जय भीम के बहाने जातिवाद के तंत्र पर कुछ लिखने की मेरी अर्हता मेरे नाम में जुड़े सरनेम की वजह से खारिज की जा सकती है. बावजूद फिल्म को लेकर सवाल करना चाहता हूं. और यह अपील भी कि जय भीम जरूर देखिए, और परिवार को दिखाइए. यह फिल्म आपको मनुष्य बने रहने और दूसरों को बराबर समझने की सीख देती है. हां इसे देखते हुए दिमाग में यह बात जरूर खोजिए कि जब तमिलनाडु में यह सबकुछ हो रहा था उस वक्त और उससे पहले वहां कैसा राजनीतिक तंत्र था? यह इसलिए जरूरी है कि आप फिल्म देखने के बाद एक स्पष्ट और ईमानधार धारणा लेकर बाहर निकले. समय हो तो इस (लिंक) से गुजरकर यहां कहानी पर आगे बढ़ें.
जय भीम की कहानी भारतीय समाज व्यवस्था में जाति के उसी नासूर जख्म से उपजे दर्द पर आधारित है जो सूखती ही नहीं. दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिक 'हकीमों' के पास या तो इसका इलाज ही नहीं है या करना ही नहीं चाहते. यह कहानी 1993 में भले ही तमिलनाडु से निकली हो, असलियत में वो अंतहीन सिलसिले की एक कड़ी भर है. चीजें 1993 में पहले से थीं और आज भी जारी ही हैं. जिस इरुलर (इरुला) समुदाय पर यह फिल्म बनी है, उसके कई परिवारों को आज भी पहचान नहीं मिली है. इनसे बंधुआ मजदूरी कराए जाने की खबरेंं आज भी आती हैं. इस समुदाय की गरीबी और बदहाली जस की तस है.
जय भीम से पहले अब तक भारतीय सिनेमा में जातीय उत्पीड़न को लेकर जितनी भी फ़िल्में बनी हैं उनमें यह वैचारिक रूप से सबसे कमजोर है. फिल्म में जाति का सिस्टम और उसके उत्पीड़न की दास्तां का रंग तो उतना ही गहरा है सच्ची कहानी में जितना था. मगर दिक्कत यह है कि फिल्म की कहानी में जो आदिवासी या दलितवादी (आंबेडकरवादी) राजनीतिक दृष्टिकोण होना चाहिए था वही नहीं है. अनुसूचित और आदिवासी समाज से आने वाले हमारे कुछ मित्र सोशल मीडिया पर लिख भी रहे हैं कि "जयभीम आंबेडकरवादी फिल्म तो नहीं...
जय भीम के बहाने जातिवाद के तंत्र पर कुछ लिखने की मेरी अर्हता मेरे नाम में जुड़े सरनेम की वजह से खारिज की जा सकती है. बावजूद फिल्म को लेकर सवाल करना चाहता हूं. और यह अपील भी कि जय भीम जरूर देखिए, और परिवार को दिखाइए. यह फिल्म आपको मनुष्य बने रहने और दूसरों को बराबर समझने की सीख देती है. हां इसे देखते हुए दिमाग में यह बात जरूर खोजिए कि जब तमिलनाडु में यह सबकुछ हो रहा था उस वक्त और उससे पहले वहां कैसा राजनीतिक तंत्र था? यह इसलिए जरूरी है कि आप फिल्म देखने के बाद एक स्पष्ट और ईमानधार धारणा लेकर बाहर निकले. समय हो तो इस (लिंक) से गुजरकर यहां कहानी पर आगे बढ़ें.
जय भीम की कहानी भारतीय समाज व्यवस्था में जाति के उसी नासूर जख्म से उपजे दर्द पर आधारित है जो सूखती ही नहीं. दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिक 'हकीमों' के पास या तो इसका इलाज ही नहीं है या करना ही नहीं चाहते. यह कहानी 1993 में भले ही तमिलनाडु से निकली हो, असलियत में वो अंतहीन सिलसिले की एक कड़ी भर है. चीजें 1993 में पहले से थीं और आज भी जारी ही हैं. जिस इरुलर (इरुला) समुदाय पर यह फिल्म बनी है, उसके कई परिवारों को आज भी पहचान नहीं मिली है. इनसे बंधुआ मजदूरी कराए जाने की खबरेंं आज भी आती हैं. इस समुदाय की गरीबी और बदहाली जस की तस है.
जय भीम से पहले अब तक भारतीय सिनेमा में जातीय उत्पीड़न को लेकर जितनी भी फ़िल्में बनी हैं उनमें यह वैचारिक रूप से सबसे कमजोर है. फिल्म में जाति का सिस्टम और उसके उत्पीड़न की दास्तां का रंग तो उतना ही गहरा है सच्ची कहानी में जितना था. मगर दिक्कत यह है कि फिल्म की कहानी में जो आदिवासी या दलितवादी (आंबेडकरवादी) राजनीतिक दृष्टिकोण होना चाहिए था वही नहीं है. अनुसूचित और आदिवासी समाज से आने वाले हमारे कुछ मित्र सोशल मीडिया पर लिख भी रहे हैं कि "जयभीम आंबेडकरवादी फिल्म तो नहीं है."
जय भीम को पूरी तरह से आंबेडकरवादी फिल्म होना चाहिए था. अगर यह नहीं है तो कुछ ना कुछ लोचा है. असल जीवन के नायक की राजनीतिक पक्षधरता और जय भीम में दिखे प्रतीक बताते हैं कि हकीकत में यह मार्क्सवादी धारा की फिल्म है. हम इसे मंडल के बाद की मार्क्सवादी धारा भी कह सकते हैं. यह वो रूमानी धारा है जो घोषित तौर पर समाजवादी है, मगर संसदीय राजनीति में कहीं और बेहतर सेटल होने के मौके खोजती है और किसी बिंदु पर हमेशा स्पष्ट मूल्यांकन से बचती है. नतीजा यह निकलता है कि लोग इस खेल को समझ नहीं पाते और गुमराह होते हैं. जय भीम देखने के बाद तीन बड़े सवाल दिमाग में जरूर आने चाहिए:
पहला- एक समाज की जाति व्यवस्था को लेकर, खासकर उस वक्त के तमिलनाडु में दूसरा- सरकार और उसके तंत्र को लेकर. तीसरा- तत्कालीन राजनीति को लेकर.
अगर ये सवाल नहीं आ रहे हैं तो फिर से फिल्म को देखते हुए इन सवालों को खोजना जरूरी है.
जय भीम देखते हुए मैंने जो पाया वो ये कि तीनों सवालों को बिल्कुल अलग दिशा दी गई है या फिर गायब कर दिया गया है. टीजे गणनवेल ने यह नहीं दिखाया कि राजकन्नू और सेंगनी के साथ जब यह सबकुछ हो रहा था उस वक्त तमिलनाडु में जयललिता की अन्ना द्रमुक की सरकार थी. और उस वक्त करुनानिधि का द्रमुक विपक्ष में बैठा था. सवाल है कि क्या इस पर चर्चा किए बिना जय भीम का मूल्यांकन सही माना जा सकता है? अगर इन सवालों को नजरअंदाज कर मूल्यांकन किया जाएगा तो वह एजेंडा को प्रचारित करना है.
क्योंकि ये वो पार्टियां हैं जिनकी राजनीति का वजूद ही जातिवाद या यूं कहें कि ब्राह्मणवाद का विरोध रहा है. सिस्टम तो किसी सरकार का ही हिस्सा होता है. पुलिस की कोई भी वैध-अवैध कार्रवाइयों से संबंधित सरकार भला कैसे पल्ला झाड़ सकती है? और ऐसे माहौल में चुप बैठे निष्क्रिय विपक्ष पर क्यों नहीं सवाल होने चाहिए? एक मिनट के लिए फर्ज करिए कि वहां जयललिता की जगह अगर मुख्यमंत्री के रूप में मायावती होतीं और बसपा की सरकार होती तो क्या तब भी राजकन्नू और सेंगनी के साथ घटित अमानवीय मामले में जिम्मेदारी लेने से संबंधित बचने की कोशिश करते. और एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि ऐसा मामला आ भी जाता तो उस पर सरकार क्या करती? बिल्कुल उलट होता मामला.
असल सवाल यही है कि जातिवाद विरोधी सरकार में उत्पीड़न कर रहे लोग कौन थे? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये वही लोग हैं जो अपने ऊपर तो नहीं, मगर नीचे जातिवादी सिस्टम बनाए रखने में यकीन रखते हैं. कल राजकन्नू और सेंगना का उत्पीडन कर रहे थे और आज जय भीम जैसी फिल्म के लिए शाबासी मांग रहे हैं. कहीं ये वे लोग तो नहीं जो जाति विरोध के नाम पर चाहते हैं कि एससी/एसटी तबका उनके साथ कंधा सटाकर खड़ा रहे, मगर उस जाति तंत्र को ख़त्म नहीं करना चाहते हैं. अगर यह सवाल प्रमुखता से किए जाते तो जय भीम में जाति की पेंचीदगी और बेहतर होती. ऊपर के तीन सवालों को लेकर जय भीम देखते हैं तो बिल्कुल ऐसा ही लगता है कि ये वही लोग हैं. इरुलर (इसे उत्तर भारत में मुसहर जाति के रूप में भी देख सकते हैं) समुदाय के लिए क्या फर्क पड़ता है कि उत्पीड़न कर रहा कोई सवर्ण जाति का था या पिछड़ा वर्ग की कोई ताकतवर जाति.
मंडल के बाद पिछले 31 साल में (तमिलनाडु में तो 60 साल) जातिवाद के खिलाफ लोग राजनीतिक रूप से एकजुट हुए, मगर किसी ने उसे तोड़ने या ख़त्म करने का कितना प्रयास किया? प्रयास किया तो उसका हासिल क्या रहा? दक्षिण के राज्यों का मेरा अनुभव नहीं है, मगर महाराष्ट्र में कुछ समय रहने की वजह से उसे अपवाद में शामिल करता हूं. कम से कम महाराष्ट्र में जातीय तंत्र कई मामलों में कमजोर दिखता है. लेकिन उसका वजूद है. दूसरी ओर उत्तर में यूपी, बिहार, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में तो पिछले तीन दशकों में शोषक जातियों की कई नई परतें ही तैयार हुई हैं. अपने आप में यह कितना विरोधाभास है कि जाति का खात्मा करने निकले लोगों ने ही 'जाने-अनजाने' जाति का मजबूत तंत्र खड़ा कर दिया. अपने आसपास देख लीजिए.
जय भीम एक मौका बन सकता था कि परंपरागत और पिछले कुछ दशकों में तैयार हो रहे नए जाति तंत्र के मूल्यांकन का, मगर गणनवेल को पता नहीं किस चीज ने ऐसा करने से रोक दिया. गणनवेल जयभीम के जरिए जातियों की परतों को उधेड़कर नजीर पेश कर सकते थे. फिल्म एजेंडा नहीं होती तो इसमें एक सार्वभौमिक निष्कर्ष निकलकर आता. एजेंडा बन जाने की वजह से सुविधाजनक निष्कर्ष निकल रहे हैं. मैं बिल्कुल भी हैरान नहीं हूं कि जय भीम के बहाने यूपी-बिहार के इलाकों के तमाम लोग सूर्या की 'जाति' गिनाते हुए जय भीम के लिए उन्हें बधाई दे रहे हैं. मुझे हैरानी इस बात पर है कि जो चीजें छिपा ली गईं आखिर उस पर सवाल क्यों नहीं हो रहे हैं?
राजकन्नू और सेंगना की कहानी के बहाने जय भीम में जाति के घटिया सिस्टम पर बात करने की बहुत गुंजाइश थी. ऐसा सिस्टम जिसमें लगभग हर जाति अपने एक ख़ास श्रेष्ठताबोध में ग्रस्त है और उसी के अनुरूप उसका व्यवहार है. लेकिन जय भीम में भी टीजे गणनवेल और सूर्या की टीम ने जातिवाद के खिलाफ प्रचलित सरलीकृत परिभाषा का सहारा लेकर राजकन्नू और सेंगनी के केस के बहाने बहुत ही गंभीर और संवेदनशील बहस को सतही बनाकर उसकी दिशा ही बदल दी.
जय भीम में सुविधाजनक स्थापनाएं हैं. कुछ-कुछ ऐसे साहूकार की तरह जो एक जरूरतमंद बाप को इलाज के लिए कर्ज तो देता है. मगर कुछ रेहन रखने के बाद. और तकाजे में साहूकार कर्ज देने की अपनी सहृदयता और उस टाइमिंग का बार-बार उल्लेख करता रहता है. बावजूद बिना नागा हर महीने कर्ज के बदले मोटा ब्याज वसूल करने आना नहीं भूलता. यह साहूकार जब ब्याज वसूलने आता है तो एक लोटा गर्म दूध मांगकर पीता है और मुफ्त में छप्पर पर फैले बेल से सब्जियां भी तोड़कर घर ले जाता है. राजनीति के वो कौन से साहूकार हैं जो जय भीम के जरिए इरुलर जैसे समुदायों से 'ब्याज' वसूलना चाहते हैं?
जातिवादी तंत्र के खिलाफ इलाज खोज रहे रजिस्टर्ड हकीमों को नुस्खा बदलने की जरूरत है. अगर सच में वो इस तरह के तंत्र का खात्मा चाहते हैं.
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