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Roohi Movie Review: हॉरर और कॉमेडी के गठजोड़ ने स्टोरी को उलझा कर रख दिया!

    • सिद्धार्थ अरोड़ा सहर
    • Updated: 12 मार्च, 2021 01:22 PM
  • 12 मार्च, 2021 01:22 PM
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राजकुमार राव और जान्हवी कपूर स्टारर फिल्म रूही रिलीज हो गई. कहानी बागड़पुर से शुरु होती है. जहां ज़लज़ला नामक न्यूज़पेपर चलाते गुनिया भाई टॉप के बदमाश हैं और दुल्हनों को किडनैप कर उनकी शादी कराते हैं. इन्हीं के अंडर काम कर रहे भंवरा और कट्टनी मस्त मौला हाज़िर जवाबी प्रेस रिपोर्टर हैं.

औरत के साथ सबसे बड़ी समस्या है उसका औरतों से ही जलना, उन्हीं से नफ़रत करना. कहते ही हैं, औरत औरत की दुश्मन न होती तो संसार में कोई आदमी किसी औरत को तंग न कर पाता... कहानी बागड़पुर से शुरु होती है. जहां ज़लज़ला नामक न्यूज़पेपर चलाते गुनिया भाई (मानव विज) टॉप के बदमाश हैं और दुल्हनों को किडनैप कर उनकी शादी कराते हैं. इन्हीं के अंडर काम कर रहे भंवरा (राजकुमार) और कट्टनी (वरुण) मस्त मौला हाज़िर जवाबी प्रेस रिपोर्टर (?) हैं. भंवरा जहां रिपोर्टिंग करता है वहीं कट्टनी एक हॉरर कॉलम लिखता है, पर उसका सारा इंटरेस्ट एस्ट्रोफिजिक्स में है. ट्विस्ट तब बनता है जब इन दोनों को पहली किडनैपिंग के लिए बोला जाता है और वो किडनैपिंग रूही (जान्हवी) की करनी होती है. यहां ट्विस्ट टर्न्स और लाफ्टर की फुल डोज़ के साथ, कहानी एक हिल स्टेशन पहुंचती है न नेटवर्क हैं और न ही कोई फैसिलिटीज़, बस भंवरा और कट्टनी हैं, और हैं रूही और आफ़ज़ा, रूही के अंदर बैठी ही एक चुड़ैल.

अपने में कॉमेडी और सस्पेंस दोनों लिए हुए है राजकुमार राव और जान्हवी कपूर की फिल्म रूही

यहां हॉरर कम कॉमेडी ज़्यादा है. लव ट्राइएंगल है. अंग्रेज़ी शब्दों को ग़लत तरह से बोल हाज़िर जवाबी वन लाइनर्स हैं और अनएक्सपेक्टेड क्लाइमेक्स है.

डायरेक्शन

डायरेक्शन जब आर्टिस्ट्स के टैलेंट पर पूरी तरह निर्भर हो जाए तो ख़लता है. हार्दिक मेहता ने शुरुआत अच्छी की, फिर इंटरवल आते-आते एवरेज हुए और इंटरवल के बाद उन्होंने फिल्म बिल्कुल अपनी पकड़ से निकल जाने दी. मृगदीप सिंह लाम्बा (जो प्रोड्यूसर भी हैं) और गौतम मेहरा का स्क्रीनप्ले बहुत लचर था.

वह लाइनर, पंचेस पर इतना फोकस था कि कहानी कहां निकल रही है और निकलकर कहीं पहुंच भी रही है कि नहीं, इससे कोई लेना देना नहीं...

औरत के साथ सबसे बड़ी समस्या है उसका औरतों से ही जलना, उन्हीं से नफ़रत करना. कहते ही हैं, औरत औरत की दुश्मन न होती तो संसार में कोई आदमी किसी औरत को तंग न कर पाता... कहानी बागड़पुर से शुरु होती है. जहां ज़लज़ला नामक न्यूज़पेपर चलाते गुनिया भाई (मानव विज) टॉप के बदमाश हैं और दुल्हनों को किडनैप कर उनकी शादी कराते हैं. इन्हीं के अंडर काम कर रहे भंवरा (राजकुमार) और कट्टनी (वरुण) मस्त मौला हाज़िर जवाबी प्रेस रिपोर्टर (?) हैं. भंवरा जहां रिपोर्टिंग करता है वहीं कट्टनी एक हॉरर कॉलम लिखता है, पर उसका सारा इंटरेस्ट एस्ट्रोफिजिक्स में है. ट्विस्ट तब बनता है जब इन दोनों को पहली किडनैपिंग के लिए बोला जाता है और वो किडनैपिंग रूही (जान्हवी) की करनी होती है. यहां ट्विस्ट टर्न्स और लाफ्टर की फुल डोज़ के साथ, कहानी एक हिल स्टेशन पहुंचती है न नेटवर्क हैं और न ही कोई फैसिलिटीज़, बस भंवरा और कट्टनी हैं, और हैं रूही और आफ़ज़ा, रूही के अंदर बैठी ही एक चुड़ैल.

अपने में कॉमेडी और सस्पेंस दोनों लिए हुए है राजकुमार राव और जान्हवी कपूर की फिल्म रूही

यहां हॉरर कम कॉमेडी ज़्यादा है. लव ट्राइएंगल है. अंग्रेज़ी शब्दों को ग़लत तरह से बोल हाज़िर जवाबी वन लाइनर्स हैं और अनएक्सपेक्टेड क्लाइमेक्स है.

डायरेक्शन

डायरेक्शन जब आर्टिस्ट्स के टैलेंट पर पूरी तरह निर्भर हो जाए तो ख़लता है. हार्दिक मेहता ने शुरुआत अच्छी की, फिर इंटरवल आते-आते एवरेज हुए और इंटरवल के बाद उन्होंने फिल्म बिल्कुल अपनी पकड़ से निकल जाने दी. मृगदीप सिंह लाम्बा (जो प्रोड्यूसर भी हैं) और गौतम मेहरा का स्क्रीनप्ले बहुत लचर था.

वह लाइनर, पंचेस पर इतना फोकस था कि कहानी कहां निकल रही है और निकलकर कहीं पहुंच भी रही है कि नहीं, इससे कोई लेना देना नहीं था.

एक्टिंग

एक्टिंग ही इस फ़िल्म का प्लस पॉइंट है. राजकुमार राव और वरुण शर्मा जहां - जहां स्क्रीन पर आए हैं, वहां सीन ड्राप होने का सवाल ही नहीं बना है. राजकुमार फिर टंग ट्विस्टिंग डायलॉग्स के साथ बहुत हंसाते हैं और वरुण शर्मा अपनी बॉडी लैंग्वेज, बेसिरपैर की कॉमेडी और कॉमिक टाइमिंग से मनोरंजन करते रहते हैं. जान्हवी कपूर से ज़्यादा काम वीएफएक्स और मेकअप ने किया है. उनके हिस्से 2 - 4 डायलॉग्स ही हैं, वुमन सेंट्रिक फिल्म में उन्हें लीड रोल देकर उनके कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थोप दी गयी है जो उनसे नहीं संभली. मानव विज बहुत जमे हैं. गौतम मेहरा और आदेश भारद्वाज कहां किधर हैं ये पता लगने से पहले उनका करैक्टर ख़त्म हो चुका है.

बुढ़िया बनी सरिता जोशी का छोटा सा रोल शो स्टॉपर करैक्टर है. उनके और राजकुमार के डायलॉग टाइमिंग से समा बंध जाता है. बाकी टिम बने एलेक्स ओ नील और राजेश जईस के छोटे-छोटे रोल ठीक-ठाक हैं. VFX CGI ठीक है. किसी फिल्म से तुलना न करो तो अच्छा है. बाकी कोई भी स्पेशल या वर्चुअल इफेक्ट किसी से एक्टिंग नहीं करा सकता.

म्यूजिक बहुत कमज़ोर है. सचिन जिगर की जोड़ी इस बार पूरी तरह फेल होती है. अब क्योंकि इस फिल्म को 'स्त्री' वाले मेकर्स की 'रूही' के नाम से ही प्रोमोट किया गया है तो तुलना करनी बनती है.

स्त्री में शुरुआत हॉरर से थी और फिर अंत में हॉरर का सही प्रकोप, सही चेहरा पूरी तरह नुमायां हुआ था जिससे ख़ौफ़ बना रहा था.

स्त्री में कहानी बहुत सलीके से चली थी, सस्पेंस अंत तक बरकरार रहा था. फिर प्रिक्रेडिट सीन में भी सस्पेंस की गुंजाइश रखी थी. सीक्वल की जगह छोड़ी थी.

और सबसे बड़ा फ़र्क़ रहा पंकज त्रिपाठी का क्योंकि विजय राज़ वाला करैक्टर तो सरिता जोशी ने अच्छा संभाल लिया लेकिन पंकज त्रिपाठी की कमी साफ़ ख़ली. तो कोनक्लूज़न ये है कि अगर स्त्री रूही के बाद आती तो कहीं बेहतर फिल्म सीरीज लगती.

बाकी

एडिटिंग अच्छी हुई है. हुज़ेफा लोखंडवाला ने 2 घण्टे दस मिनट की परफेक्ट कटिंग की है जो फिल्म को अझेल होने से बचा लेती है. सिनेमेटाग्राफी भी बढ़िया है. हालांकि स्त्री में बेहतर थी. अमलेंदु चौधरी ही स्त्री में भी थे, पर यहां डायरेक्टर का फ़र्क़ पड़ गया. बात आर्ट डायरेक्टर की भी होनी चाहिए क्योंकि मोबाइल फोन पर टेलीफोन का रिसीवर लगाना बहुत यूनीक आइटम था, केबिन इन द वुड्स का सेट भी ग़जब था. फैक्ट्री में डॉल्स और मैनइक्वीन्स का होना अच्छा माहौल बना रहा था.

कुलमिलाकर रूही वन टाइम कॉमेडी फिल्म तो है, पर हॉरर वाली कोई इसमें बात नहीं है. कहानी लचर होने से कैरेक्टर्स के साथ वो जुड़ाव नहीं बन पाता जो स्त्री के जना, 'बिक्की' और बिट्टू से बन गया था. फैक्चुअल एरर्स की बात करूं तो जब जहां नेटवर्क नहीं आते हैं वहां कॉल कैसे आ गयी? बाकी फिल्म की हर जोड़ी में एक हिन्दू एक मुस्लिम मिलाकर अच्छी सौहार्द स्थापित किया है. कहानी से ज़्यादा फिल्मों में इसी चीज़ की तो ज़रूरत है.

बट स्टिल, 1) आप फैमिली या फ्रेंड्स के साथ हैं, 2) आपको वीकेंड में टाइमपास करना है, 3) आपने स्त्री नहीं देखी थी तो ये फिल्म आपके लिए ही है. फिल्म की रेटिंग 10 में से 6 है.

कुछ मेरे मन की भी

हर फिल्म की रीढ़ होती है उसकी कहानी. रीढ़ अगर कमज़ोर है तो कितनी ही एक्सरसाइज़ कर लो, शरीर मजबूत नहीं हो सकता, एक बारगी दिख सकता है, पर हो नहीं सकता. मेरा मानना है कि नारी प्रधान फिल्म में आप जिस सामाजिक बुराई से फिल्म की शुरुआत करते हैं, आपको अंत उसी पर या उसके आसपास के समाधान पर करना चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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