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निर्मल पाठक की घर वापसी - ज़मीन से जुडी भारत की तस्वीर!

    • सरिता निर्झरा
    • Updated: 11 जून, 2022 11:22 PM
  • 11 जून, 2022 07:34 PM
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निर्मल पाठक की घर वापसी - यह सीरीज़ न नकारात्मकता के अंधकार वाली है, न ही सकारात्मकता का एक्सेसिव डोज़. बस जो है जैसा है वैसा आपके सामने है. एक ऐसी सीरीज है जो कहानी के इर्द-गिर्द घूमती है. हर किरदार उस कहानी को जीता हुआ मालूम होता है. एक पूरा जिगसॉ पज़ल है जिसका हर किरदार बिल्कुल सही फिट हुआ है और मध्य में है कहानी - कहानी निर्मल पाठक की.

'बहुत सालों पहले गांव में भूसा रखने का कमरा हुआ करता था. वहां दो थाली एक लोटा एक कटोरा अलग रहते थे. अच्छी खासी ज़मींदारी वाला घर था आज भी खेत बटइया पर दिए जाते हैं. घर में काम करने आने जाने वाले अक्सर किसी बोरे पर अथवा लिपी हुई ज़मीन पर नीचे ही बैठते थे. उन्हें दिया हुआ गुड़ पूरा खाने की हिदायत होती, 'के खाई हो बाद में! खाय लया' मीठे उलाहने के पीछे बस इसरार नहीं था. वो पानी पीने को दिए बर्तन धुल कर जाते.' बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा देखा जिसे देख कर कई धुंधले चेहरे वक़्त की ओट से झांकते नज़र आये. अगर आप पूर्वी भारत के किसी गांव से संबंध रखते है, या अपने बचपन में उस गांव में आना जाना हुआ और आज भी उस गांव के परिवेश से जुड़े हैं तो सोनी लिव पर हालिया रिलीज़ निर्मल पाठक की घर वापसी देखते हुए कहीं न कहीं टीस उठेगी.

गांवों की व्यवस्था को बखूबी दर्शाती है सोनी लिव की वेब सीरीज निर्मल पाठक की घर वापसी

हमने भी तो देखा है ये सब. हमने क्यों नहीं कुछ बदलने की कोशिश की. क्या हम कुछ बदल पाते? या आज कुछ बदला है? बीते वर्षो में हमने अपने ही देश को खांचों में बांट दिया और उसकी समस्याओं को भी. हर समस्या से पल्ला झाड़ने के लिए हमारे पास कोई कारण कोई वजह कोई बहाना होता, और कुछ नहीं तो उसे बीते समय की बात कह देना सबसे आसान. बहाने और भी हैं.

समाज में जातिवाद की समस्या - यकीनन बीते समय की बात है. स्त्रियों का पर्दे में रहना अथवा घर की परिधि में ही रहना - वो तो कबका खत्म हो गया अब तो बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ वाली बात है या फिर दूसरे धर्मों में होगा.

स्त्री अपने मन का करें - भला यह कौन सी बात है रोका किसने है? लड़कियों की पढ़ाई पर तवज्जो - अब तो हर कोई देता है लड़कियों को पढ़ने की और आगे बढ़ने की आजादी. ऊंच नीच , छुआछूत - होता होगा कहीं किंतु अब आम...

'बहुत सालों पहले गांव में भूसा रखने का कमरा हुआ करता था. वहां दो थाली एक लोटा एक कटोरा अलग रहते थे. अच्छी खासी ज़मींदारी वाला घर था आज भी खेत बटइया पर दिए जाते हैं. घर में काम करने आने जाने वाले अक्सर किसी बोरे पर अथवा लिपी हुई ज़मीन पर नीचे ही बैठते थे. उन्हें दिया हुआ गुड़ पूरा खाने की हिदायत होती, 'के खाई हो बाद में! खाय लया' मीठे उलाहने के पीछे बस इसरार नहीं था. वो पानी पीने को दिए बर्तन धुल कर जाते.' बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा देखा जिसे देख कर कई धुंधले चेहरे वक़्त की ओट से झांकते नज़र आये. अगर आप पूर्वी भारत के किसी गांव से संबंध रखते है, या अपने बचपन में उस गांव में आना जाना हुआ और आज भी उस गांव के परिवेश से जुड़े हैं तो सोनी लिव पर हालिया रिलीज़ निर्मल पाठक की घर वापसी देखते हुए कहीं न कहीं टीस उठेगी.

गांवों की व्यवस्था को बखूबी दर्शाती है सोनी लिव की वेब सीरीज निर्मल पाठक की घर वापसी

हमने भी तो देखा है ये सब. हमने क्यों नहीं कुछ बदलने की कोशिश की. क्या हम कुछ बदल पाते? या आज कुछ बदला है? बीते वर्षो में हमने अपने ही देश को खांचों में बांट दिया और उसकी समस्याओं को भी. हर समस्या से पल्ला झाड़ने के लिए हमारे पास कोई कारण कोई वजह कोई बहाना होता, और कुछ नहीं तो उसे बीते समय की बात कह देना सबसे आसान. बहाने और भी हैं.

समाज में जातिवाद की समस्या - यकीनन बीते समय की बात है. स्त्रियों का पर्दे में रहना अथवा घर की परिधि में ही रहना - वो तो कबका खत्म हो गया अब तो बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ वाली बात है या फिर दूसरे धर्मों में होगा.

स्त्री अपने मन का करें - भला यह कौन सी बात है रोका किसने है? लड़कियों की पढ़ाई पर तवज्जो - अब तो हर कोई देता है लड़कियों को पढ़ने की और आगे बढ़ने की आजादी. ऊंच नीच , छुआछूत - होता होगा कहीं किंतु अब आम नहीं है. बेरोजगारी - हर साल लाखों लाख नौकरियां तो मिल रही हैं.

यह सभी समस्याएं अलग-अलग खांचों में बंटी हुई मानो छोटे-छोटे कई तालाब और हर तालाब को जलकुंभी ने ढक रखा हो. समस्याएं पानी के अंदर ही अंदर सड़ रही हैं तालाब का पानी दूषित होता जा रहा है और अब तो ज़मीन के अंदर का पानी भी दूषित हो रहा है किंतु हमें दिखता है तो जलकुंभी का हरापन.

निर्मल पाठक की घर वापसी जलकुंभी को हटा कर इसी सड़े हुए पानी को सामने लाती हुई कहानी है.

न नकारात्मकता के अंधकार वाली है, न ही सकारात्मकता का एक्सेसिव डोज़. बस जो है जैसा है वैसा आपके सामने है. एक ऐसी सीरीज है जो कहानी के इर्द-गिर्द घूमती है.  हर किरदार उस कहानी को जीता हुआ मालूम होता है. एक पूरा जिगसॉ पज़ल है जिसका हर किरदार बिल्कुल सही फिट हुआ है और मध्य में है कहानी - कहानी निर्मल पाठक की.

पहले सीन में जो खयाल आया वह यह कि लिखने वाला कमाल का किस्सागो है. अगर कोई राहुल पांडेय को जनता है तो उन तक मुबारकबाद पहुंचाएं. वॉइस ओवर से पहले सीन में यह सीरीज आपको बांध लेती है हल्के-फुल्के अंदाज में इतनी गहरी बातें कह दी जाती हैं कि उन पर दिनों दिन बहस हो सकती है. शुरुआत में किरदार हंसते हुए कहता है यहां पर नौजवान खलिहर है तो मन बहलाने के लिए झूठ्ठो यही सब कर लेता है.

खलिहर तो पता ही है आपको और यही सब यानि अपहरण , बन्दूक कट्टा दबंगई ! शहर वाले शायद न समझे लेकिन उत्तर प्रदेश बिहार वाले इस दबंगई को यकीनन करीब से देखे होंगे. घरों में जिन बातों पर आज भी ज़्यादातर पुरुषों का ख्याल भी नहीं जाता वो निर्मल को खटकती है. क्यों केवल घर की स्त्री ही सुबह चार बजे से ले कर देर रात तक खटती है. क्यों एक ग्लास पानी भी घर के पुरुष खुद नहीं लेते. क्यों स्त्री से कोई नहीं पूछता की 'खाना खाया ?'

क्यों एक लड़की को कॉलेज के तीसरे साल में बाहर कर दिया जाता है कि ससुराल में पढ़ना. क्यों खाना पकाना बर्तन धोना उसकी शिक्षा से ज्यादा बड़े गुण है. क्यों आपके घर में आने जाने वालों के बर्तन अलग है ? क्यों वो चीनी मिट्टी के कप एक कोने में रहते हैं ?

क्यों नहीं 'उ लोग ' इज़्ज़त से बैठ कर आपके पंगत में खाना खा सकते? इतने क्यों की उलझने और ऊपर से सब सुलझा हुआ.

सीरीज़ में निर्मल पाठक लेखक है! दुनिया को देखने का उसका चश्मा धुंधला नहीं है उसे गलत में बस गलत दिखता है सही में बस सही. गलत सही को वो जाति धर्म परिवार गांव के चश्मे से नहीं देख पाता. कमाल ये है की इतनी बाते इस तरलता से कहानी में गुंथी हुई हैं कि आपको एक भी पल भारी नहीं लगेगा. कहानी की एक झलक भी नहीं दूंगी क्योंकि इसे देखना हम लोगो की ज़िम्मेदारी है ताकि ऐसे कहानियां बने.

किरदारों की बात ज़रूर क्योंकि एक्सपीरियंस स्पीक्स ! मंझे हुए कलाकारों की उपस्तिथि अलग ऊर्जा देती है.

पंकज झा - किरदार जिससे आप भी नाराज हो जाये बिलकुल उन गांव वाले चाचा की तरह जिन्हे अपने गांव जवार और उसमे उनकी जाति की इज्जत के आगे कुछ नज़र नहीं आता

विनीत कुमार - नेता जी! क्या ही कहें! 'चालीस के पहले अगर इंसान लेफ्टिस्ट नहीं हो तो उसमे दिल की कमी है और चालीस के बाद भी अगर लेफ्टिस्ट है तो दिमाग की !' इस लेफ्ट राइट में आपने आज के हर हिंदुस्तानी को समेट लिया.

संतोषी मां - उफ़ कमाल अदायगी! अलका अमीन जी का किरदार घूंघट से झांकती सांवली रंगत, खुरदरे हाथ मीठी ज़बान - परिवार के इर्दगिर्द घूमती मां. 'ई परिवार होय हमार 'कहती हुई मां. क्यों मां के लिए परिवार सबकुछ होता है लेकिन परिवार के लिए माँ सब कुछ नहीं होती ?

आई बेट! ये ख्याल आएगा आपको भी. त्याग कर चले गए पति का इंतज़ार और अपने जीवन की दूसरी स्त्री के लिए भी कुछ स्नेह और उसकी सुंदरता पर मोहती संतोषी, 'केतना गोरहर बाडन' दिल पर घाव देता है.

गेंदा बुआ, रीना, निभा - परिवार की बेटियां. कोई बीते सपनो पर हंसती हुई यथार्थ में जनसंख्या वृद्धि में योगदान दे रही है. कोई हार कर भाग रही है और एक... निभा - पर कुछ नहीं कहना चाहती बस दिल थामे अगले सीज़न का इंतज़ार है. बेटियां उम्मीद है गांव वाले हिंदुस्तान की भी और शहर वाले हिंदुस्तान की भी. उसकी हिम्मत न टूटे

लास्ट बट नॉट लिस्ट वैभव तत्ववादी यू नेल्ड इट! बॉय नेक्स्ट डोर वाली इमेज और प्यारी सी मुस्कराहट! चार नन्हें से बच्चो को गरम मालपुआ खाते देख एक पल में आंख  के आंसू मुस्कराहट में समेट लेते हुए अपनी अदायगी से मन मोह लिया.

साथ ही आकाश मखीजा यानि आतिश - वो किरदार जो आपको उम्मीद देता हुआ उम्मीद तोड़ देता है. छोटे शहरों में बदलाव की उम्मीद नई उम्र की लड़के लड़कियों से होती है लेकिन व्यवस्था उन्हें अजगर की तरह जकड़ती हुई लील लेती है अपने में.

पिछले दो सालों में OTT पर आती हुई कहानियों ने उम्मीद जगाई है कि फ़िल्में और उनकी कहानियां हमें दूर आसमा पर चमकते हुए सितारे तक नहीं बल्कि ज़मीन तक ले जाएंगी. बॉलीवुड ने हमेशा अच्छी कहानियों की कमी को मंहगे लोकेशन , चमकते कपडे मेकअप और माचो हीरो सेक्सी हीरोइन से भरने की कोशिश की है. कहानी के नाम पर एक था हीरो एक थी हीरोइन एक विलेन चार गाने और किरदारों के नाम पर स्टार!

नए फ़िल्मकार उम्मीद हैं- की हम भी अच्छी फिल्मे सीरीज़ अपनी ज़मीनी हकीकत के साथ परोस सकते है और देखने सुनने वालों में भी स्टार को छोड़ कर कलाकार को समझने की बौद्धिक क्षमता है.

नोट : इस सीरीज़ का संगीत, गांव की खुशबु लिए आपके दिल के तार छेड़ेगा... कमाल करते हैं पांडे जी ! पांच एपिसोड में पांच बार दिल लूटा इस सीरीज़ ने!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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