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'अनारकली' तुम लड़कर खूबसूरत बनो

    • ऋचा साकल्ले
    • Updated: 26 मार्च, 2017 12:26 PM
  • 26 मार्च, 2017 12:26 PM
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फिल्म के डायरेक्टर अविनाश ने फिल्म में अनारकली के तर्कों के माध्यम से समाज के गाल पर कई थप्पड़ जड़े हैं. अगर आप ये फिल्म नहीं देखने वाले हैं तो यकीनन एक बॉलीवुड क्लासिक को मिस कर जाएंगे.

एक लड़ाई जीतकर... सुनसान सड़क पर लंबी सांस भरकर.. घाघरा हिलाते... मटकते... चोटी संवारते.. इतराते चलती हुई अनारकली मुझे फैशन शो में रैंप पर कैटवॉक करती किसी मॉडल से ज्यादा खूबसूरत नजर आ रही थी. सचमुच अनारकली ऑफ आरा के इस आखिरी सीन में मैं अनारकली हो गई मैंने महसूस किया कि अपने होने को गढ़ने के लिए, स्थापित करने के लिए, अपने फैसले के लिए लड़ना सच में खुद को कितना खूबसूरत बना देता है. मुझे प्यार हो गया अनारकली ऑफ आरा से. स्वरा भास्कर की मेहनत से.

अनारकली लड़ती है इसीलिए और खूबसूरत लगती है. बिंदास, बेलौस गानेवाली, मर्दों के सामने खुले मंच पर गाते-गाते अपने ब्लाऊज को एडजेस्ट करने वाली अनारकली मंच पर सबके सामने छेड़खानी करने वाले शहर के दबंग वीसी धर्मेंद्र चौहान (संजय मिश्रा) जिसकी पूरे शहर में धाक है उसे थप्पड़ जड़ने का भी साहस रखती है.

फिल्म के डायरेक्टर अविनाश ने फिल्म में अनारकली के तर्कों के माध्यम से समाज के गाल पर कई थप्पड़ जड़े हैं. उनकी फिल्म एक ऐसे परिवेश में स्त्री के मुद्दों को मजबूत करती है जहां आज भी गुलामी को, बंदिशों को स्त्रियां सदियों से उनकी नियति मानकर जीती चली आ रही है. छेड़खानी हो या रेप हो वो आज भी लड़ने के बारे में पचास बार सोचती हैं.

ऐसे में एक आरा की अनारकली है जो खूबसूरत है. गानेवाली है. अपनी इज्जत करती है और इसीलिए अपने हर फैसले को स्थापित करने की लड़ाई वो लड़ना जानती है. बिल्कुल यही तो सीखना है बाकी स्त्रियों को. उन्हें सीखना होंगे सुंदरता के सही मायने. उन्हें समझना होगा शारीरिक सुंदरता के साथ मानसिक सुंदरता के मायने. हां अनारकलियों उठो, लड़ो अपने लिए और लड़कर खूबसूरत बनो. अनारकली और फिल्म के विलेन वीसी का जब-जब सामना होता है अनारकली अपने तर्कों से अपने हर जवाब से हर बार बाजी मार लेती है. वो वीसी को सिखा कर ही दम लेती है...

एक लड़ाई जीतकर... सुनसान सड़क पर लंबी सांस भरकर.. घाघरा हिलाते... मटकते... चोटी संवारते.. इतराते चलती हुई अनारकली मुझे फैशन शो में रैंप पर कैटवॉक करती किसी मॉडल से ज्यादा खूबसूरत नजर आ रही थी. सचमुच अनारकली ऑफ आरा के इस आखिरी सीन में मैं अनारकली हो गई मैंने महसूस किया कि अपने होने को गढ़ने के लिए, स्थापित करने के लिए, अपने फैसले के लिए लड़ना सच में खुद को कितना खूबसूरत बना देता है. मुझे प्यार हो गया अनारकली ऑफ आरा से. स्वरा भास्कर की मेहनत से.

अनारकली लड़ती है इसीलिए और खूबसूरत लगती है. बिंदास, बेलौस गानेवाली, मर्दों के सामने खुले मंच पर गाते-गाते अपने ब्लाऊज को एडजेस्ट करने वाली अनारकली मंच पर सबके सामने छेड़खानी करने वाले शहर के दबंग वीसी धर्मेंद्र चौहान (संजय मिश्रा) जिसकी पूरे शहर में धाक है उसे थप्पड़ जड़ने का भी साहस रखती है.

फिल्म के डायरेक्टर अविनाश ने फिल्म में अनारकली के तर्कों के माध्यम से समाज के गाल पर कई थप्पड़ जड़े हैं. उनकी फिल्म एक ऐसे परिवेश में स्त्री के मुद्दों को मजबूत करती है जहां आज भी गुलामी को, बंदिशों को स्त्रियां सदियों से उनकी नियति मानकर जीती चली आ रही है. छेड़खानी हो या रेप हो वो आज भी लड़ने के बारे में पचास बार सोचती हैं.

ऐसे में एक आरा की अनारकली है जो खूबसूरत है. गानेवाली है. अपनी इज्जत करती है और इसीलिए अपने हर फैसले को स्थापित करने की लड़ाई वो लड़ना जानती है. बिल्कुल यही तो सीखना है बाकी स्त्रियों को. उन्हें सीखना होंगे सुंदरता के सही मायने. उन्हें समझना होगा शारीरिक सुंदरता के साथ मानसिक सुंदरता के मायने. हां अनारकलियों उठो, लड़ो अपने लिए और लड़कर खूबसूरत बनो. अनारकली और फिल्म के विलेन वीसी का जब-जब सामना होता है अनारकली अपने तर्कों से अपने हर जवाब से हर बार बाजी मार लेती है. वो वीसी को सिखा कर ही दम लेती है कि प्रेमिका से, बीवी से और वेश्या से उसकी मर्जी पूछे बिना उसके साथ छेड़खानी क्या सेक्स तक करने की हिम्मत मत करना. वो कहती है कि अब गुलामी नहीं करेगी स्त्री वो अपने दम पर है और अब वो कहेगी ना और उसकी ना का सम्मान करना होगा, उसकी मर्जी पूछकर ही उसे छूना होगा. अविनाश की फिल्म के गाने तक स्त्री विमर्श के पर्याय बने हैं और हो भी क्यों ना लोकगायिकाएं अपने जीवन को ही तो अपने गाने में रचती हैं. 'हमरा त चौखट के भीतरई जुल्म है... सैंया घुमक्कड़ को धरती भी कम है... देखा सूट बूट जुल्मी तैयार ए मोरा पिया मतलब का यार'... यही नहीं फिल्म का आखिरी गाना 'अब त गुलमिया को ना ना ना' भी अनारकली के विद्रोह के सुरों को लोकगायिकी में बदल देता है. वीसी से लड़ाई का सीक्वेंस तो तांडव से कम नजर नहीं आता. कुछ लोगों को ये लाउड लग सकता है लेकिन मुझे लगता है कि ये प्रभावशाली था. एक लोकगायिका किसी सोफेस्टिकेशन से तो अपनी लड़ाई लड़ेगी नहीं सो मुझे तो प्रजेंटेशन जबरदस्त लगा.

कमी मुझे सिर्फ एक लगी कि फिल्म शुरुआत में इतनी जल्दी भाग रही थी कि पकड़ना मुश्किल हो रहा था लेकिन थप्पड़ मारने वाले सीन के बाद फिल्म ने थोडा ठहराव पकड़ लिया.

स्वरा भास्कर, पंकज त्रिपाठी और संजय मिश्रा तो शानदार है जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है. संदेश प्रधान फिल्म है आज के समाज को ऐसी फिल्मों की जरुरत है. एक अच्छी फिल्म अनारकली ऑफ आरा देने के लिए अविनाश दास को बधाई.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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