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काश! कुछ और बरस ज़िंदा रहते मनमोहन देसाई, बॉलीवुड को बहुत कुछ सीखना था...

    • सैयद तौहीद
    • Updated: 18 मार्च, 2023 08:24 PM
  • 18 मार्च, 2023 08:24 PM
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मार्च में हिंदी सिनेमा के पापुलर सिग्नेचर फिल्म मेकर मनमोहन देसाई की पुण्यतिथि पड़ती है. एक ऐसा फिल्मकार जो बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गया. फिल्मों को उन्हें अभी बहुत कुछ देना था. एक कसक सी बाक़ी रह गई कि काश कुछ बरस और जिंदा रह जाते.

मार्च में हिंदी सिनेमा के पापुलर सिग्नेचर फिल्म मेकर मनमोहन देसाई की पुण्यतिथि पड़ती है. एक ऐसा फिल्मकार जो बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गया. फिल्मों को उन्हें अभी बहुत कुछ देना था. एक कसक सी बाक़ी रह गई कि काश कुछ बरस और जिंदा रह जाते . मनमोहन देसाई के चाहने वाले उन्हें ख़ास अंदाज़ के लिए याद करते हैं. आपकी फिल्में आपके सिग्नेचर ट्रीटमेंट के बिना मुकम्मल नहीं थी. मनमोहन देसाई ने प्राथमिकताएं काफी पहले ही बना ली थी। इसका उदाहरण फिल्म दर फिल्म निखर कर आया, किसी में ज्यादा तो किसी में कम. रचनात्मक कार्य को सिग्नेचर वर्क बनाना उनसे सीखना चाहिए. आपके कहानी बनाने के स्टाईल को समझने के लिए उनकी फिल्मों से गुजरना होगा. सरसरी निगाह में आपकी पहली फिल्म ‘छलिया’ व सत्तर से अस्सी दशक में रिलीज हुई बडी हिट फिल्मों में बडा अंतर नज़र आता है. ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने में बनी छलिया तीन मुख्य व दो सहायक किरदारों वाली एक त्रिकोणीय कहानी थी. फिल्मकार की बडी लोकप्रिय फिल्मों की तुलना में पहली फिल्म सीमित किरदारों की कहानी कही थी. बाद की फिल्मों में मनमोहन ने पलाट के भीतर सहायक पलाट फिर सहायक के साथ उसका सहयोगी पलाट रचने का कमाल कर दिखाया.

मनमोहन देसाई का शुमार उन लोगों में है जो हमेशा ही अपने क्राफ्ट से याद किये जाएंगे

छलिया में पचास दशक की फिल्मों की आत्मा थी. इसमें कथा व कथन को सर्वाधिक महत्व मिला. फिल्म में अति नाटकीयता को जगह नहीं मिली व हास्य प्रसंग भी हवा की झोंके की तरह इस्तेमाल हुए. फिर भी कहना होगा कि मनमोहन देसाई की पहली फिल्म में उनका हस्ताक्षर जरूर था. यह बातें उनकी बाद की लोकप्रिय फिल्मों से गुजरते हुए समझ आती है. छलिया के हृदय में विभाजन की त्रासदी व उसके साथ घटित हुए साम्प्रदायिक संघर्ष का हिस्सा है.

हिन्दू युवती...

मार्च में हिंदी सिनेमा के पापुलर सिग्नेचर फिल्म मेकर मनमोहन देसाई की पुण्यतिथि पड़ती है. एक ऐसा फिल्मकार जो बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गया. फिल्मों को उन्हें अभी बहुत कुछ देना था. एक कसक सी बाक़ी रह गई कि काश कुछ बरस और जिंदा रह जाते . मनमोहन देसाई के चाहने वाले उन्हें ख़ास अंदाज़ के लिए याद करते हैं. आपकी फिल्में आपके सिग्नेचर ट्रीटमेंट के बिना मुकम्मल नहीं थी. मनमोहन देसाई ने प्राथमिकताएं काफी पहले ही बना ली थी। इसका उदाहरण फिल्म दर फिल्म निखर कर आया, किसी में ज्यादा तो किसी में कम. रचनात्मक कार्य को सिग्नेचर वर्क बनाना उनसे सीखना चाहिए. आपके कहानी बनाने के स्टाईल को समझने के लिए उनकी फिल्मों से गुजरना होगा. सरसरी निगाह में आपकी पहली फिल्म ‘छलिया’ व सत्तर से अस्सी दशक में रिलीज हुई बडी हिट फिल्मों में बडा अंतर नज़र आता है. ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने में बनी छलिया तीन मुख्य व दो सहायक किरदारों वाली एक त्रिकोणीय कहानी थी. फिल्मकार की बडी लोकप्रिय फिल्मों की तुलना में पहली फिल्म सीमित किरदारों की कहानी कही थी. बाद की फिल्मों में मनमोहन ने पलाट के भीतर सहायक पलाट फिर सहायक के साथ उसका सहयोगी पलाट रचने का कमाल कर दिखाया.

मनमोहन देसाई का शुमार उन लोगों में है जो हमेशा ही अपने क्राफ्ट से याद किये जाएंगे

छलिया में पचास दशक की फिल्मों की आत्मा थी. इसमें कथा व कथन को सर्वाधिक महत्व मिला. फिल्म में अति नाटकीयता को जगह नहीं मिली व हास्य प्रसंग भी हवा की झोंके की तरह इस्तेमाल हुए. फिर भी कहना होगा कि मनमोहन देसाई की पहली फिल्म में उनका हस्ताक्षर जरूर था. यह बातें उनकी बाद की लोकप्रिय फिल्मों से गुजरते हुए समझ आती है. छलिया के हृदय में विभाजन की त्रासदी व उसके साथ घटित हुए साम्प्रदायिक संघर्ष का हिस्सा है.

हिन्दू युवती शांति (नूतन) विभाजन बाद खुद को पाकिस्तान में पाती है. शांति यहां एक बच्चे को जन्म देती है. लडके का नाम अनवर रखा गया व उसकी परवरिश मुसलमानों की तरह हुई. उस बालक में भी ‘अमर अकबर एंथोनी’ के अकबर समान दो धर्मों का एकाकार था. आप उसकी तुलना ‘नसीब’ के जॉन जानी जनार्धन से भी कर सकते हैं. पत्नी के चरित्र पर संदेह करते हुए अनवर के पिता (रहमान) उसे अपनी संतान मानने को राजी नहीं. पत्नी पर नाजायज रिश्तों का इल्जाम लगाते हुए उसे कबूल नहीं करता।

अपने घर व दुनिया में जगह नहीं देता. शांति की पीडा में हमें मां सीता का किस्सा याद आएगा. फिल्मों की कहानियों में महाग्रंथों का प्रभाव मनमोहन देसाई को हिंदी सिनेमा की परंपरा में स्थान दे गया. बेघर शांति को छलिया (राजकपूर) में दुख बांटने वाला साथी मिल जाता है. राज साहेब का यह किरदार बहुत हद तक श्री 420 के किरदार ‘राजु’ का ही हिस्सा था.

एक दमदार सीन में साम्प्रदायिक कलह के बडे संकट को बडी बहादुरी से निकाल दिखाया था. बालक अनवर हिन्दु मित्रों की भीड का हिस्सा होकर एक गुजरते हुए पठान पर पत्थरबाजी करता है. वो उस कलह का हिस्सा बन कर अनजाने में पठान में परवरिश करने वाले को घायल कर बैठा. पठान का चेहरा देखकर अनवर को अपने कृत्य पर ग्लानि हुई…क्योंकि इसी आदमी ने उसकी परवरिश पिता तरह की थी.

यही वो इंसान था जिसे वो खुदा से बढकर तस्व्वुर करता था. घायल अकबर खान (प्राण) की हालात देखकर अनवर वहीं से साम्रदायिकता को हराम मान लेता है. इसकी गंभीरता उसके दुखमय विलाप में देखी जा सकती है. मनमोहन की फिल्मों में एक दूसरा अत्यंत भावनात्मक किरदार मां का था. इन कहानियों में मां हमेशा बच्चों से बिछड जाती थी. मां-बच्चे को एक दूसरे की कमी काफी टीस दिया करती थी. इस नजरिए से फिल्म कहानी की हैप्पी एंडिंग जरूर दिखाई देती थी.

अनवर बचपन में अपनी मां से बिछड गया था. कहानी के बडे हिस्से में उसे अपनी बिछडी मां की कसक रही. जिस स्कूल में अनवर पढ रहा था वहां उसके असल पिता (रहमान) को संयोगवश अध्यापक दिखाया गया. एक रिडींग क्लास के दरम्यान अध्यापक उसे मां पर आधारित पाठ पढने को बुलाते हैं. पाठ की संवेदना से गुजरते बालक अनवर टूट कर बिलख पडा…ज़ार ज़ार आंसू था. बालक की पीडा देखकर उसके अध्यापक पिता के दिल में पुत्र को लेकर हृदय परिवर्तन घटित हुआ.

संतान के प्रति पुरानी नफरत को भुलाकर पिता उसे सहारा देने को बाध्य हुए. लेकिन यहां अनवर में ‘आ गले लग जा’ के राहुल का अक्स नजर आया. वो अपने प्रति पिता के प्यार को मां को भी प्यार का हक़ देने की मांग पर ठुकरा गया. वो मां के कड़वे अनुभवों को नहीं भूला था. मनमोहन देसाई के कुछ हीरो ‘इश्क के मारे बेचारे’ की हद तक रूमानी थे.आप ‘आ गले लग जा’ के प्रेम (शशि कपूर) या फिर ‘धर्मवीर’ के धर्म का यहां जिक्र कर सकते हैं.

छलिया की रूमानियत भी बेबाकी किस्म की रही.उसमें इंसानियत व वफादारी के मूल्यों के प्रति सम्मान यह रहा कि प्रेमिका की जिंदगी से चुपचाप चला जाना मंजूर था. शांति के विवाहित जीवन में वो किसी भी तरह बाधा बनना नहीं चाहता था. एक खराब पति को फिर से अपनाना शांति को मंजूर हुआ. मनमोहन देसाई की दुनिया में धर्म को आवश्यक रूप से किरदार व कहानी के साथ जोडा गया. फिर व्यक्तिवाद से अधिक परिवार को जगह मिली .बिखरे हुए परिवार का एक होना दिखाया गया…

अनवर उसके पिता व मां के बिखराव का परिवार में साथ होना इस संदर्भ में जरूरी था. ऊंच-नीच व अमीर-गरीब के धु्री बीच एक सामंजस्य का एक उदाहरण छलिया में भी देखने को मिला. पति-पत्नी दोनों सक्षम परिवारों से ताल्लुक रखते थे . शांति का होने वाला पति पहली बार ही एक लक्जरी कार में मिलने आया.बाद में बेघर हो चुकी शांति को छलिया की कुटिया में रहना पडा…वो अब पुरानी शांति नहीं थी.गरीब-बेघर स्त्रियों के बीच रहते हुए इस तरह घुल-मिल गयी कि मानो जन्म से इसी समाज की थी.

देसाई साहेब की क्षमता उनकी पहली ही फिल्म से स्थापित हो चुकी थी.सुरीले गानों को बहुत दिलकश तरह फिल्माया गया.गानों में गति लाने के लिए पलों को कट कर फिर दूसरे पलों से अंडाकार जोडा गया. यह एक जादुई प्रयोग की तरह उभरकर आया था. यहां ‘ डम डम डिगा डिगा’ गाना काबिले गौर है.जिस एक शाट में छलिया की सीढी गिर रही थी, अगले शाट मे उसे किसी के कंधों पर आराम से बैठा दिखलाया गया. यह कुछ युं था मानो चमत्कार ने उसे वहां बिठा दिया हो.

एक दूसरे बिंदु पर शांति छलिया का नाश्ता के साथ इंतजार कर रही. इंतजार में पलकों का झुकना देखा जा सकता है. अगले शाट में वो सिर उठा रही…लेकिन अब इंतजार का समय बदल गया है.घर से बाहर खडी पति की वापसी के लिए प्राथना का शाट काबिले गौर था. लघु रूप में ही लेकिन शांति के मौजुदा हालात व पति के साथ खुशहाल कल की ख्वाहिश के संघर्ष को जरूर दिखाया गया.

यदि फिल्मकार मनमोहन देसाई की खूबियां पहले ही फिल्म से नजर आने लगी तो दूसरी ओर कमियां भी खेल बिगाड रही थी. हिन्दी सिनेमा की अधिकांश पॉपुलर फिल्मों की तरह उन्होंने पलाट से अधिक व्यक्तिगत दृश्यों को महत्त्व दिया.कहानी की प्रबलता को शायद नजर अंदाज करके मेहनत दृश्यों पर लगा दी.नतीजतन बढिया व्यक्तिगत दृश्यों के होते हुए उनकी कई कहानियों में उस किस्म का मजा नही बना.

इस वजह से आपकी फिल्मों से ज्यादा उसके सीन याद आते हैं. आपको इसमें सिक्वेंस की कमी महसूस होती है. हालांकि दृश्य दर्शक को बार-बार जरूर सिनेमाघरों तक लाने में सफल थे. लेकिन कहना होगा कि पटकथा में कमियां पूरी झलक गयी. कुछ सवाल बाकी रहे और फिल्म समाप्त हो चुकी थी. बाक़ी सामान्य समझ की सीमारेखा से परे खडे मिलें. आप शांति का उदाहरण लें जिसे खुद्कुशी के नाम पर पेट में पल रहे बच्चे की याद नहीं रही. फिर पठान अकबर खान (प्राण) को शांति व उसके पति का मिलन कराना चाहिए था.

पाकिस्तान में शांति के साथ क्या हुआ, अकबर खान ही को पता था.इस सब के बावजूद अंतिम दृश्य में अकबर खान को बेकग्राउंड तक ही सीमित रखा गया…क्योंकि शायद छलिया को यहां होना ज्यादा जरूरी था. जान पर खेलकर शांति को आग से बचा लेता है. मनमोहन देसाई अमिताभ बच्चन के लिए जिस तरह की फिल्में बना रहे थे, जैसी उनकी छवि गढ़ रहे थे, उस माहौल में एक साथ आठ-दस-बारह बदमाशों की पिटाई के दृश्य बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे. लॉस्ट एंड फाउंड थीम पर मनमोहन देसाई ने कई फिल्में बनाईं .

अमिताभ को लेकर फिल्मकार ने यह प्रयोग किए. फिल्मों में परिवार के बिछड़ने और फिर मिलने की कहानी थी. देसाई साहेब के साथ ने बिग बी ने कई सुपरहिट फिल्में करी. अमर अकबर एंथनी की इसमें विशेष चर्चा की जा सकती है. फिल्म को आपने लेखक प्रयागराज साथ मिलकर डेवलप किया था. मनमोहन देसाई की फिल्मों में पशुओं को कहानी का हिस्सा दिखाया जाता था . फिल्म धर्मवीर में प्रयोग हुए दोनों बाज़ एवं ‘कुली’ में पेश आए बाज़ के पास चमत्कारिक क्षमताएं थी.इस क्षमता की वजह से संकट में घिरे मालिक की सहायता में तुरंत उतर आना मुमकिन था.

फिल्मकार ने पालतु जानवरों से लेकर बाघों व सांपों का भी इस्तेमाल किया.वस्तु की ध्वनि के साथ हास्य भाव बनाने का अनोखा प्रयोग भी हुआ था.आलोचकों ने उन पर टाईपकास्ट होने की कमी डाल दी. खुद को रिपीट करना अकेले मनमोहन की बात नहीं थी.महान फिल्मकार हिचकाक ने भी खुद को अनेक बार रिपीट किया. स्टीरियोटाईप खुद के साथ बहुत से नफा-नुकसान लेकर आता है .

फिल्मकार के संबंध में कह सकते हैं कि वो उनकी फनकारी का स्टाईल था. उनके काम में जादुई दृश्य यंत्र Kleidoscope की खूबियां नजर आती है. बेशक उसमें सुधार या परिवर्तन की संभावनाएं भी थी.उस यंत्र में रगीन कांच टुकडों से विविध दिलकश आकारों का मायाजाल आसानी से कायम हो जाता है.कपडा बनाने वाले एक ही कपडे पर अलग-अलग डिजाईन से कपडे को आकर्षक कर देते हैं. 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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