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पैगंबर पर सिर तन से जुदा किया जाता है, काली को ऐसे दिखाने की हिम्मत कहां से लाती हो 'लीनाओं'?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 15 जुलाई, 2022 09:25 AM
  • 04 जुलाई, 2022 08:37 PM
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काली के पोस्टर (Kaali movie poster) पर विवाद मचा हुआ है. हिंदुओं की भावनाएं आहत हो रही हैं. बर्दाश्त कर लीजिए. पोस्टर बनाने वाली लीना, पैगंबर के मामले को लेकर भारत को दुनिया में बदनाम करने की साजिश रचने वाले मोहम्मद जुबैर की प्रशंसक है. रातदिन भारत को गाली देने वाली लीनाओं से इससे बेहतर की उम्मीद क्यों कर रहे हो?

इससे ज्यादा दिलचस्प और हैरान करने वाली बात कोई हो ही नहीं सकती कि ठीक एक ही वक्त में पैगंबर को लेकर दिए बयान का समर्थन भर करने की वजह से किसी गैर मुस्लिम का सिर काटा जा सकता है, मगर उसी समय गैरमुस्लिमों की धार्मिक मान्यताओं को कला और फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के नाम पर जलील किया जा सकता है. उन वकीलों का स्टैंड भी कम मजेदार नहीं है जो सिर धड़ से जुदा करने वाली जमात के बचाव में चंदा जुटाने से लेकर नाना प्रकार के नैरेटिव तक गढ़ रहे हैं. बावजूद दूसरे धर्म के देवी-देवताओं को गलत ठहराने में अब भी संकोच नहीं है.

ज्ञानवापी में शिवलिंग मिलने के बाद एक तबका जिस तरह से देश का माहौल बिगाड़ने की लगातार कोशिशों में लगा है, उसके अंजाम एक-एक कर सामने आते जा रहे हैं. उदयपुर में पैगंबर पर कथित रूप से विवादित बयान देने वाली नुपुर शर्मा का समर्थन करने भर की वजह से कन्हैयालाल नाम के एक दर्जी की गला रेतकर हत्या कर दी गई. इस्लामिक आतंकियों ने पहले हत्या की धमकी का वीडियो साझा किया, फिर सरे बाजार हत्या का वीडियो बनाया और उसे रिलीज कर देशभर में अपने लोगों से ऐसा ही करने की अपील की.

अमरावती में भी उमेश कोल्हे ने एक सोशल ग्रुप में नुपुर को समर्थन दिया था. ग्रुप में उनका मुस्लिम दोस्त युसूफ एक एडमिन था. ऐसा दोस्त जिसकी बहन की शादी से लेकर बच्चों के दाखिले तक में उमेश ने हर तरह की मदद की. लेकिन एक कट्टर मुस्लिम होने के नाते उसे दोस्त का रवैया पसंद नहीं आया और दूसरे ग्रुप में बढ़ाकर ईशनिंदा की सजा का ऐलान कर दिया. जिसके बाद छह से सात शांतिदूतों ने मिलकर ईशनिंदा के महा आरोपी उमेश कोल्हे की गला रेतकर हत्या कर दी.

काली के इसी पोस्टर पर मचा है बवाल.

लीना की फिल्म में देवी काली का पोस्टर जानबूझकर की गई गलती है, काली हिंदुओं की हैं तो लीना जिंदा...

इससे ज्यादा दिलचस्प और हैरान करने वाली बात कोई हो ही नहीं सकती कि ठीक एक ही वक्त में पैगंबर को लेकर दिए बयान का समर्थन भर करने की वजह से किसी गैर मुस्लिम का सिर काटा जा सकता है, मगर उसी समय गैरमुस्लिमों की धार्मिक मान्यताओं को कला और फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के नाम पर जलील किया जा सकता है. उन वकीलों का स्टैंड भी कम मजेदार नहीं है जो सिर धड़ से जुदा करने वाली जमात के बचाव में चंदा जुटाने से लेकर नाना प्रकार के नैरेटिव तक गढ़ रहे हैं. बावजूद दूसरे धर्म के देवी-देवताओं को गलत ठहराने में अब भी संकोच नहीं है.

ज्ञानवापी में शिवलिंग मिलने के बाद एक तबका जिस तरह से देश का माहौल बिगाड़ने की लगातार कोशिशों में लगा है, उसके अंजाम एक-एक कर सामने आते जा रहे हैं. उदयपुर में पैगंबर पर कथित रूप से विवादित बयान देने वाली नुपुर शर्मा का समर्थन करने भर की वजह से कन्हैयालाल नाम के एक दर्जी की गला रेतकर हत्या कर दी गई. इस्लामिक आतंकियों ने पहले हत्या की धमकी का वीडियो साझा किया, फिर सरे बाजार हत्या का वीडियो बनाया और उसे रिलीज कर देशभर में अपने लोगों से ऐसा ही करने की अपील की.

अमरावती में भी उमेश कोल्हे ने एक सोशल ग्रुप में नुपुर को समर्थन दिया था. ग्रुप में उनका मुस्लिम दोस्त युसूफ एक एडमिन था. ऐसा दोस्त जिसकी बहन की शादी से लेकर बच्चों के दाखिले तक में उमेश ने हर तरह की मदद की. लेकिन एक कट्टर मुस्लिम होने के नाते उसे दोस्त का रवैया पसंद नहीं आया और दूसरे ग्रुप में बढ़ाकर ईशनिंदा की सजा का ऐलान कर दिया. जिसके बाद छह से सात शांतिदूतों ने मिलकर ईशनिंदा के महा आरोपी उमेश कोल्हे की गला रेतकर हत्या कर दी.

काली के इसी पोस्टर पर मचा है बवाल.

लीना की फिल्म में देवी काली का पोस्टर जानबूझकर की गई गलती है, काली हिंदुओं की हैं तो लीना जिंदा रहेंगी

इन दो मामलों के अलावा दर्जनों लोगों को धमकियां मिल रही हैं. दुर्भाग्य यह है कि बड़ी-बड़ी घटनाओं के सामने आने के बाद ना तो सरकार और ना ही सिविल सोसायटी ने रोकथाम या ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाने का कोई प्रयास नहीं किया है. उल्टा ठीक इसी वक्त दूसरे धर्मों के ऊपर की जा रही टीका-टिप्पणियों को कलात्मकता के नाम पर वॉकओवर देने की कोशिशें साफ़ देखी जा सकती हैं. फिल्ममेकर लीना मणिमेकलाई की डॉक्युमेंट्री 'काली' का पोस्टर इसका सटीक उदाहरण है. काली के पोस्टर में हिंदुओं की आराध्य देवी "काली" के लुक में नजर आ रही एक महिला को सिगरेट का कश खींचते फीचर किया गया है.

इतना ही नहीं काली के एक हाथ में LGBTQ समुदाय का झंडा भी है, जिसका एक मतलब LGBTQ को लेकर उनका सपोर्ट भी है. हालांकि यह सिम्बोलिक चित्र ही है, मगर जिस असंवेदनशीलता के साथ फीचर किया गया है, तमाम लोगों की भावनाएं आहत होने की आशंका से तो इनकार नहीं किया जा सकता. धर्मग्रंथों में तो काली के स्मोकिंग करने ना करने को लेकर कोई बात नहीं और LGBTQ का भी कोई जिक्र नहीं.

जिस देवी देवता का किसी ऐसे विषय से संबंध भी नहीं है, मगर उसे जोड़ा जाना तो असल में जानबूझकर भावनाओं को आहत करने की कोशिश ही है. सवाल है कि इस्लाम या किसी दूसरे धर्म में भी इस तरह के कलात्मकता की थोड़ी सी भी उम्मीद की जा सकती है क्या? और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि एक जैसे मामलों में सरेआम दोहरा चरित्र दिखाने वाले लिबरल्स किस मुंह से अपनी ईमानदारी, बहादुरी और बौद्धिकता का ढिंढोरा पीटते हैं.

बामियान को लेकर एशिया का सनातन खड़ा होता तो आज पैगंबर का नाम लेने भर से खौफ नहीं लगता

इस्लाम से जुड़े किसी सम्माननीय के संदर्भ में ऐसे सिम्बोलिक चित्र की कल्पना करना भी मुश्किल है. किसी मुस्लिम देश में तो यह असंभव ही है, मगर भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी ऐसा सोचना अपनी जान को निश्चित जोखिम में डालना है. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के संविधान में मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बस इस एक चीज पर लागू नहीं होती. एक ख़ास वर्ग को कारगिल में धार्मिक आधार पर शांतिप्रिय बौद्धों को तंग करने के बावजूद सवर्दा "पीड़ित" होने का तमगा मिला रहता है.

काली के पोस्टर विवाद में सोशल मीडिया पर लोगों का सवाल बिल्कुल जायज है कि जब पैगंबर के जिक्र भर से सिर तन से जुदा करने को उकसाया जा रहा, लीना नाम की किसी फिल्ममेकर की हिम्मत कैसे हुई कि वह देवी काली को सिगरेट पीता दिखा रही हैं. वह अपने एक्ट को ह्यूमन, लिबर्टी, फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के नाम पर सही भी साबित करती हैं. काली के पोस्टर को लेकर सोशल मीडिया के सवालों को खारिज नहीं किया जा सकता. अच्छा तो यह होता कि जब बामियान में बुद्ध की मूर्ति ढहाई जा रही थी भारत को हस्तक्षेप करना चाहिए था.

बामियान में हस्तक्षेप के लिए भारत के पास ऐतिहासक आधार भी था. जैसे आज एकजुट शोर उठा है, अगर बामियान को लेकर एशिया ने इस्लामिक आतंक के नाम पर आवाज बुलंद की होती तो पैगंबर के नाम पर भारत आज अराजकता के दलदल में खड़ा नजर नहीं आता. म्यांम्यार रोहिंग्याओं से लहूलुहान नहीं होता और श्रीलंका में आतंकवाद की अराजकता में सैकड़ों में लोग जान नहीं गंवाते. बामियान में बोलने की जरूरत महसूस की गई होती तो कोई लिबरल आज की तारीख में भारत को सभ्यता के पाठ नहीं पढ़ा रहा होता और अमेरिका को रिपोर्ट जारी कर भारत में कथित धार्मिक भेदभाव पर दुख नहीं जताना पड़ता. लोगों के एक बड़े समूह का यह सवाल कि लीना क्या काली के पोस्टर के जरिए धार्मिक भावनाओं का सम्मान कर रही हैं बिल्कुल भी गलत नहीं है.

तीस्ता सीतलवाड़, मोहम्मद जुबैर की प्रशंसक का ऐसा करना हैरान नहीं करता

लेकिन जब लीना का इतिहास भूगोल जान लेते हैं उसके बाद उनसे काली जैसे एपिसोड से बेहतर की उम्मीद करना बेमानी है. लीना मणिमेकलाई मूलत: तमिलनाडु की हैं, फिल्म मेकर हैं और कनाडा में रहती हैं. विवाद बढ़ने से पहले उन्होंने एक ट्वीट में बताया कि यह रिदम ऑफ़ कनाडा के तहत आगा खान म्यूजियम का हिस्सा भी है. लीना ट्विटर पर खूब सक्रिय रहती हैं. अगर उनके हैंडल पर घूमकर विचारों को खंगाले तो साफ़ हो जाता है कि उन्होंने एक तरह से जान बूझकर ऐसी हरकत की है. असल में लीना को भारत, यहां की बहुसंख्यक आबादी, उसके धर्म, संस्कृति और उनके देवी देवताओं से घोर चिढ़ है.

उनके विचार से पता चलता है कि वे एक "स्वस्थ लिबरल" हैं और भारत से बहुत दूर रहने के बावजूद देश को लेकर जरूरत से ज्यादा चिंतित हैं. उन्हें भारत की और खबरें मिले या ना मिलें, मगर तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी का दुख होता है. गिरफ्तारी के बाद ट्विटर पर उनका दर्द मवाद की तरह बहने लगता है. पैगंबर विवाद को अंतराष्ट्रीय शक्ल देने वाले कथित पत्रकार मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी को लेकर उनकी तकलीफ को उनके ट्वीट से समझना मुश्किल नहीं. मोहम्मद जुबैर ने हिंदू देवी-देवताओं का कुछ कम मजाक नहीं उड़ाया. लेकिन जैसे जुबैर ने कभी पैगम्बर पर सवाल नहीं उठाया, लीना भी उनपर कोई प्रश्न खड़ा करते नहीं दिखती. उन्होंने भारत की तमाम कार्रवाइयों को भी गैरकानूनी बताया है. इससे पता चलता है कि लीना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी कुछ कम दिक्कतें नहीं हैं.

हालांकि विवाद बढ़ने के साथ लीना ने सफाई दी है कि पोस्टर को लेकर अभी जिस तरह उनकी आलोचना हो रही है फिल्म देखने के बाद लोग तारीफ़ करेंगे. बावजूद सोशल मीडिया पर लीना के खिलाफ लोगों का गुस्सा थमता नहीं दिख रहा है. हर कोई उन्हें गिरफ्तार करने और सबक सिखाने की मांग कर रहा है. लेकिन जैसे कनाडा बेस्ड फिल्म मेकर कला की स्वतंत्रता के बहाने काली को सिगरेट पीता दिखा सकती है क्या कोई इसी आधार पर उन्हें "गू" खाते फीचर कर सकता है? भारत की धार्मिक भेदभाव वाली रिपोर्ट बनाने वाले अमेरिकियों को भी सोचना चाहिए कि यहां का बहुसंख्यक अगर अंध कट्टरपंथ का शिकार होता तो क्या अब तक लीना का सिर उनकी तन पर बना रहता?

सोचने वाली बात है कि दुनिया में जितने भी धर्म हैं उसमें सिर्फ हिंदुत्व इकलौता है जिसमें एक महिला को देवी और शक्ति के रूप में पूजा जाता है. क्या मजाक है कि स्त्रीवाद के नाम पर उसी धर्म की देवी का इस्तेमाल किया जाता है. मानवता और विचारधारा के नाम पर भला इससे बड़ा पाखंड और कुछ हो सकता है क्या?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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