है. यह फिल्म सीधे तौर पर तो आसाराम बापू का जिक्र नहीं करती किंतु जिस हुलिए के साथ और जिस कहानी को यह दिखाना चाहती है वह जरूर उस कथित बाबा आसाराम से मिलती है जो आज जेल की सलाखों में कैद है. और जिसकी कहानी हर कोई जानता है.

कोर्ट रूम ड्रामा को पर्दे पर बखूबी बयां करती है मनोज बाजपेयी की हालिया रिलीज फिल्म

एक तरफ बाबा जो स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि खोलकर परमार्थ और धर्मार्थ का काम कर रहा है लेकिन साथ ही वह दूसरी तरफ वह छोटी-छोटी बच्चियों को अपने कब्र में जाने के दिन गिनने की उम्र में भी हवस का शिकार बना रहा है. आखिर क्यों कर रहा है वो ऐसा कायदे से इस पर भी शोध होना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे कर लेते हैं ये लोग.

उसी बाबा के खिलाफ कोर्ट में पांच साल तक केस चलता है और सजा सुनाए जाने वाले दिन उस 16 साल की पीड़ित बच्ची का वकील पी.सी. सोलंकी अपनी बात रखते हुए भगवान शिव-पार्वती की आपसी बातचीत को आधार बनाकर उस बाबा के लिए फांसी की सज़ा की मांग करता है. और जब यह सीन क्लाइमैक्स में आप देखते हैं फिल्म के तो फिल्म में चल रही अदालत में मौजूद हर शख्स की ही नहीं बल्कि कहीं-न-कहीं आपकी भी आंखें नम होती हैं.

यह फिल्म चूंकि सत्य घटनाओं पर आधारित है और आधी से ज्यादा फिल्म कोर्ट रूम के ड्रामा के रूप में सेट की गई है तो ऐसा कोर्ट रूम ड्रामा देखकर इस फिल्म के बनाने वालों की तारीफ करने का दिल चाहता है. मनोज वाजपेयी इस फिल्म की शान हैं. बल्कि इस फिल्म में वकील के रुप में उन्होंने अभिनय करके जो अपने लिए एक ऊंची रस्सी बांधी है उसे अब भविष्य में लांघ पाना खुद उनके लिए मुश्किल होगा. गर्व ही नहीं इस अभिनेता पर अभिमान होना चाहिए. साथ ही खुद पर भी अभिमान कीजिए इस फिल्म को देखकर कि आप उस दौर में जिंदा हैं जब मनोज बाजपेई अभिनय कर रहे हैं.

हिन्दी सिनेमा में ढेरों ऐसी फिल्में आईं हैं जिनमें कोर्ट रूम ड्रामा नजर आता है या कथित बाबाओं की कहानियां नजर आती हैं. लेकिन यह फिल्म उन सभी में अपने को शीर्ष पर ले जाकर खड़ा करती है. ओटीटी का यह फ़ायदा तो है कि इस तरह की फिल्में घर बैठे देखने को मिलने लगी हैं. वरना सिनेमाघरों में शायद यह उतना तेजी से अपना स्थान ना बना पाती.

इस फिल्म के लेखक दीपक किंगरानी ने इसे बेहद उम्दा तरह से लिखा है. लेकिन फिर भी इसकी लंबाई कुछ थोड़ी कम की जाती या बाबा के बयानों को भी थोड़ा बहुत दिखाया जाता तो और बेहतर होता. हालांकि इस फिल्म के लेखक इससे पहले ‘स्पेशल ऑप्स' और 'स्पेशल ऑप्स 1.5’ जैसी सीरीज लिखकर रोमांच की आग तपाकर में दर्शकों को अच्छे से अपने लेखन से परिचय करवा चुके हैं.

यह सिनेमा लेखन की तारीफ करने लायक फिल्म है जो हमें सदी के बेस्ट कोर्ट रूम ड्रामा को देखने का अवसर देती है. एकदम सटीक लिखी गई पटकथा वाली यह फिल्म बेहद प्रभावशाली है. फिल्म के लेखक की तरह निर्देशक के रुप में 'अपूर्व सिंह कार्की' भी ‘एस्पिरेंट्स’ जैसी टीवीएफ की सीरीज बनाकर प्रभावित करने में कामयाब रहे थे. यही वजह है कि उन्हें सीन बनाने आते हैं और फिल्म का हरेक सीन कायदे से तराशा हुआ लगता है.

बाबा बने सूर्य मोहन के अलावा उनके बेटे के रूप में विवेक सिन्हा भी प्रभावित करने में कामयाब रहे हैं. बल्कि कहना चाहिए कि अदिति सिन्हा आद्रिजा, सूर्या मोहन कुलश्रेष्ठ, कौस्तव सिन्हा, निखिल पांडे आदि सभी ने अपना बराबर योगदान दिया है. प्रोडक्शन, कैमरा, संपादन, कॉस्ट्यूम आदि का भी भरपूर साथ मिला है. और इससे भी बढ़ कर साथ मिला है कलाकारों का. यह एक ऐसी मुक्कमल फिल्म है जिसमें कास्टिंग से लेकर म्यूजिक, बैकग्राउंड स्कोर, कैमरा, एडिटिंग, गाने आदि सभी को तारीफें दी जानी चाहिए. अपने दौर की यह एक ज़रूरी और देखे जाने योग्य फिल्म है. देख डालिए बिना कोई सिनेमाघर में जाए जी 5 के ओटीटी प्लेटफार्म पर.

अपनी रेटिंग - 4.5 स्टार

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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