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लो बजट फिल्में यानी हिंदी सिनेमा के अच्छे दिन

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 22 सितम्बर, 2018 04:52 PM
  • 22 सितम्बर, 2018 04:52 PM
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मैं करण जौहर और भंसाली की भव्य फिल्में देखने अब थिएटर नहीं जाती. मुझे वो unrealistic लगती हैं जबकि ये कम बजट वाली फिल्में मेरी फिल्म देखने की भूख को शांत करती हैं.

अगर आप सोचते हैं कि ढ़ेर सारा पैसा बनाने के लिए ढेर सारा पैसा ही लगाना पड़ता है, तो आप गलत सोचते हैं. हमारा बॉलीवुड तो कम से कम इस बात को गलत साबित करता है. यहां फिल्में बनती हैं, हिट भी होती हैं और फ्लॉप भी. ढ़ेर सारा पैसा लगाकर बनाई गई फिल्म अगर दर्शकों को पसंद नहीं आई तो फिल्म फ्लॉप हो जाती है और निर्माता रोड पर आ जाता है. इस रिस्क से बचने के लिए निर्माताओं ने एक सेफ ऑप्शन चुना है. वो है लो बजट सिनेमा. बड़े-बड़े निर्माता अब छोटी फिल्में बना रहे हैं, जो बेहद कम बजट में बनती हैं और सफल भी होती हैं.

इस हफ्ते भी तीन फिल्में इसी कैटेगरी में रिलीज़ हुई हैं. शाहिद कपूर की 'बत्ती गुल मीटर चालू', नंदिता दास द्वारा निर्देशित 'मंटो' और ऋचा चड्ढ़ा और नील नितिन मुकेेश की लव स्टोरी 'इश्केरिया'.

मंटो का किरदार निभा रहे हैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी जिन्हें देखने के लिए दर्शक काफी संय से इंतजार कर रहे हैं.

नितिन मुकेश ने काफी समय बाद कोई फिल्म की है. ऋचा चड्ढ़ा और नील दोनों इस फिर्म को लेकर काफी उत्साहित हैं.

क्यों सफलता की गारंटी हैं ये छोटी फिल्में

पिछले कुछ सालों में लोगों का फिल्में देखने का नजरिया काफी बदल गया है. फिल्में उनकी भव्यता की वजह से नहीं देखी जा रहीं, बल्कि ये  परखकर देखी जा रही हैं कि उनकी कहानी बाकी फिल्मों से कितनी अलग है. और यही चीज़ बॉलीवुड के लो बजट सिनेमा के इतना सफल होने का राज है.

इनमें न भारी भरकम स्टार कास्ट होगी, न बड़ी-ब़ड़ी लोकेशन्स, और न ही तड़कते भड़कते आइटम सॉन्ग ही आपको देखने मिलेंगे. यहां ध्यान सिर्फ फिल्म की स्क्रिप्ट पर दिया जाता है, जो किसी न किसी तरह दर्शकों के दिल में उतर जाती है. लो बजट फिल्मों में बजट तो कम होगा लेकिन एक बात और ध्यान देने वाली होती है. इसमें कहानी हाई-फाई न होकर मध्यमवर्गीय लोगों को ध्यान में रखकर ही बनाई गई होता है. जिससे लोग उनसे रिलेट कर सकें. फिल्मों की लोकेशन्स लंदन पैरिस न होकर छोटे शहर जैसे...

अगर आप सोचते हैं कि ढ़ेर सारा पैसा बनाने के लिए ढेर सारा पैसा ही लगाना पड़ता है, तो आप गलत सोचते हैं. हमारा बॉलीवुड तो कम से कम इस बात को गलत साबित करता है. यहां फिल्में बनती हैं, हिट भी होती हैं और फ्लॉप भी. ढ़ेर सारा पैसा लगाकर बनाई गई फिल्म अगर दर्शकों को पसंद नहीं आई तो फिल्म फ्लॉप हो जाती है और निर्माता रोड पर आ जाता है. इस रिस्क से बचने के लिए निर्माताओं ने एक सेफ ऑप्शन चुना है. वो है लो बजट सिनेमा. बड़े-बड़े निर्माता अब छोटी फिल्में बना रहे हैं, जो बेहद कम बजट में बनती हैं और सफल भी होती हैं.

इस हफ्ते भी तीन फिल्में इसी कैटेगरी में रिलीज़ हुई हैं. शाहिद कपूर की 'बत्ती गुल मीटर चालू', नंदिता दास द्वारा निर्देशित 'मंटो' और ऋचा चड्ढ़ा और नील नितिन मुकेेश की लव स्टोरी 'इश्केरिया'.

मंटो का किरदार निभा रहे हैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी जिन्हें देखने के लिए दर्शक काफी संय से इंतजार कर रहे हैं.

नितिन मुकेश ने काफी समय बाद कोई फिल्म की है. ऋचा चड्ढ़ा और नील दोनों इस फिर्म को लेकर काफी उत्साहित हैं.

क्यों सफलता की गारंटी हैं ये छोटी फिल्में

पिछले कुछ सालों में लोगों का फिल्में देखने का नजरिया काफी बदल गया है. फिल्में उनकी भव्यता की वजह से नहीं देखी जा रहीं, बल्कि ये  परखकर देखी जा रही हैं कि उनकी कहानी बाकी फिल्मों से कितनी अलग है. और यही चीज़ बॉलीवुड के लो बजट सिनेमा के इतना सफल होने का राज है.

इनमें न भारी भरकम स्टार कास्ट होगी, न बड़ी-ब़ड़ी लोकेशन्स, और न ही तड़कते भड़कते आइटम सॉन्ग ही आपको देखने मिलेंगे. यहां ध्यान सिर्फ फिल्म की स्क्रिप्ट पर दिया जाता है, जो किसी न किसी तरह दर्शकों के दिल में उतर जाती है. लो बजट फिल्मों में बजट तो कम होगा लेकिन एक बात और ध्यान देने वाली होती है. इसमें कहानी हाई-फाई न होकर मध्यमवर्गीय लोगों को ध्यान में रखकर ही बनाई गई होता है. जिससे लोग उनसे रिलेट कर सकें. फिल्मों की लोकेशन्स लंदन पैरिस न होकर छोटे शहर जैसे बरेली, मेरठ और गाजियाबाद हो जाते हैं. और उसमें स्थानीय भाषा का इस्तेमाल इतनी खूबसूरती से किया जाता है कि वो लोगों को अपनी सी लगने लगती हैं.

अब दर्शकों की पसंद हैं ये लो बजट फिल्में

खास बात ये भी है कि इन फिल्मों के कलाकार भी आपको वैसे ही मिलेंगे. हाईफाई हीरो हीरोइन न होकर वो लोग जो कम में संतोष करने वाले होते हैं जैसे आयूषमान खुराना, भूमि पेड़नेकर, राजकुमार राव आदि और बाकी सह कलाकार थिएटर और अभिनय क्षेत्र के नामी लोग जो अपना जानदार अभिनय कौशल दिखाकर हर किरदार में डूब जाते हैं. और जरा भई नकली नहीं लगते. जैसे- पंकज त्रिपाठी, संजय मिश्रा, सीमा पाहवा आदि.

ये फिल्में मील का पत्थर साबित हुईं-

वैसे तो पिछले कुछ सालों में बहुत सी फिल्में आईं लेकिन इन लो बजट फिल्मों का जिक्र करना जरूरी हो जाता है क्योंकि इन फिल्मों ने बॉलीवुड को कुछ नया करने के लिए प्रेरित किया-

पान सिंह तोमर- 4.5 करोड़ में बनी और 28 करोड़ का बिज़नेस किया

कहानी- 8 रोड़ में बनी और 104 करोड़ कमाए

विकी डोनर- 5 करोड़ में बनी और 65 करोड़ कमाए

तनु वेड्स मनू- 17 करोड़ में बनी और 50 करोड़ रुपए का बिज़नेस किया

पीपली लाइव- 10 करोड़ में बनी और 47 करोड़ कमाए

टॉयलेट एक प्रेम कथा- 18 करोड़ लागत और 212 करोड़ का मुनाफा

तारे जमीन पर- 1.2 करोड़ में बनी और 88 करोड़ कामए

इंगलिश विंगलिश- 11 करोड़ लागत और 78 करोड़ मुनाफा

आंकड़े बता रहे हैं कि क्यों आज अच्छे और बड़े निर्माता निर्देशक छोटी फिल्मों पर पैसा लगा रहे हैं.

बहुतों की उम्मीद हैं ये लो बजट फिल्में

फिल्मों की सफलता हमेशा उसकी कमाई से ही जोड़ी जाती रही है. जबकी सच मानिए तो ऐसी कितनी ही फिल्में हैं जिन्हें आप ये सोचकर थिएटर में देखने ही नहीं गए कि लो बजट फिल्म है, क्या चलेगी. लेकिन टीवी पर जब उन फिल्मों को देखा तो अफसोस किया कि काश इन्हें हॉल पर देखा होता. वैसे ऐसा सोचने वाले वही लोग होते हैं जिन्हें फिल्में देखने का शौक होता है. और फिल्म में कहानी बढ़िेया हो तो पैसे वसूल हो जाते हैं. तब ये भी मायने नहीं रखता कि ये फिल्म बिजनेस के लिहाज से हिट हुई के नहीं हुई.    

आजकल आ रही लो बजट फिल्मों में उम्मीद दिखाई देती है. इन फिल्मों ने न सिर्फ फिल्म मेकर्स को अपने नए और अनोखे आइडियाज़ पर काम करने की छूट दी बल्कि नए कलाकारों के लिए भी एक जमीन तैयार की है. क्योंकि इसमें कुछ खोने का रिस्क खत्म हो जाता है और हिट हुई तो फिर किस्मत बदल जाती है. क्योंकि वो काम उन्हें अवार्ड और पहचान दोनों दिलाता है.

ऐसी कई फिल्में हैं जिन्हें न तो सुपरहिट कहा गया और न ही फ्लॉप. बल्कि इन्होंने तो पैसा भी कमाकर दे दिया. अगर नहीं देखी हों तो ये फिल्मों आप भी देखिएगा. जैसे- मसान, अनारकली ऑफ आरा, Margarita, with a Straw, न्यूटन, क्वीन, अंग्रेजी में कहते हैं, हिंदी मीडियम, ऑक्टूबर, गुड़गांव, सारे जहां से महंगा, लंच बॉक्स तल्वार आदि.

इन फिल्मों ने बॉलीवुड को बेहतरीन एक्टर्स भी दिए-

हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि ये फिल्में न बनी होतीं तो बहुत से बेहतरीन एक्टर्स घर बैठे होते, जिन्हें काम नहीं मिल रहा होता और बहुत से नए टेलेंटेड एक्टर्स आज होते ही नहीं.

संजय मिश्रा जैसे कलाकार जो पहले किसी फिल्म में सिर्फ कॉमेडी करते नजर आ जाते थे, आज हम उनके अभिनय की बारीकियां देख रहे हैं, वो पूरी फिल्म खुद के कंधों पर खींच रहे हैं. 'अनारकली ऑफ आरा' 'अंग्रेजी में कहते हैं' 'सारे जहां से महंगा 'देखिए आपको समझ आएगा कि आप बॉलीवुड की ढर्राऊ फिल्मों में क्या मिस कर रहे थे.

पंकज त्रिपाठी और संजय मिश्रा का अभिनय अब सर चढ़कर बोल रहा है

पंकज त्रिपाठी भी इन्हीं फिल्मों की देन हैं जिन्हें 'न्यूटन' के लिए नेशनल अवार्ड भी मिला. उनकी अदाकारी आपको कभी ओवर नहीं लगेगी. भले ही ये स्क्रीन पर कुछ देर के लिए ही दिखें लेकिन अपनी उपस्थिति बहुत मजबूती के साथ दर्ज करवाते हैं.

'मसान' ने फिल्मों में आने वाले विक्की कौशल ने कई फिल्मों दी हैं और खुद को स्थापित किया है. राजकुमार राव भी 2010 से बॉलीवुड में हैं और छोटी फिल्मों में ही दिखे. शाहिद, न्यूटन, ट्रैप्ड, बरेली की बर्फी जैसी तमाम फिल्मों में वो काम किया जिसकी बदौलत आज इनकी गिनती बॉलीवुड के बेहतरीन कलाकारों में होने लगी है.

इनके अलावा आयुषमान खुराना की हर फिल्म देखने लायक होती है. 'विकी डोनर', 'दम लगा के हइशा' 'बरेली की बर्फी' जैसी फिल्मों को आप नापसंद कर ही नहीं सकते. और आने वाली फिल्म 'बधाई' हो की कहानी के तो कहने ही क्या.

इन कलाकारों की एक भी फिल्म लोग अब मिस नहीं करना चाहते

नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इरफान खान जैसे कलाकार आज अगर अभिनय जगत के सूरमा कहे जाते हैं तो इसका श्रेय भी छोटी फिल्मों को ही दिया जाना चाहिए.

पर्सनली बताऊं तो मैं करण जौहर और भंसाली की भव्य फिल्में देखने अब थिएटर नहीं जाती. मुझे वो अनरियलिस्टिक लगती हैं जबकि ये लो बजट फिल्में मेरी फिल्म देखने की भूख को शांत करती हैं. और फिर मैं अकेली ही क्यों, मेरे जासे लाखों लोगों की यही डिमांड है. अब कहिए क्या ये हिंदी सिनेमा के अच्छे दिन नहीं हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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