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पठान के साथ 'साइलेंट रेबिलियन' शाहरुख की एक सिनेमाई यात्रा तो पूरी हुई, अब आगे का खेल क्या है?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 25 जनवरी, 2023 10:55 PM
  • 25 जनवरी, 2023 09:19 PM
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मैं हूं ना से पठान तक शाहरुख खान की फिल्मों में एक निरंतरता और कनेक्शन नजर आता है. ऐसा लगता है जैसे शाहरुख मुसलमानों की छवि बदलने निकले हैं लेकिन नई-नई चीजें भी स्थापित कर रहे हैं. बावजूद कि वह रत्तीभर भी भारत का विचार नहीं है लेकिन विजुअल के जरिए वह भागीरथ प्रयास करते तो दिखते हैं. शाहरुख सच में एक शांत विद्रोही ही हैं जैसा कि एक पत्रिका ने कवर छापकर बताया भी है.

खिलाफत आंदोलन के 100 साल पूरे हो चुके हैं. दुनियाभर में खिलाफत के 100 साल पूरे होने पर एक निर्णायक अंगड़ाई दिख रही है. जियो पॉलिटिक्स में तो दिख रहा. यूरोप में जो धार्मिक टकराव बढ़ा है, वह भी उसी का नतीजा है. राजनीति, समाज और कला के लिहाज से चीजों की क्रोनोलॉजी देखने पर बेहतर पता चल जाता है. अब सवाल है कि क्या भारत पर इसका असर है जो खिलाफत का सबसे बड़ा केंद्र बना गया था? क्या 1947 के बाद देश एक और विभाजन की तरफ बढ़ रहा है? फिलहाल कोई निष्कर्ष देना जल्दबाजी होगी. लेकिन मौजूदा हालात में तमाम चीजों का संकेत बहुत ठीक नहीं हैं. चाहें तो खिलाफत के 100 साल को लेकर इसी प्लेटफॉर्म पर कई लंबे विश्लेषणों को पढ़ सकते हैं. खिलाफत को आईचौक के कीवर्ड के साथ सर्च करके देख सकते हैं.

भारत में चीजें लगभग उसी तरह सामने आ रही हैं जैसे 100 साल पहले थीं. केवल तौर तरीके बदले हुए हैं. बावजूद इतिहास में दूसरी बार धार्मिक आधार पर बंटवारे का सिद्धांत गढ़ा जा चुका है. यह आजादी के बाद से जमीन पर खिलाफत के दूसरे एडिशन के लिए काम करता रहा. संकेत भी लगातार मिलते रहे. बावजूद उसपर चर्चा के वक्त ऐसा शोर किया जाता था कि लोग ध्यान ही नहीं दे पाते थे. अब भी जब चर्चा की कोशिश होती है, अचानक से कृतिम शोर पैदा किया जाता है. लेकिन अब राजनीति में मोदी युग के आगमन में उसे स्पष्ट देखा जा सकता है और अपने आसपास महसूस भी किया जा सकता है.

इसमें राजनीति, इतिहास, अकादमिक संस्थानों की, कला की भूमिका किस तरह अन्यायपूर्ण रही- उसे समझना मुश्किल नहीं. अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ रिटायर्ड प्रोफ़ेसर पुष्पेश पंत ने अभी हाल ही में लल्लनटॉप पर रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के ज्ञान और विजन, रामपुर घराने के अशराफ मंत्री की कारस्तानी को संकेतों के सहारे बहुत संक्षिप्त में समझा दिया है. यह जरूरी इंटरव्यू है और कम से कम एकेडमिक्स और पत्रकारों को एक बार इससे होकर ही गुजरना चाहिए.

खिलाफत आंदोलन के 100 साल पूरे हो चुके हैं. दुनियाभर में खिलाफत के 100 साल पूरे होने पर एक निर्णायक अंगड़ाई दिख रही है. जियो पॉलिटिक्स में तो दिख रहा. यूरोप में जो धार्मिक टकराव बढ़ा है, वह भी उसी का नतीजा है. राजनीति, समाज और कला के लिहाज से चीजों की क्रोनोलॉजी देखने पर बेहतर पता चल जाता है. अब सवाल है कि क्या भारत पर इसका असर है जो खिलाफत का सबसे बड़ा केंद्र बना गया था? क्या 1947 के बाद देश एक और विभाजन की तरफ बढ़ रहा है? फिलहाल कोई निष्कर्ष देना जल्दबाजी होगी. लेकिन मौजूदा हालात में तमाम चीजों का संकेत बहुत ठीक नहीं हैं. चाहें तो खिलाफत के 100 साल को लेकर इसी प्लेटफॉर्म पर कई लंबे विश्लेषणों को पढ़ सकते हैं. खिलाफत को आईचौक के कीवर्ड के साथ सर्च करके देख सकते हैं.

भारत में चीजें लगभग उसी तरह सामने आ रही हैं जैसे 100 साल पहले थीं. केवल तौर तरीके बदले हुए हैं. बावजूद इतिहास में दूसरी बार धार्मिक आधार पर बंटवारे का सिद्धांत गढ़ा जा चुका है. यह आजादी के बाद से जमीन पर खिलाफत के दूसरे एडिशन के लिए काम करता रहा. संकेत भी लगातार मिलते रहे. बावजूद उसपर चर्चा के वक्त ऐसा शोर किया जाता था कि लोग ध्यान ही नहीं दे पाते थे. अब भी जब चर्चा की कोशिश होती है, अचानक से कृतिम शोर पैदा किया जाता है. लेकिन अब राजनीति में मोदी युग के आगमन में उसे स्पष्ट देखा जा सकता है और अपने आसपास महसूस भी किया जा सकता है.

इसमें राजनीति, इतिहास, अकादमिक संस्थानों की, कला की भूमिका किस तरह अन्यायपूर्ण रही- उसे समझना मुश्किल नहीं. अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ रिटायर्ड प्रोफ़ेसर पुष्पेश पंत ने अभी हाल ही में लल्लनटॉप पर रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के ज्ञान और विजन, रामपुर घराने के अशराफ मंत्री की कारस्तानी को संकेतों के सहारे बहुत संक्षिप्त में समझा दिया है. यह जरूरी इंटरव्यू है और कम से कम एकेडमिक्स और पत्रकारों को एक बार इससे होकर ही गुजरना चाहिए.

दीपिका पादुकोण और शाहरुख खान.

खैर, खिलाफत को लेकर कोई मुझसे पूछे कि क्या यह दोहराया जा रहा है? मैं कहूंगा- हां. और साथ-साथ यह भी कहूंगा कि आप माने या ना माने, मगर खिलाफत का खौफनाक मंजर बिल्कुल भारत के मुहाने पर खड़ा है. खिलाफत पार्ट 1 में भी रामपुर घराने और लिखे-पढ़े मुस्लिम कलाकारों-साहित्यकारों का बहुत बड़ा योगदान था. निश्चित ही दूसरे पार्ट में भी उनका योगदान किसी मायने में कम नहीं है बल्कि ज्यादा खतरनाक है.

असल में 800 साल के राज के आधार पर देश को अपनी प्रॉपर्टी समझने वाले लोगों की कमी नहीं है देश में. भारतवंशी मुसलमानों के मानस को ब्रेन वाश किया जा चुका है कि भारत पर वाजिब हक़ सिर्फ मुसलमानों का है. और इसलिए है कि उन्होंने यहां राज किया था. उन्हें मुल्क शरिया चाहिए. सबका नेतृत्व वही अशराफ धड़ा कर रहा है जिसकी कोशिशों की वजह से पाकिस्तान बना था. और यह उसी द्विराष्ट्रवाद का नतीजा है कि अब देश के तमाम इलाकों में जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है- शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश घोषित किए जा रहे हैं. प्रार्थनाएं बदली जा रही हैं. स्थानीय बोली, भाषा, रीति रिवाज, खानपान और परंपराओं के खिलाफ मौलानाओं के फतवे आ रहे हैं. लगातार. बिहार से केरल तक समूचे देश को कर्बला बनाने की तैयारी है. बावजूद खामोशी गहरी है. सारी ऊर्जा रामचरित मानस को आग में डालने या नहीं डालने पर है. अब मूर्खों को कौन समझाए. जो मानस पांच सौ साल से लगातार जलाने के बावजूद ख़त्म नहीं हुआ, वह अब क्या ही ख़त्म होगा. पहले तो सामने की चीजों को देखना चाहिए जिसके लिए बाद में वक्त मिलना असंभव हो जाएगा. 

सबकुछ हो रहा है. और यह अटल सत्य है कि अशराफ ने भारतवंशी मुसलमानों के लिए एक भारत विरोधी इस्लामिक राष्ट्रवाद को स्वीकार्य बना दिया है. इस राष्ट्रवाद में महापुरुष, भाषा, बोली, रीति रिवाज और विदेश नीति सबकुछ शीशे की तरह साफ़ है. मजेदार यह है कि सबकुछ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत ही हुआ/हो रहा और भनक तक नहीं लगी. बल्कि उसे चादर से ढांपा जा रहा है. देश की सभी संस्थाओं का जमकर मनमुताबिक इस्तेमाल किया गया. सिनेमा का भी इसमें बहुत बड़ा योगदान रहा. एक-एक व्यक्ति केस स्टडी की तरह सामने निकलकर है.

शाहरुख खान को ही ले लीजिए. "मैं हूं ना" से "पठान" तक उनकी एक यात्रा लगभग पूर्ण होने को है. शाहरुख की फिल्मों को देखेंगे तो उसमें एक अलग ही भारत नजर आएगा. भारत का मुसलमान एक अलग ही रंग में दिखेगा. वह ऐसा भारत है जिसमें बहुत से लोगों को अपना भारत नहीं दिखेगा. यह कोई ताज्जुब की बात नहीं. फिल्मों को देखें तो ऐसा लगता है जैसे वह सिनेमाई विजुअल के जरिए किसी बड़ी मुहिम पर निकले दिखते हैं. शुरू-शुरू की फिल्मों में नहीं पकड़ सकते. लेकिन पठान तक बिल्कुल साफ नजर आने लगता है.

कला और अभिव्यक्ति की एक सीमा होती है, खान के बॉलीवुड ने हमेशा मर्यादा का उल्लंघन किया  

गुजरात दंगों के बाद इसकी शुरुआत दिखती है. साल 2004 में आई शाहरुख की मैं हूं ना (शाहरुख की पत्नी ने खुद प्रोड्यूस किया) को इस कड़ी में रख सकते हैं. यह फिल्म भारत-पाकिस्तान के बीच सामान्य रिश्तों को दिखाने वाली फिल्म थी. बहुत मनोरंजक तरीके से बनाई गई थी. इसमें नायक या खलनायक मुसलमान नहीं हैं. इसे देखकर समझ में आता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच असल में ज्यादा कुछ खराब नहीं है. जो खराब है वह तो दोनों तरफ के 'कुछ' अराजनीतिक लोगों की निजी वजहों की वजह से है. दोनों तरफ ऐसे आतंकी हैं. फिल्म में मुख्य विलेन सुनील शेट्टी हैं. वह सेना के रिटायर्ड अफसर हैं और निजी वजहों से पाकिस्तान से बदला लेने के लिए आतंकी बन जाते हैं.

स्वाभाविक है कि पाकिस्तान में भी इसी तरह के आतंकी दिखाए गए होंगे. क्या हम सपने में भी कल्पना कर सकते हैं कि भारतीय सेना के अनुशासित अफसर सांगठनिक रूप से देश विरोधी कृत्यों में शामिल होंगे- जैसे मैं हूं ना में दिखाया गया? और क्या पाकिस्तान में उसी तरह चीजें हैं जैसे- मैं हूं ना में दिखाई गई. और भारत में ऐसे अफसर रहें भी हों तो क्या पॉपुलर धारा में फिल्म बनाकर उसका यूं सरलीकरण किया जा सकता है? पॉपुलर सिनेमा के प्रति मेकर्स की जिम्मेदारी है. मैं हूं ना में जो किया गया वह एक तरह से संप्रभुता पर सरासर हमला है. क्यों है? इस पर विस्तार से बात होनी चाहिए. कला की भी एक सीमा होती है और बॉलीवुड को उसकी मर्यादा का ज्ञान नहीं.

आपने मैं हूं ना नहीं देखी. वर्ना आपको बिल्कुल ताज्जुब नहीं होता कि दिग्विजय सिंह, सर्जिकल स्ट्राइक पर भला कैसे सवाल पूछ सकते हैं? राहुल गांधी बयान की आलोचना करते हैं तो गांधी परिवार के राजकुमार की तारीफ़ में आप भूल जाते हैं कि कुछ महीने पहले तक वह खुद भी सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा अटैक और भारतीय सेना को लेकर निचले दर्जे के जितने बयान हो सकते थे- हमेशा देते रहे हैं. कभी परहेज नहीं किया. अभी भी आपको लगता है कि कांग्रेस में राहुल की मर्जी के खिलाफ कोई नेता बयान देकर पार्टी में बना रह सकता है तो आप मूर्ख हैं और कुछ नहीं. आरजेडी, जेडीयू और समाजवादी पार्टी से भी कुछ विवादित बयान आए हैं. वह भी दिग्विजय-राहुल पैटर्न वाले ही हैं. खैर.

विरोध तो धोनी ने भी झेला, पर उनकी बायोपिक में विक्टिम कार्ड नहीं था

शाहरुख की एक और फिल्म आई थी साल 2007 में चक दे इंडिया. यह एक कमाल की स्पोर्ट्स ड्रामा थी. भारत में आम-ख़ास मुसलमानों को किस तरह के हालात से गुजरना पड़ता है- बहुत भावुक कहानी दिखाई गई है. कई जगह भावनाओं में बहकर रो-रोकर हाल बुरा हो जाता है. आप सिनेमाघर में बैठकर इतना रोते हैं कि तौलिया भीग जाता है और दूसरे तौलिए की जरूरत पड़ती है. कहानी एक योग्य हॉकी खिलाड़ी कबीर खान की है. एक चूक से मिली हार में उसे अपने मजहब की वजह से देशद्रोही जैसी टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है. तमाम तरह से अपमान किया जाता है. हॉकी बोर्ड से लेकर समाज तक ज्यादातर लोगों का रवैया एक जैसा है. कबीर बस एक मौके की तलाश में है कि वह अपनी क्षमता और देशभक्ति सिद्ध कर सके. उसे कैसे मौका मिलता है आपको पता ही होगा.

चक दे इंडिया के कबीर खान की कहानी को मुसलमानों की सच्ची दास्तान की तरह विजुअलाइज किया गया. बात दूसरी है कि हार के बाद कबीर को जिस तरह के हालात से गुजरना पड़ा है देश में लगभग सभी खिलाड़ियों के जीवन में ऐसे हालत दिखे हैं. धोनी, सचिन, सहवाग, कैफ, जहीर खान, कपिल, अजहर, जडेजा. अनगिनत मामले हैं. हालिया मामला अर्शदीप सिंह का भी ले सकते हैं जिन्हें एक मैच की वजह से खालिस्तानी तक कहा गया. नैरेटिव कहां से आया यह भी बताने की जरूरत नहीं है.

लेकिन ऐसी एक भी फिल्म नहीं दिखी, जिसमें चक दे इंडिया (यशराज फिल्म्स) जैसी कहानी बनाई गई. जबकि कई स्पोर्ट्स ड्रामा आ चुकी हैं अबतक. तमाम बायोपिक बन चुके हैं. धोनी पर बनी बायोपिक में भी एक सीक्वेंस में लोगों के गुस्से को जगह दी गई. पर विक्टिम कार्ड नहीं खेला गया. वह एक सीन भर का मामला था. उसे एक सीन भर में निपटा दिया गया. लेकिन सिर्फ चक दे इंडिया के लिए यह विषय व्यापक बना. और उन्होंने कमाल की फिल्म बनाई. क्यों ना माना जाए कि चीजों का इस्तेमाल कर व्यापक रूप से जनमानस तैयार किया गया.

आप कह सकते हैं- यह तो सिनेमा भर है. पर ईमानदारी से क्या इसे सिनेमाभर कहा जा सकता है. और सिर्फ एक समुदाय के लिए वह उत्पीडन का विषय कैसे हो सकता है? तब जब मोदी देश के प्रधानमंत्री भी नहीं हैं. देश में यूपीए 1 की सरकार थी. धोनी की बायोपिक और चक दे इंडिया के जरिए भी भारत में पनप रहे एक अद्भुत राष्ट्रवाद की जमीन को समझा जा सकता है.

माई नेम इज खान शाहरुख के करियर की सबसे निर्दोष फिल्म है

इसी तरह साल 2013 में एक्टर की "माई नेम इज खान" को ही देख लीजिए. भारत सिलसिलेवार आतंकी हमलों से लहूलुहान है. मुंबई पर अटैक होता है. अपनी सरकार को बचाने के लिए कांग्रेस के तमाम नेता जिनमें दिग्विजय सिंह भी अहम थे- कहते हैं कि हमलों के पीछे RSS का हाथ है. इसी पर आधारित एक किताब का भी उदघाटन करते हैं. महेश भट्ट भी RSS का कनेक्शन पकड़ लेते हैं. हमलों के पीछे कौन था- शायद ही बताने की जरूरत है. 9/11 के बाद अमेरिका समेत पूरी दुनिया आतंकी हमलों से परेशान है.

यह सच है कि अमेरिका ने मुसलमानों को खोज-खोजकर पूछताछ की. लोग जेलों में रखे गए. और बहुत सारे निर्दोष लोगों पर आंच पड़ी. यहां तक कि सिख और हिंदू भी निशाना बने थे. क्रॉस चेक कर लीजिए तथ्यों को. लेकिन शाहरुख की 9/11 की घटना के सालों बाद करण जौहर के प्रोडक्शन में 'माई नेम इज खान' में दिखाया जाता है कि कैसे आतंकी हमलों के बाद एक भारतीय मुसलमान जो एक सज्जन भोला युवक भी है, क्या कुछ नहीं झेलना पड़ा. उसकी अपनी पत्नी, उसका समाज भी उसे संदिग्ध रूप से देखता है. वह निर्दोष युवक "माई नेम इज खान एंड आई एम नॉट अ टेररिस्ट" कहता घूम रहा है.

आतंकी की कहानी से प्यार, प्रेरक मुसलमानों की कहानी से संकोच

साल 2017 में आई रईस में तो सारी हदें तोड़ दी गई. लतीफ़ के निर्मातों में फरहान अख्तर और गौरी खान शामिल हैं. लतीफ़ असल में गुजरात का एक दुर्दांत अपराधी था. उसकी कहानी को रॉबिनहुड की तरह परोसा गया. हर तरह के अपराध में शामिल एक सफ़ेदपोश आतंकी जो एक ईमानदार अफसर की वजह से एनकाउन्टर में मारा गया था. शाहरुख ने उसे महानायक बना दिया. रईस में क़ानून व्यवस्था का मजाक उड़ाया जाता है. कामयाबी के लिए गलत सही के फर्क को ख़त्म कर दिया जाता है.

यह फिल्म भी असल में यही स्थापित करती है कि मजहबी आधार पर मुसलमानों को भारत में किस तरह की असह्य पीड़ा से रोज गुजरना पड़ता है. बिल्कुल लिंचिंग नैरेटिव की तरह. कि भीड़ के जरिए मुसलमानों की हत्याएं हुई. जबकि ऐसी कोई लिंचिंग नहीं थी जिसमें मुसलमान विक्टिम के साथ समूचा देश ना खड़ा हुआ हो. जबकि जबकि दूसरे जातीय धार्मिक समूहों ने भी घृणा के आधार पर इसी तरह की मुठभेड़ों का सामना किया. यह लगभग वैसे ही है कि विकास दुबे और शहाबुद्दीन जैसे माफियाओं पर एक भावुक कहानी बना दी जाए.

पठान तो शाहरुख की सिनेमाई यात्रा में एक पड़ाव की तरह नजर आ रही है. पाकिस्तान का एक सॉफ्ट रूप बनाने की कोशिश थी. वह फिल्म में बिल्कुल स्पष्ट है. आतंकी रॉ का ही पूर्व एजेंट है जो निजी खुन्नस में भारत का दुश्मन बन बैठा है. ग्लोबल टेररिज्म की पूरी परिभाषा अलग है. भारत वैश्विक आतंक के रूपरंग को भला कैसे भूला सकता है. हैरानी की बात यह है कि मुसलमानों को जिस तरह विक्टिम की तरह प्रस्तुत किया जाता है- उसके उलट भारतीय मुसलमानों की प्रेरक कहानियां भरी पड़ी हैं. मगर बॉलीवुड के खानों को किसी ऐसे मुलसमान की कहानी में दिलचस्पी नहीं है. वे आतंकी पर फिल्म बना सकते हैं मगर किसी प्रेरक मुसलमान पर फिल्म बनाने से संकोच करते हैं. ठीक वैसे ही जैसे वे अकबर पर हर दौर में फिल्म बनाते हैं लेकिन महाराणा प्रताप का नंबर नहीं आता.  

अभी हाल में एक पत्रिका ने शाहरुख में 'साइलेंट रेबिलियन' मैटेरियल देखा और अपने कवर पर जगह दी. शाहरुख सच में साइलेंट ररेबिलियन हैं. पठान तक उनकी यात्रा उनमें साइलेंट रेबिलियन मैटेरियल को पुख्ता करने के लिए पर्याप्त है. अब देखना है कि वे आगे क्या-क्या करते हैं. वैसे धार्मिक आधार पर सबकुछ अलग किया जा चुका है. बस कमी यह रह गई है कि किसी ने अलग से देश नहीं मांगा. और मांगने की जरूरत क्यों ही हो? जब बिहार में जेडीयू का नेता सरेआम कह देता है कि भारत के हर शहर को कर्बला बना देंगे- यानी उसका दावा पुख्ता है. उसे मांगने की भी जरूरत नहीं अब.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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