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सिनेमा में महात्मा गांधी की मौजूदगी

    • प्रशांत प्रत्युष
    • Updated: 29 जनवरी, 2023 10:42 PM
  • 29 जनवरी, 2023 10:38 PM
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Gandhi Godse Ek Yudh Movie: राजकुमार संतोषी 'गांधी गोडसे एक युद्ध' फिल्म लेकर आए हैं. असहमति-सहमति के विरोधाभास में राजकुमार संतोषी की फिल्म असगर वज़ाहत के नाटक पर आधारित कही जा रही है. फिल्म गांधीजी को महिमामंडित करती है या गोडसे को इसका फैसला दर्शकों के पास रहना चाहिए.

सिनेमा पर महात्मा गांधी की सोच जगजाहिर थी. सिनेमा ही नहीं सिनेमा के लोग भी बापू को पसंद नहीं थे. उन्होंने यहां तक लिखा दिया था 'सिनेमा का बुरा प्रभाव जबरदस्ती लोगों पर पड़ने वाला है.' अपने पूरे जीवन में 1944 में फ़िल्म निर्माता विजय भट्ट के बहुत आग्रह पर 'रामराज्य' और 'मिशन टू मास्को' नामक दो फिल्में देखी थी. इन फिल्मों पर कुछ कहा इसका कोई प्रमाण नहीं है. लेकिन गांधी कई सिनेमा के केंद्र में मुख्य विषय के रूप में मौजूद रहे हैं. उनकी व्यापकता का प्रभाव चाहे वह सहमति के रूप में हो या असहमति के रूप में सिनेमा में मौजूद रहा है.

फिर चाहे वो रिचर्ड एटनबरों की फिल्म 'गांधी' जिसने कई अंतराष्ट्रीय सम्मान बटोरे, एके चेट्टियार की फिल्म 'महात्मा गांधी: द टवेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट' जिसमें जीवित गांधी के सबसे ज्यादा फुटेज और उनके यात्राओं के टेप का इस्तेमाल किया गया, जिसको भारतीय राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने भी देखी. मार्क राबिन्स ने किताब 'नाइन आवर्स टू रामा' जो गांधीजी के आखरी आठ घंटे को समेटने की कोशिश थी.

दिग्गज निर्देशक श्याम बेनेगल ने गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका जे जीवन को 'द मेकिंग आंफ महात्मा' कमल हसन ने महात्मा गांधी के हत्या पर आधारित 'हे राम' में, गांधीजी और उनके बड़े पुत्र हरिलाल के संबंधों पर आधारित नाटक को आधार बनाकर 'गांधी माई फादर' बनी, पर दर्शकों ने सफल नहीं बनाया. विधु विनोद चोपड़ा  और राजकुमार हीरानी ने 'मुन्ना भाई एमबीबीएस' और 'लगे रहे मुन्नाभाई' में गांधीगिरी का नया तड़का लगा पेश किया. इसको सभी ने बहुत पसंद किया.

इसके बाद जाहनु बरुआ की फिल्म 'मैंने गांधी को नहीं मारा' राकेश रंजन कपूर की फिल्म 'फ्रेण्ड हिटलर', केतन मेहता की फिल्म 'सरदार' में कहानी के केंद्र में महात्मा गांधी रहे है. यहां तक...

सिनेमा पर महात्मा गांधी की सोच जगजाहिर थी. सिनेमा ही नहीं सिनेमा के लोग भी बापू को पसंद नहीं थे. उन्होंने यहां तक लिखा दिया था 'सिनेमा का बुरा प्रभाव जबरदस्ती लोगों पर पड़ने वाला है.' अपने पूरे जीवन में 1944 में फ़िल्म निर्माता विजय भट्ट के बहुत आग्रह पर 'रामराज्य' और 'मिशन टू मास्को' नामक दो फिल्में देखी थी. इन फिल्मों पर कुछ कहा इसका कोई प्रमाण नहीं है. लेकिन गांधी कई सिनेमा के केंद्र में मुख्य विषय के रूप में मौजूद रहे हैं. उनकी व्यापकता का प्रभाव चाहे वह सहमति के रूप में हो या असहमति के रूप में सिनेमा में मौजूद रहा है.

फिर चाहे वो रिचर्ड एटनबरों की फिल्म 'गांधी' जिसने कई अंतराष्ट्रीय सम्मान बटोरे, एके चेट्टियार की फिल्म 'महात्मा गांधी: द टवेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट' जिसमें जीवित गांधी के सबसे ज्यादा फुटेज और उनके यात्राओं के टेप का इस्तेमाल किया गया, जिसको भारतीय राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने भी देखी. मार्क राबिन्स ने किताब 'नाइन आवर्स टू रामा' जो गांधीजी के आखरी आठ घंटे को समेटने की कोशिश थी.

दिग्गज निर्देशक श्याम बेनेगल ने गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका जे जीवन को 'द मेकिंग आंफ महात्मा' कमल हसन ने महात्मा गांधी के हत्या पर आधारित 'हे राम' में, गांधीजी और उनके बड़े पुत्र हरिलाल के संबंधों पर आधारित नाटक को आधार बनाकर 'गांधी माई फादर' बनी, पर दर्शकों ने सफल नहीं बनाया. विधु विनोद चोपड़ा  और राजकुमार हीरानी ने 'मुन्ना भाई एमबीबीएस' और 'लगे रहे मुन्नाभाई' में गांधीगिरी का नया तड़का लगा पेश किया. इसको सभी ने बहुत पसंद किया.

इसके बाद जाहनु बरुआ की फिल्म 'मैंने गांधी को नहीं मारा' राकेश रंजन कपूर की फिल्म 'फ्रेण्ड हिटलर', केतन मेहता की फिल्म 'सरदार' में कहानी के केंद्र में महात्मा गांधी रहे है. यहां तक गांधीवादी प्रभाव पर वी. शन्ताराम की फिल्म 'दो आंखे बारह हाथ' और प्रकाश झा की फिल्म 'सत्याग्रह' भी है. इस साल राजकुमार संतोषी 'गांधी गोडसे एक युद्ध' फिल्म लेकर आए हैं. असहमति-सहमति के विरोधाभास में राजकुमार संतोषी 'गांधी गोडसे एक युद्ध' फिल्म असगर वज़ाहत के नाटक पर आधारित कही जा रही है.

फिल्म गांधी को महिमामंडित करती है या गोडसे को इसका फैसला दर्शकों के पास है. लेकिन इस बात से इंकार नहीं कर सकते है कि फिल्मों में कोई रुचि नहीं रखने वाले महात्मा गांधी सिनेमा माध्यम के केंद्र में हमेशा से रहे है और रहेंगे. अपनी विचारधारा के साथ, जिसको गांधीवादी विचारधारा कहा जाता है, अन्य विचारधाराओं से संवाद करते हुए. जिस विचारधरा को तीन गोलिया नहीं मार सकी. न जाने कितनी मूर्तियों को तोड़ने के बाद भी आज उनकी विचारधारा प्रासंगिक मानी जा रही है.

उस विचारधारा को किसी फिल्म से मटियामेट या गडबाय गांधी कहकर सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है. तमाम कोशिशों के बाद वह फिर से उठ खड़ी होगी. जैसे आंधी-तूफान झेलता हुआ विशाल वृक्ष गिर जाता है लेकिन घास थोड़ी देर झुक जाने के बाद फिर से खड़ा हो जाता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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