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मामूली माफिया को ‘रईस’ बनाने की नाकाम कोशिश

    • पीयूष पांडे
    • Updated: 26 जनवरी, 2017 05:46 PM
  • 26 जनवरी, 2017 05:46 PM
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रईस में शाहरुख खान ठीक-ठीक हैं. नवाजुद्दीन अच्‍छे लगे. माहिरा खान फालतू हैं. कहानी एक शराब माफिया की है, जिसे जबरन रॉबिन हुड और सेक्‍युलर महानायक दिखाने की कोशिश हुई है.

'कोई धंधा छोटा नहीं होता, और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता'. रईस फिल्म का ये डायलॉग क्या फिल्मकारों पर भी लागू होता है? क्या फिल्मकार के लिए नैतिकता-वस्तुनिष्ठता या सच्चाई से कहीं ऊपर धंधा ही है. लाख टके के इस सवाल को किनारे रखकर बात की जाए तो शाहरुख खान की रईस एक औसत फिल्म है. शाहरुख की अदाकारी ठीक ठाक और पाकिस्तानी सेंसेशन माहिरा खान की अदाकारी तो बिलकुल ही सामान्य है. दो गाने अच्छे हैं और कुछ डायलॉग शानदार.

हां, सनी लिओनी जब लैला ओ लैला करते हुए पर्दे पर ठुमकती हैं तो मल्टीप्लेक्स के सबसे ऊपरी कतार में गर्लफ्रेंड के साथ बैठे बालक का लैला-लैला चिल्लाना साबित करता है कि इस गाने में कुछ बात है या शायद सनी लिओनी में कुछ ऐसा 'नमक' है, जो युवाओं को भाता है.

ये भी पढ़ें- 'रईस' से एक कदम आगे रहेगी 'काबिल'

फिल्म में कहीं शाहरुख को चश्मे के बिना बहुत धुंधला दिखता है, और कहीं बिना चश्मे के ही वो धुआंधार पिटाई भी करता है- और बाकी काम भी. मेरी जानकारी के मुताबिक जो अब्दुल लतीफ कभी विधायक नहीं बना, और सिर्फ पार्षद का चुनाव जीता था, उस पर बनी फिल्म में उसे विधायक बना दिखा दिया गया. अब्दुल तलीफ को इस कदर सेकुलर दिखाया गया कि वो तमाम नायकों को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा दे. 'जब धंधे के वक्त नहीं देखा कौन हिन्दू कौन मुसलमान तो दंगे के वक्त क्यों'

धंधे मातरम्...

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'कोई धंधा छोटा नहीं होता, और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता'. रईस फिल्म का ये डायलॉग क्या फिल्मकारों पर भी लागू होता है? क्या फिल्मकार के लिए नैतिकता-वस्तुनिष्ठता या सच्चाई से कहीं ऊपर धंधा ही है. लाख टके के इस सवाल को किनारे रखकर बात की जाए तो शाहरुख खान की रईस एक औसत फिल्म है. शाहरुख की अदाकारी ठीक ठाक और पाकिस्तानी सेंसेशन माहिरा खान की अदाकारी तो बिलकुल ही सामान्य है. दो गाने अच्छे हैं और कुछ डायलॉग शानदार.

हां, सनी लिओनी जब लैला ओ लैला करते हुए पर्दे पर ठुमकती हैं तो मल्टीप्लेक्स के सबसे ऊपरी कतार में गर्लफ्रेंड के साथ बैठे बालक का लैला-लैला चिल्लाना साबित करता है कि इस गाने में कुछ बात है या शायद सनी लिओनी में कुछ ऐसा 'नमक' है, जो युवाओं को भाता है.

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फिल्म में कहीं शाहरुख को चश्मे के बिना बहुत धुंधला दिखता है, और कहीं बिना चश्मे के ही वो धुआंधार पिटाई भी करता है- और बाकी काम भी. मेरी जानकारी के मुताबिक जो अब्दुल लतीफ कभी विधायक नहीं बना, और सिर्फ पार्षद का चुनाव जीता था, उस पर बनी फिल्म में उसे विधायक बना दिखा दिया गया. अब्दुल तलीफ को इस कदर सेकुलर दिखाया गया कि वो तमाम नायकों को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा दे. 'जब धंधे के वक्त नहीं देखा कौन हिन्दू कौन मुसलमान तो दंगे के वक्त क्यों'

धंधे मातरम्...

ये भी पढ़ें- Kaabil vs Raees: वोटर की तरह दर्शकों का ध्रुवीकरण

बहरहाल. फिल्म की कहानी में जिस तरह अपराधी अब्दुल लतीफ को रईस के रुप में उतारकर उसे रॉबिनहुड और सेकुलर इंसान के रुप में पेश किया गया- उसे देखकर आज की पीढ़ी यही मान सकती है कि अब्दुल लतीफ निहायत शरीफ आदमी था, जिसे हालात ने सिर्फ उतना बुरा बना दिया, जितना जरुरी था. तो ऐसा कतई नहीं है. एक अपराधी को महिमामंडित करने का फिल्मी फॉर्मूला रईस में भी है, जिसे फिल्म मानकर ही देखा जाए.

नवाजुद्दीन सिद्दीकी की एक्टिंग अच्छी है. माहिरा खान खूबसूरत तो हैं लेकिन एक्टिंग में कमजोर हैं. उनके बजाय क्यों किसी बॉलीवुड की खूबूसरत बाला को नहीं लिया गया, ये सवाल फिल्मकारों की पाकिस्तान और सऊदी में फिल्म को चलाने की कोशिश से जोड़कर देखा जा सकता है. बहरहाल, शाहरुख के फैन हैं तो देखें. वरना मस्त रहें. कुछ खास मिस नहीं करेंगे आप और आपके फिल्मी ज्ञान पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.

ये भी पढ़ें- रईस हिट है लेकिन शर्तों के साथ...

इंटरवेल के पहले का हिस्‍सा कसा हुआ है और उम्‍मीद जगाता है कि अंत किसी शानदार फिल्‍म की तरह होगा. लेकिन फिल्‍म जरूरत से ज्‍यादा लंबी करके सारा मजा बिगाड़ दिया गया है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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