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घरेलू हिंसा की शिकार तक़रीबन हर महिला का जीवन Darlings की तर्ज पर ही चलता है

    • पल्लवी विनोद
    • Updated: 08 अगस्त, 2022 09:07 PM
  • 08 अगस्त, 2022 09:07 PM
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Netflix पर हालिया रिलीज फिल्म Darlings का अंत थोड़ा अलग है और घरेलू हिंसा को सहने वाली सभी औरतों के लिए एक संदेश देता है. कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती जैसे किसी की हिंसक प्रवृत्ति... इस संदेश को दर्शकों तक पहुंचाने में सफल रही इस मूवी की टीम को बहुत बधाई. पर शायद इसे और बेहतरीन ढंग से दर्शाया जा सकता था.

5 अगस्त को नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुई इस मूवी को देखने का फ़ैसला बस यही सोच कर किया था कि कुछ हो न हो आलिया और शेफाली शाह की शानदार अदाकारी के कुछ लम्हे ज़रूर होंगे और इन दोनों ने ही मुझे निराश नहीं किया. बल्कि शेफाली और आलिया के साथ विजय वर्मा और रोशन मैथ्यू भी अपने किरदार में पूरी तरह उतर गए हैं. पर निर्देशक 'जसमीत के रीन' ने घरेलू हिंसा जैसे अत्यंत संवेदनशील विषय पर बुनी पटकथा में हास्य का विरंजन डाल कर इसके रंगों को थोड़ा फीका कर दिया है. कहानी की शुरुआत एक प्रेमी जोड़े के प्रेम भरी बातों से होती है जो शादी के बन्धन में बंधने के लिए बेक़रार हैं. दूसरे ही सीन में कहानी तीन साल आगे बढ़ जाती है जहां खाने में कंकड़ के कारण वही लड़का जो पति बन चुका है अपनी पत्नी बनी प्रेमिका को पीट रहा है. लड़की की आवाज़ पड़ोसियों तक जाती है और कोई कुछ नहीं करता.

अगली सुबह ही वो लड़का फिर से अपनी मीठी बातों में लड़की को उलझा कर सब कुछ सामान्य कर देता है. फिर ये सिलसिला आगे भी चलता रहता है. इन परिस्थितियों में कुछ भी बनावटी नहीं है ना किसी अभिव्यंजना की अतिरेकता के साथ इसे परोसा गया है.

Darlings का प्लाट गंभीर था लेकिन जिस तरह उसमें हास्य को पिरोया गया वो बेहद अजीब है

घरेलू हिंसा की शिकार तक़रीबन हर महिला का जीवन इसी तरह चलता है. आर्थिक स्थिति के अनुसार कुछ बदलाव हो सकते हैं लेकिन अक्सर यही होता है. कभी आर्थिक कभी मानसिक कारणों से औरतें इस शोषण को सहती जाती हैं. कुछ की ज़िंदगी आगे चलकर थोड़ी ठीक होती है तो कुछ का अंत हो जाता है.

इस मूवी का अंत थोड़ा अलग है और घरेलू हिंसा को सहने वाली सभी औरतों के लिए एक संदेश देता है. कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती जैसे किसी की हिंसक प्रवृत्ति….. इस संदेश को दर्शकों तक पहुँचाने में सफल रही इस मूवी...

5 अगस्त को नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुई इस मूवी को देखने का फ़ैसला बस यही सोच कर किया था कि कुछ हो न हो आलिया और शेफाली शाह की शानदार अदाकारी के कुछ लम्हे ज़रूर होंगे और इन दोनों ने ही मुझे निराश नहीं किया. बल्कि शेफाली और आलिया के साथ विजय वर्मा और रोशन मैथ्यू भी अपने किरदार में पूरी तरह उतर गए हैं. पर निर्देशक 'जसमीत के रीन' ने घरेलू हिंसा जैसे अत्यंत संवेदनशील विषय पर बुनी पटकथा में हास्य का विरंजन डाल कर इसके रंगों को थोड़ा फीका कर दिया है. कहानी की शुरुआत एक प्रेमी जोड़े के प्रेम भरी बातों से होती है जो शादी के बन्धन में बंधने के लिए बेक़रार हैं. दूसरे ही सीन में कहानी तीन साल आगे बढ़ जाती है जहां खाने में कंकड़ के कारण वही लड़का जो पति बन चुका है अपनी पत्नी बनी प्रेमिका को पीट रहा है. लड़की की आवाज़ पड़ोसियों तक जाती है और कोई कुछ नहीं करता.

अगली सुबह ही वो लड़का फिर से अपनी मीठी बातों में लड़की को उलझा कर सब कुछ सामान्य कर देता है. फिर ये सिलसिला आगे भी चलता रहता है. इन परिस्थितियों में कुछ भी बनावटी नहीं है ना किसी अभिव्यंजना की अतिरेकता के साथ इसे परोसा गया है.

Darlings का प्लाट गंभीर था लेकिन जिस तरह उसमें हास्य को पिरोया गया वो बेहद अजीब है

घरेलू हिंसा की शिकार तक़रीबन हर महिला का जीवन इसी तरह चलता है. आर्थिक स्थिति के अनुसार कुछ बदलाव हो सकते हैं लेकिन अक्सर यही होता है. कभी आर्थिक कभी मानसिक कारणों से औरतें इस शोषण को सहती जाती हैं. कुछ की ज़िंदगी आगे चलकर थोड़ी ठीक होती है तो कुछ का अंत हो जाता है.

इस मूवी का अंत थोड़ा अलग है और घरेलू हिंसा को सहने वाली सभी औरतों के लिए एक संदेश देता है. कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती जैसे किसी की हिंसक प्रवृत्ति….. इस संदेश को दर्शकों तक पहुँचाने में सफल रही इस मूवी की टीम को बहुत बधाई. पर शायद इसे और बेहतरीन ढंग से दर्शाया जा सकता था. आलिया ने एक बार फिर अपनी बेहतरीन अदाकारी से विस्मित किया है तो शेफाली हर फ़्रेम में सम्मोहित कर रही हैं.

अपनी बेटी के साथ होते दुर्व्यवहार को देख उनकी आंखों में उतरता ग़ुस्सा, उनकी बेचैनी, छटपटाहट दर्शकों को भी महसूस होती है. हमज़ा का किरदार निभाते “विजय वर्मा” ने एक हिंसक और अल्कोहलिक पति का किरदार बखूबी निभाया तो रोशन भी 'जुल्फ़ी' के किरदार को जीवंत कर गए हैं.

घरेलू हिंसा पर सन 2006 में ऐश्वर्या राय की एक फ़िल्म ‘प्रोवोक्ड’आ चुकी है. जिसके कुछ दृश्यों ने रुला दिया था. वो दृश्य आज भी ज़ेहन में बसे हुए हैं. असल में घरेलू हिंसा किसी भी औरत को शारीरिक और मानसिक रूप से तोड़ कर रख देती है.पर उस मूवी का अंत हिंसा से बाहर निकलने का व्यवहारिक तरीक़ा नहीं था. ‘डार्लिंग्स’ में भी घरेलू हिंसा की अंदरूनी परतों को खोला गया है.

रात को मार खाती औरत सुबह होते ही ना सिर्फ़ सामान्य हो जाती है बल्कि जीवन के सुंदर सपने भी देखने लगती है. घर हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा, बच्चा होगा तो सब ठीक हो जाएगा, शराब छूट जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा, इस तरह की उम्मीदें उन्हें इन परिस्थितियों से निकलने ही नहीं देती. जबकि वास्तविक जीवन में कुछ ठीक नहीं होता. इस सत्य को समझाने में यह मूवी पूरे नम्बर बटोर लेती है.

हां उन परिस्थितियों में हास्य बोध उत्पन्न करके इसकी संवेदनशीलता को थोड़ा कम कर दिया गया है. फिर भी इस फ़िल्म को ज़रूर देखा जाना चाहिए. दर्शकों में छिपे किसी एक हमज़ा को भी अगर अपना गंदा चेहरा दिखाई देता है तो शायद वो ख़ुद को सुधारने की कोशिश करे. लेकिन ये फ़िल्म हमज़ाओं को सुधारने के लिए नहीं बनी है इसका एकमात्र उद्देश्य हमारे आस-पास बैठी बहुत सारी बदरू को उनकी ज़िंदगी का काला सच दिखाना है.

एक ही वाक्य में उन्हें इस सच को समझाया गया है कि उन पर जुल्म इसलिए होता है क्योंकि वो होने देती हैं. हर औरत को ख़ुद और उसके साथ होती हिंसा को समझने और उससे बाहर निकलने की प्रेरणा देती इस सार्थक मूवी को दर्शकों तक ज़रूर पहुंचनी चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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