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अपने समय की ज़रुरी फिल्म है ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’

    • पीयूष पांडे
    • Updated: 24 मई, 2023 03:06 PM
  • 24 मई, 2023 03:06 PM
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सिर्फ एक बंदा काफी है आसाराम के जीवन से प्रेरित है. या कहें साधु के भेष में बैठे शैतान के कुकर्मों से प्रेरित है. आसाराम को एक सामान्य कथावाचक से भगवान और फिर धीरे धीरे उसके अपराधों का कच्चा चिट्ठा खुलने के दौरान शैतान बनते हम सबने देखा है. लेकिन, फिल्म को सिर्फ इसकी कहानी के लिए नहीं देखा जाना चाहिए.

बहुत मुश्किल होता है ऐसी कहानी पर फिल्म बनाना, जिसका अंत सबको पता हो. लेकिन, सिर्फ एक बंदा काफी है के निर्माता-निर्देशक-अभिनेता ने इस चुनौती को जानते हुए ना केवल स्वीकार किया, बल्कि एक बेहतरीन कोर्ट रूम ड्रामा रचकर बता दिया कि आपके पास फिल्म बनाने की सेंसेबिलिटी है तो एक बेहद गंभीर विषय पर भी दिलचस्प फिल्म बनाई जा सकती है. सिर्फ एक बंदा काफी है आसाराम के जीवन से प्रेरित है. या कहें साधु के भेष में बैठे शैतान के कुकर्मों से प्रेरित है. आसाराम को एक सामान्य कथावाचक से भगवान और फिर धीरे धीरे उसके अपराधों का कच्चा चिट्ठा खुलने के दौरान शैतान बनते हम सबने देखा है. लेकिन, फिल्म को सिर्फ इसकी कहानी के लिए नहीं देखा जाना चाहिए. इस फिल्म को देखा जाना चाहिए मनोज बाजपेयी की एक्टिंग के लिए. फिल्म में कई महत्वपूर्ण दृश्य हैं, जहां मनोज ने बेहतरीन अदाकारी की है. लेकिन, जब वो विरोधी पक्ष के वकील के आरोपों को तमतमा कर जवाब देने के बाद शांत होते हैं और उनके होंठ से सटा निचला हिस्सा बहुत धीरे से फड़फड़ाता है तो समझ नहीं आता कि ये एक्टिंग का कौन सा हुनर है? वकील पी सी सोलंकी के किरदार में मनोज ने राजस्थानी लहजा बारीकी से पकड़ा है. ये उनकी तैयारी का हिस्सा होता है. लेकिन, एक ताकतवर शख्स के खिलाफ पूरी ईमानदारी से लड़ते हुए एक वकील के भीतर का डर और उसकी जीजिविषा को मनोज ने जिस ईमानदारी से पर्दे पर उतारा है, वो बताता है कि मनोज बाजपेयी क्यों देश के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में एक हैं.

सिर्फ एक बंदा काफी है में मनोज बाजपेयी ने बेहतरीन एक्टिंग की है

वैसे, इस मौके पर मुझे अलीगढ़ के मनोज बाजपेयी भी याद आते हैं. समलैंगिक लोगों की पार्टी में प्रोफेसर सिरस के रुप में जिस अदा के साथ मनोज बाजपेयी मुस्कुराते हैं, वो मेरा मानना है कि एक्टिंग से आगे की चीज़ है....

बहुत मुश्किल होता है ऐसी कहानी पर फिल्म बनाना, जिसका अंत सबको पता हो. लेकिन, सिर्फ एक बंदा काफी है के निर्माता-निर्देशक-अभिनेता ने इस चुनौती को जानते हुए ना केवल स्वीकार किया, बल्कि एक बेहतरीन कोर्ट रूम ड्रामा रचकर बता दिया कि आपके पास फिल्म बनाने की सेंसेबिलिटी है तो एक बेहद गंभीर विषय पर भी दिलचस्प फिल्म बनाई जा सकती है. सिर्फ एक बंदा काफी है आसाराम के जीवन से प्रेरित है. या कहें साधु के भेष में बैठे शैतान के कुकर्मों से प्रेरित है. आसाराम को एक सामान्य कथावाचक से भगवान और फिर धीरे धीरे उसके अपराधों का कच्चा चिट्ठा खुलने के दौरान शैतान बनते हम सबने देखा है. लेकिन, फिल्म को सिर्फ इसकी कहानी के लिए नहीं देखा जाना चाहिए. इस फिल्म को देखा जाना चाहिए मनोज बाजपेयी की एक्टिंग के लिए. फिल्म में कई महत्वपूर्ण दृश्य हैं, जहां मनोज ने बेहतरीन अदाकारी की है. लेकिन, जब वो विरोधी पक्ष के वकील के आरोपों को तमतमा कर जवाब देने के बाद शांत होते हैं और उनके होंठ से सटा निचला हिस्सा बहुत धीरे से फड़फड़ाता है तो समझ नहीं आता कि ये एक्टिंग का कौन सा हुनर है? वकील पी सी सोलंकी के किरदार में मनोज ने राजस्थानी लहजा बारीकी से पकड़ा है. ये उनकी तैयारी का हिस्सा होता है. लेकिन, एक ताकतवर शख्स के खिलाफ पूरी ईमानदारी से लड़ते हुए एक वकील के भीतर का डर और उसकी जीजिविषा को मनोज ने जिस ईमानदारी से पर्दे पर उतारा है, वो बताता है कि मनोज बाजपेयी क्यों देश के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में एक हैं.

सिर्फ एक बंदा काफी है में मनोज बाजपेयी ने बेहतरीन एक्टिंग की है

वैसे, इस मौके पर मुझे अलीगढ़ के मनोज बाजपेयी भी याद आते हैं. समलैंगिक लोगों की पार्टी में प्रोफेसर सिरस के रुप में जिस अदा के साथ मनोज बाजपेयी मुस्कुराते हैं, वो मेरा मानना है कि एक्टिंग से आगे की चीज़ है. पीसी सोलंकी के किरदार को जीते हुए भी मनोज ने एक दो मौकों पर ऐसी भाव भंगिमाएं दी हैं, जो एक्टिंग से आगे की बात है. पीड़ित लड़की नू के किरदार में आद्रिजा ने भी शानदार काम किया है, क्योंकि आधी फिल्म में उनका चेहरा ढंका दिखाया गया है और सिर्फ आंखों से खुद को अभिव्यक्त करना आसान काम नहीं है. इसके अलावा, जब आपके सामने मनोज बाजपेयी जैसा अभिनेता हो तो परफोर्म करने की पहली चुनौती ही आपको बिखेर सकती है, लेकिन आद्रिजा ने ऐसा नहीं होने दिया. विपिन शर्मा ने बचाव पक्ष के वकील के रुप में अच्छा काम किया है.

अपूर्व सिंह कार्की प्रतिभावान युवा निर्देशक हैं, जिन्होंने एस्पीरेंट्स जैसी शानदार वेबसीरिज डायरेक्ट की है. लेकिन, इस फिल्म में एक युवा निर्देशक जब दूसरे तीसरे सीन में ही बाबा साहब अंबेडकर की चौराहे पर लगी मूर्ति के बगल से एक ईमानदार वकील के स्कूटर को गुजरते हुए दिखाता है तो समझ आ जाता है कि उसे बिंबों से खेलना आता है, और एक ताकतवर के खिलाफ सच में लड़ाई उसका हथियार सिर्फ और सिर्फ कानून है.

दीपक किंगरानी लिखित कहानी नयी नहीं है, लेकिन पटकथा लाजवाब है. कोर्टरूम ड्रामा लगातार बांधे रखता है, और एक लिहाज से पूरी फिल्म कोर्टरूम ड्रामा ही है.इस फिल्म को बेहतरीन एक्टिंग और वास्तविक कोर्टरूम ड्रामा के लिए तो देखा जाना ही चाहिए, लेकिन इसलिए भी देखा जाना चाहिए ताकि देश के करोड़ों अंधभक्तों की आंखों पर बंधी पट्टी खुल सके.

बाबाओं-मौलानाओं को ईश्वर-अल्लाह मान लेने वाले करोड़ों अंधभक्तों के लिए यह कहानी एक सबक की तरह है, जहां आस्था के आड़ में शोषण का खेल चलाने वाला एक बाबा बेनकाब होता है तो वो सबक देता है कि भक्ति को अंधविश्वास में तब्दील मत होने दो.ये कहानी सबक है कि ऐसे मां-बाप के लिए, जो अपने अंधविश्वास के चक्कर में अपने बच्चों को बाबाओं के चंगुल में फंसने  को मजबूर करते हैं.

और ये कहानी इसलिए भी देखी जानी चाहिए ताकि पता चल सके कि एक बार धोखा हो गया तो सच की लड़ाई कितनी मुश्किल होती है. एक ताकतवर शख्स कैसे वकील खरीदता है, कैसे गवाहों को मरवाता है और कैसे बड़े बड़े वकीलों की लाइन लगा देता है कि एक आम व्यक्ति और आम वकील के लिए केस जीतना लगभग नामुमकिन होता है.

इस कहानी में एक अनकही बात और है. वो ये कि कोई शख्स अगर अपने पेशे से जुड़ी बारीक जानकारी रखता है तो उसे मात देना आसान नहीं है. पी सी सोलंकी भले जोधपुर में प्रैक्टिस करते हैं, लेकिन फिल्म ने दिखाया है कि उन्हें कानून के प्रावधानों की बेहद बारीक जानकारी है और इसलिए जब उनके सामने राम जेठमलानी, सुब्रमण्यन स्वामी और सलमान खुर्शीद जैसे वकील भी आ जाते हैं तो वो उन्हें अपने तर्कों से परास्त कर देते हैं.

बहरहाल, आसाराम के खिलाफ पीड़ित पक्ष को भले पी सी सोलंकी जैसा ईमानदार वकील मिल गया हो, जिसका ईमान करोड़ों रुपए ऑफर होने के बावजूद नहीं डगमगाया. लेकिन, ऐसा हर पीड़ित व्यक्ति के साथ नहीं होता.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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