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अडूर को यूं ही नहीं कहा जाता मलयालम फिल्‍मों का 'स्टीवन स्पीलबर्ग'!

    • मनीष जैसल
    • Updated: 03 जुलाई, 2018 10:34 PM
  • 03 जुलाई, 2018 10:34 PM
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रचनात्मकता के लिहाज से बॉलीवुड फिल्मों की आलोचना करने वाले अडूर गोपालकृष्णन का शुमार दक्षिण के उन निर्देशकों में हैं जिन्होंने दक्षिण विशेषकर मलयाली सिनेमा को एक अलग मुकाम पर पहुंचाया है.

इटली और फ्रांस के नवप्रयोगवादी निर्देशकों के प्रयोगों का ही प्रतिफल था जिससे भारत में समानान्तर सिनेमा की नींव पड़ी थी. वहीं विभिन्न क्षेत्रीय सिनेमा में भी इसका प्रभाव पड़ा. केरल फिल्म सोसाइटी से जुड़े प्रमुख फ़िल्मकारों में से एक अडूर गोपालकृष्णन ने फिल्मों के माध्यम से समाज का पुनरुत्थान करने की जो सोच उन दिनों अपने अन्तर्मन में विकसित की थी वह आज भी उसी गति से प्रगति कर रही है. अडूर मलयाली सिनेमा के उन फ़िल्मकारों में से एक हैं जिन्होने मलयाली सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय फ़लक पर पहुंचाने का काम किया है.

हमेशा से ही थियेटर की तरफ चाह रखने वाले अडूर ने 1972 में फिल्म स्वयंवरम का निर्माण किया, यही फिल्म मलयाली समानान्तर सिनेमा की पहली फिल्म भी है. फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तो प्राप्त किया ही, साथ ही यह पहली ऐसी मलयाली फिल्म भी बनी जिसके निर्देशक को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था. इसके बाद की कड़ी में अन्य फ़िल्मकार एम. टी. वासुदेव, जी अरविंदम, केपी कुमारन आदि का नाम जुड़ता चला गया.

अडूर गोपालकृष्णन ने मलयाली सिनेमा को उस मुकाम पर पहुंचाया है जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो

अडूर गोपालकृष्णन ने जिस मलयाली सिनेमा के स्वरूप को बदला था उसे आज भी दुनिया भर में सराहा जाता है. उनकी ही एक फिल्म एलिप्पथायम, जिसका निर्देशन उन्होने 1981 में किया था  उसे ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट अवार्ड भी मिला था. केरल में फिल्म माध्यम के लोकप्रिय होने के पीछे के तर्कों पर ध्यान दें तो पाएंगे कि अडूर ने इसमें सराहनीय भूमिका निभाई थी. 1961 में जहां सिर्फ 11 मलयाली फिल्में बनी थी वही संख्या 1971 में बढ़कर 44 हो जाती है. 1979 तक पहुंचते पहुंचते 122 के करीब फिल्में बनने लगती हैं. 1983-84 में यह आंकड़ा हिन्दी फिल्मों के निर्माण से भी आगे बढ़ जाता...

इटली और फ्रांस के नवप्रयोगवादी निर्देशकों के प्रयोगों का ही प्रतिफल था जिससे भारत में समानान्तर सिनेमा की नींव पड़ी थी. वहीं विभिन्न क्षेत्रीय सिनेमा में भी इसका प्रभाव पड़ा. केरल फिल्म सोसाइटी से जुड़े प्रमुख फ़िल्मकारों में से एक अडूर गोपालकृष्णन ने फिल्मों के माध्यम से समाज का पुनरुत्थान करने की जो सोच उन दिनों अपने अन्तर्मन में विकसित की थी वह आज भी उसी गति से प्रगति कर रही है. अडूर मलयाली सिनेमा के उन फ़िल्मकारों में से एक हैं जिन्होने मलयाली सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय फ़लक पर पहुंचाने का काम किया है.

हमेशा से ही थियेटर की तरफ चाह रखने वाले अडूर ने 1972 में फिल्म स्वयंवरम का निर्माण किया, यही फिल्म मलयाली समानान्तर सिनेमा की पहली फिल्म भी है. फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तो प्राप्त किया ही, साथ ही यह पहली ऐसी मलयाली फिल्म भी बनी जिसके निर्देशक को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था. इसके बाद की कड़ी में अन्य फ़िल्मकार एम. टी. वासुदेव, जी अरविंदम, केपी कुमारन आदि का नाम जुड़ता चला गया.

अडूर गोपालकृष्णन ने मलयाली सिनेमा को उस मुकाम पर पहुंचाया है जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो

अडूर गोपालकृष्णन ने जिस मलयाली सिनेमा के स्वरूप को बदला था उसे आज भी दुनिया भर में सराहा जाता है. उनकी ही एक फिल्म एलिप्पथायम, जिसका निर्देशन उन्होने 1981 में किया था  उसे ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट अवार्ड भी मिला था. केरल में फिल्म माध्यम के लोकप्रिय होने के पीछे के तर्कों पर ध्यान दें तो पाएंगे कि अडूर ने इसमें सराहनीय भूमिका निभाई थी. 1961 में जहां सिर्फ 11 मलयाली फिल्में बनी थी वही संख्या 1971 में बढ़कर 44 हो जाती है. 1979 तक पहुंचते पहुंचते 122 के करीब फिल्में बनने लगती हैं. 1983-84 में यह आंकड़ा हिन्दी फिल्मों के निर्माण से भी आगे बढ़ जाता है.

3 जुलाई 1941 में त्रावणकोर में जन्में अडूर सिनेमा को एक सशक्त  माध्यम मानते आए हैं. निर्देशक, पटकथा लेखक और निर्माता अडूर सरकार को सिनेमा उद्योग पर सिनेमा नीति विरोधी हस्तक्षेप पर भी आड़े हाथों लेते रहे हैं.1984 में पद्म श्री, 2004 में दादा साहब फाल्के लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड और 2006 में पद्म विभूषण सम्मान पाने वाले अडूर गोपालकृष्णन अपनी स्पष्ट सिने दृष्टि, फिल्मों के विषय और उसके प्रदर्शन संबंधी नीति पर खुलकर विचार रखते हैं.

अडूर मानते हैं कि 'लोग मनोरंजन को हल्केपन से लेते हैं'. लेकिन यह हलकापन उनकी फिल्मों में कहीं नज़र नहीं आता न ही उनके व्यक्तित्व में. किसी फिल्म के विषय का चयन हो या फिर फिल्म से जुड़ी किसी भी प्रकार की राय, वे हमेशा प्रखर होकर अपनी राय रखते हैं. सेंसरशिप को लेकर वह हमेशा ही अपना कडा विरोध दर्ज कराते रहें हैं. 'मैं किसी तरह की सेंसरशिप में भरोसा नहीं करता. मैं नहीं चाहता कि यह बताया जाए कि क्या करना है और क्या नहीं करना है. लोकतंत्र में यह बहुत मूर्खतापूर्ण है. तानाशाही में ही किसी तरह की सेंसरशिप होती है.' खुद 'मुखमुखम', अनंतराम, मतिलुकल जैसी तमाम रोमांचकारी और सामाजिक फिल्मों का निर्माण कर चुके अडूर अब तक 17 राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके हैं.

बात अगर रचनात्मकता की हो तो अडूर मानते हैं कि हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में वो रचनात्मकता नहीं है

अडूर की फिल्मों और उनसे जुड़े कलाकारों को लेकर कई धारणाए काफी विचारणीय हैं. उनसे सिनेमा के पाठकों, दर्शकों और खुद हिन्दी सिनेमा से जुड़े लोगों को संज्ञान लेना चाहिए. बीते वर्षों में हिन्दी भाषा को लेकर दिये गए बयान  को लेकर भले ही अडूर की हिन्दी पट्टी के पाठकों दर्शकों और मीडिया ने खूब आलोचना की लेकिन उनकी हिन्दी सिनेमा को लेकर कही गई बाते कहीं से भी गलत नहीं हैं. अडूर मुंबइया हिन्दी फिल्मों को नहीं देखते,  ऐसा न करने के पीछे उनका मानना है कि वे अपने वक्त की कीमत जानते हैं.

बॉलीवुड में कई कलाकार विश्वस्तरीय तो हैं पर उनका दौर एक लिमिटेड समय तक ही चलता है. सफलता का यह दौर ख़त्म हुआ नहीं कि फिर लोग उनको भूल जाते हैं. अडूर यह कहते भी कहते रहते हैं कि दिलीप कुमार को लोग बिमल रॉय की वजय से याद रखते हैं. बाकि का उनका काम शायद ही किसी को याद हो. सिनेमा के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र तीनों पर अपनी पैनी नज़र रखने वाले अडूर का यह मानना कि जब तक फिल्म माध्यम के प्रसार की स्पष्ट नीति नहीं बनाई जा सकेगी ऐसा ही चलता रहेगा. सरकारी सकारात्मक दखल की आज सबसे ज्यादा जरूरत फिल्म उद्योग को है.

76 वर्षीय अडूर के सिने जीवन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अब तक कई किताबें भी लिखी जा चुकी हैं. जिनमें ललित मोहन जोशी और सी एस वेंकीदेस्वरन की संपादित की हुई ए डोर टू अडूर, गौतमन भाषकरन की अडूर गोपालकृष्णन –ए लाइफ इन सिनेमा, सुरंजन गांगुली की द फिल्म्स ऑफ अडूर गोपालकृष्णन और पार्थजीथ बरुआ की फेस टू फेस- द सिनेमा ऑफ अडूर गोपालकृष्णन प्रमुख है. सभी किताबें प्रतिष्ठित प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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