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बोरिंग टॉपिक होने के बावजूद भरपूर एंटरटेनमेंट देती है आशुतोष-सान्या की 'पगलैट'

    • अंकिता जैन
    • Updated: 29 मार्च, 2021 02:47 PM
  • 29 मार्च, 2021 02:47 PM
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OTT प्लेटफॉर्म Netflix पर आशुतोष राणा और सान्या मल्होत्रा स्टारर 'पगलैट' रिलीज हो गयी. पगलैट में मुद्दे से भटके बिना बड़ी ही शालीनता और ख़ामोशी से 'विधवाओं' के अधिकार की बात की गयी है. फिल्म का टॉपिक भले ही बोरिंग हो लेकिन ये एक जरूरी फिल्म है इसलिए मनोरंजन के नजरिये से फिल्म बोर नहीं करेगी.

दृश्य में पिता है, जो आर्थिक समस्या से जूझ रहा है, बेटे की तेरहवीं के लिए आने वाले सामान की लिस्ट बना रहा है. विधवा बहु दरवाज़े पर आती है हिसाब-किताब करवाने में साथ देने की बात कहकर वहीं ससुर के पीछे बैठ जाती है. यह दृश्य सुनने में जितना आम लग रहा है देखने में उतना ही ख़ास लगेगा. इस दृश्य में बहुत ही ऐसी बातें आप महसूस कर सकेंगे जो आपको द्रवित कर दें. इस दृश्य के दोनों की क़िरदार बाबूजी, और संध्या बहुत ज़्यादा बात नहीं कर रहे, दृश्य में डायलॉग्स भी कम हैं लेकिन यह मध्यमवर्गीय परिवारों की कहानी का वह दृश्य है जो आज भी बहुत आम नहीं है. मैं इस बात की प्रार्थना कभी नहीं करूंगी कि किसी का साथी यूं गुज़र जाए लेकिन यदि अनहोनी ऐसा कर दे तो क्या ऐसा दृश्य उन परिवारों में संभव है जो आज भी पारंपरिक हैं? मन के किसी कोने में आज भी यही बात छुपी बैठी है कि 'पति के मरने के बाद औरत को यह मान लेना चाहिए कि अब उसका सब ख़त्म. यदि वह सामान्य व्यवहार कर रही है, तो उसका दिमाग ख़राब हो चुका है'.

भरपूर मनोरंजन देती है आशुतोष राणा और सान्या मल्होत्रा की पगलैट

लड़कियों के लिए आज भी कहा जाता है 'शादी के बाद ससुराल जाएगी, सारी अकल ठिकाने आ जाएगी'. ऐसा ख़ासकर उन लड़कियों के लिए कहा जाता है जो किसी भी तरह से आदर्शवाद की छवि पर चोट करती हैं. पर असल में लड़कियों को अक़्ल तभी आती है जब उन्हें यह समझ आ जाए कि ज़िन्दगी में हर कमिटमेंट दूसरों को ख़ुश करने के लिए नहीं करना है बल्कि कुछ ख़ुद से भी करने होंगे ये समझकर कि 'हम क्या चाहते हैं'.

कुछ क्रांतियां ख़ामोशी से होती हैं कुछ शोर के साथ. यह मेरा निजी मत है कि सामाजिक कुरीतियों को बदलने वाली क्रांतियां इसी ख़ामोशी के साथ की जानी चाहिए. भारतीय सिनेमा में स्त्रियों की स्थिति को लेकर, उनके अधिकारों को लेकर आजकल जो फ़िल्में...

दृश्य में पिता है, जो आर्थिक समस्या से जूझ रहा है, बेटे की तेरहवीं के लिए आने वाले सामान की लिस्ट बना रहा है. विधवा बहु दरवाज़े पर आती है हिसाब-किताब करवाने में साथ देने की बात कहकर वहीं ससुर के पीछे बैठ जाती है. यह दृश्य सुनने में जितना आम लग रहा है देखने में उतना ही ख़ास लगेगा. इस दृश्य में बहुत ही ऐसी बातें आप महसूस कर सकेंगे जो आपको द्रवित कर दें. इस दृश्य के दोनों की क़िरदार बाबूजी, और संध्या बहुत ज़्यादा बात नहीं कर रहे, दृश्य में डायलॉग्स भी कम हैं लेकिन यह मध्यमवर्गीय परिवारों की कहानी का वह दृश्य है जो आज भी बहुत आम नहीं है. मैं इस बात की प्रार्थना कभी नहीं करूंगी कि किसी का साथी यूं गुज़र जाए लेकिन यदि अनहोनी ऐसा कर दे तो क्या ऐसा दृश्य उन परिवारों में संभव है जो आज भी पारंपरिक हैं? मन के किसी कोने में आज भी यही बात छुपी बैठी है कि 'पति के मरने के बाद औरत को यह मान लेना चाहिए कि अब उसका सब ख़त्म. यदि वह सामान्य व्यवहार कर रही है, तो उसका दिमाग ख़राब हो चुका है'.

भरपूर मनोरंजन देती है आशुतोष राणा और सान्या मल्होत्रा की पगलैट

लड़कियों के लिए आज भी कहा जाता है 'शादी के बाद ससुराल जाएगी, सारी अकल ठिकाने आ जाएगी'. ऐसा ख़ासकर उन लड़कियों के लिए कहा जाता है जो किसी भी तरह से आदर्शवाद की छवि पर चोट करती हैं. पर असल में लड़कियों को अक़्ल तभी आती है जब उन्हें यह समझ आ जाए कि ज़िन्दगी में हर कमिटमेंट दूसरों को ख़ुश करने के लिए नहीं करना है बल्कि कुछ ख़ुद से भी करने होंगे ये समझकर कि 'हम क्या चाहते हैं'.

कुछ क्रांतियां ख़ामोशी से होती हैं कुछ शोर के साथ. यह मेरा निजी मत है कि सामाजिक कुरीतियों को बदलने वाली क्रांतियां इसी ख़ामोशी के साथ की जानी चाहिए. भारतीय सिनेमा में स्त्रियों की स्थिति को लेकर, उनके अधिकारों को लेकर आजकल जो फ़िल्में बन रही हैं वे मुझे भटकी हुई लगती हैं. जिनमें मुख्य मुद्दे के अलावा सब कुछ मिल जाता है. और इस वजह से वे उस वर्ग तक सही से नहीं पहुंच पातीं जहां उन्हें पहुंचना चाहिए.

'पगलैट' ने  यह कर दिखाया. एक बेहतरीन फ़िल्म जो मुद्दे से भटके बिना 'विधवाओं' के अधिकार की बात कह जाती है. वे अधिकार जो उन्हें दान में नहीं मिलने चाहिए क्योंकि वे उनके अपने हैं. मैं अपने इर्द-गिर्द कुछ ऐसी स्त्रियों को जानती हूं जो सामाजिक रूप से अवहेलना झेल रही हैं, विधवा होना उनका ऐसा गुनाह है जिसे लोग उजागर रूप से कहते तो नहीं लेकिन मानसिकता में वह रचा-बसा होने के कारण इन स्त्रियों को पुनः वह जीवन नहीं जीने देता जो वे पहले जी रही थीं. विधवा विवाह आज भी बहुत सामान्य नहीं है.

फ़िल्म में नई नवेली बहु जो शादी के पांच महीने बाद ही विधवा हो गई, वह एक मध्यम वर्गीय परिवार में रहते हुए ख़ुद को, अपने अस्तिव को कैसे पहचानती है यह बख़ूबी दिखाया है. इससे पहले 'कहानी' विद्या बालन की ऐसी फ़िल्म देखी थी जिसे मैं बारबार देख सकती हूं. अब यह भी उसी लिस्ट में शामिल हो गई.

यूं फ़िल्म में दो क़िरदार बहुत असरदार हैं, बाबूजी और संध्या. एक धीर-गंभीर पिता जो कम बोलकर भी अपने स्वाभिमान की चादर ओढ़े कैसे पुत्र वियोग का घूंट पी रहा है, यह देखकर अपने आसपास के उन सभी पुरुषों की छवि आंखों में उभर आएगी जो ऐसा ही व्यक्तित्व रखते हैं. इस क़िरदार को आशुतोष राणा से बेहतर कोई नहीं निभा सकता था. और दूसरा संध्या, इसे भी जितनी सादगी से सान्या मल्होत्रा ने निभाया है वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है.

इस क़िरदार को ऐसी ही अदाकारी की ज़रूरत थी. इन दोनों के अलावा भी फ़िल्म का हर क़िरदार अहम है, हर क़िरदार कहानी में वह भूमिका निभाता है जो कहानी की छाप आपके भीतर छोड़ दे. देखिए, बिना इस पूर्वाग्रह के कि यह हास्य होगी क्योंकि यह गंभीर मुद्दे पर बनी एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है जो मनोरंजन के नज़रिए से भी बोर नहीं करेगी. उमेश बिष्ट को हार्दिक बधाई. आप ऐसी बेहतरीन फ़िल्में बनाते रहें.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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