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भंसाली को करणी सेना का शुक्रगुजार होना चाहिए क्योंकि....

    • अभिनव राजवंश
    • Updated: 27 जनवरी, 2018 02:13 PM
  • 27 जनवरी, 2018 02:13 PM
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फिल्म के रिलीज़ को लेकर भी संशय के बादल उमड़ते घुमड़ते रहे, हालाँकि तमाम दुश्वारियों के बावजूद भी फिल्म आखिरकार सिनेमा घरों तक पहुँच ही गयी और अच्छा बिज़नेस भी कर रही है.

पिछले एक डेढ़ महीने से संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' (जो अब पद्मावत हो गयी है )को लेकर लगातार विरोध होते रहे, फिल्म को लेकर कई सवाल भी उठे. और तो और मीडिया ने भी इस दौरान कई अहम मुद्दों को दरकिनार कर इस फिल्म को पूरी फुटेज दी. फिल्म के रिलीज़ को लेकर भी संशय के बादल उमड़ते घुमड़ते रहे, हालाँकि तमाम दुश्वारियों के बावजूद भी फिल्म आखिरकार सिनेमा घरों तक पहुँच ही गयी और अच्छा बिज़नेस भी कर रही है. ऐसे में इस फिल्म के रिलीज़ के बाद मन में जो सवाल उठता है वो ये कि क्या वाकई इस फिल्म में विरोध करने लायक कुछ था? और क्या फिल्म वाकई राजपूतों के सम्मान को ठेस पहुँचाती है?

हालाँकि, फिल्म देखने के बाद दोनों ही सवालों के जवाब ना में ही मिलते हैं, ना तो इस फिल्म में विरोध के लायक कुछ दिखाया गया है और ना हीं फिल्म राजपूतों के सम्मान को ठेस पहुचाँती दिखती है. मगर फिल्म देखकर यह जरूर कहा जा सकता है कि इस फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली को करणी सेना का शुक्रगुजार होना चाहिए जिनके कारण भंसाली की भटकी हुई और उबाऊ फिल्म को दर्शकों का काफी बढियाँ रिस्पांस मिल रहा है. भले ही फिल्म का नाम पद्मावत हो मगर भंसाली की फिल्म अपना ज्यादातर समय अल्लाउद्दीन खिलजी के किरदार के आस पास ही व्यतीत करती दिखाई देती है. फिल्म खिलजी के निकाह से लेकर उसके सुलतान बनने तक की कहानी कहती दिखती है, मगर फिल्म ना तो रानी पद्मावती और ना हीं राजा रतन सिंह के किरदार को परदे पर उस खूबसूरती से उकेर पाती है. कह सकते है कि फिल्म की ज्यादातर कहानी खिलजी के नजरिये से ही कही गयी है.

भंसाली पूरे फिल्म में एक भी लड़ाई के दृश्य को रोचक नहीं बना...

पिछले एक डेढ़ महीने से संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' (जो अब पद्मावत हो गयी है )को लेकर लगातार विरोध होते रहे, फिल्म को लेकर कई सवाल भी उठे. और तो और मीडिया ने भी इस दौरान कई अहम मुद्दों को दरकिनार कर इस फिल्म को पूरी फुटेज दी. फिल्म के रिलीज़ को लेकर भी संशय के बादल उमड़ते घुमड़ते रहे, हालाँकि तमाम दुश्वारियों के बावजूद भी फिल्म आखिरकार सिनेमा घरों तक पहुँच ही गयी और अच्छा बिज़नेस भी कर रही है. ऐसे में इस फिल्म के रिलीज़ के बाद मन में जो सवाल उठता है वो ये कि क्या वाकई इस फिल्म में विरोध करने लायक कुछ था? और क्या फिल्म वाकई राजपूतों के सम्मान को ठेस पहुँचाती है?

हालाँकि, फिल्म देखने के बाद दोनों ही सवालों के जवाब ना में ही मिलते हैं, ना तो इस फिल्म में विरोध के लायक कुछ दिखाया गया है और ना हीं फिल्म राजपूतों के सम्मान को ठेस पहुचाँती दिखती है. मगर फिल्म देखकर यह जरूर कहा जा सकता है कि इस फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली को करणी सेना का शुक्रगुजार होना चाहिए जिनके कारण भंसाली की भटकी हुई और उबाऊ फिल्म को दर्शकों का काफी बढियाँ रिस्पांस मिल रहा है. भले ही फिल्म का नाम पद्मावत हो मगर भंसाली की फिल्म अपना ज्यादातर समय अल्लाउद्दीन खिलजी के किरदार के आस पास ही व्यतीत करती दिखाई देती है. फिल्म खिलजी के निकाह से लेकर उसके सुलतान बनने तक की कहानी कहती दिखती है, मगर फिल्म ना तो रानी पद्मावती और ना हीं राजा रतन सिंह के किरदार को परदे पर उस खूबसूरती से उकेर पाती है. कह सकते है कि फिल्म की ज्यादातर कहानी खिलजी के नजरिये से ही कही गयी है.

भंसाली पूरे फिल्म में एक भी लड़ाई के दृश्य को रोचक नहीं बना सके हैं, जो पीरियड फिल्म्स की एक बड़ी यूएसपी होती है. फिल्म में लगभग 6 महीने लम्बे चले युद्ध का जिक्र तो जरूर है, मगर दर्शकों को इस बात पता केवल इसलिए चल पाता है क्योंकि जहाँ एक दृश्य में दीवाली दिखाई जाती है तो अगले ही दृश्य में होली आ जाती है.

भंसाली की फिल्म वैसी भव्य भी नहीं लगती जैसी भव्यता फिल्म बाहुबली में दिखी थी. और साथ ही फिल्म की गति भी धीमी है जो कभी कभी उबाऊ लगने लगने लगती है. फिल्म देखने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अगर इस फिल्म को लेकर इतना विवाद न हुआ होता तो यह एक औसत दर्जे कि फिल्म बन कर ही रह जाती. मगर फिल्म को लेकर हुए विवाद को पूरा फायदा फिल्म को मिल रहा है इस बात की पूरी उम्मीद है कि यह फिल्म अच्छी खासी कमाई कर ले. हालाँकि यह फिल्म दर्शकों के दिलों में ज्यादा समय तक रहे यह लगता नहीं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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