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Irrfan Khan अब हमारी यादों में हैं और वो यादें वाकई बड़ी खूबसूरत हैं...

    • अंकिता जैन
    • Updated: 29 अप्रिल, 2020 05:42 PM
  • 29 अप्रिल, 2020 05:42 PM
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जैसे ही ये खबर आई कि इरफ़ान खान (Irrfan Khan Death) नहीं रहे लोगों ने अपनी पोटली से उन यादों को निकलना शुरू कर दिया है जिनको सुनकर इस बात का यकीन हो जाता है कि लोग वाक़ई इरफ़ान (Khan) से बहुत प्यार करते हैं.

Irrfan Khan Death : वह 2005 का साल था. कॉलेज की अतरंगी दुनिया के साथ-साथ जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा ही था. बालिग़ हुए तो ऐसा लगा जैसे मोहब्बत करने के लिए सारा आसमान ही किसी ने हमें सौंप दिया हो. ये वही दिन थे जब फ़िल्मों के ऐसे गीत जो मोहब्बत और ग़म से जुड़े होते थे झट से दिल के तारों पर झनझनाने लगते. मेरा कज़न नया-नया गिटार सीख रहा था और उसने अपने गिटार की कॉर्ड्स पर जो पहला सुंदर गीत बजाया वो था 'मैंने दिल से कहा ढूंढ लाना ख़ुशी.' उफ़्फ़ क्या मदहोशी और सुरूर चढ़ा इस गीत का कि मैं दिनभर ही गुनगुनाती रहती. अपने नए-नए मिले आईपॉड में फिर फ़िल्म रोग के सारे गीत भरवाए और लूप में चलाने लगी. तब हम जितने आज़ाद होना चाहते थे घरवाले उतनी ही बेड़ियां डालने की कोशिश करते. घर में सिनेमाघरों में जाकर फ़िल्म देखने का कल्चर तो था नहीं अब कम्प्यूटर में भी सीडी लाकर फ़िल्में देखने पर पाबंदी लगा दी गई. ख़ासकर रोमांटिक फ़िल्में जिनमें हीरोइन ने बोल्डनेस दिखाई हो. मम्मी हर समय नज़र रखतीं कि कम्प्यूटर पर पढ़ाई हो रही है या मनोरंजन. लेकिन जहां जैमर होते हैं वहीं उन्हें तोड़ने की कोशिश भी.

लोगों ने जो किस्से अपनी यादों में संजो कर रखे हैं उनको सुनकर साफ़ है कि लोग इरफान से बहुत प्यार करते हैं मैंने कज़न को उसकी पसंद की लड़की से बात कराने का लालच दिया और उसने मुझे रोग फ़िल्म की सीडी चुपचाप लाकर दी. जिस फ़िल्म के गीतों ने दीवाना बनाया हुआ था वह तो देखनी ही थी. मौका देखकर मम्मी के घर से जाते ही एक दिन फ़िल्म देखी. वह इरफ़ान खान से मेरा पहला परिचय था. घर में छोटे से ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और सिर्फ दूरदर्शन वाला मध्यम वर्गीय परिवार था हमारा. मम्मी ने घर में फुल हिटलर वाला माहौल बना रखा था. फ़िल्म, गीत, घूमना-फिरना, लड़कों से दोस्ती इस सब पर कड़ी नज़र.

सिर्फ...

Irrfan Khan Death : वह 2005 का साल था. कॉलेज की अतरंगी दुनिया के साथ-साथ जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा ही था. बालिग़ हुए तो ऐसा लगा जैसे मोहब्बत करने के लिए सारा आसमान ही किसी ने हमें सौंप दिया हो. ये वही दिन थे जब फ़िल्मों के ऐसे गीत जो मोहब्बत और ग़म से जुड़े होते थे झट से दिल के तारों पर झनझनाने लगते. मेरा कज़न नया-नया गिटार सीख रहा था और उसने अपने गिटार की कॉर्ड्स पर जो पहला सुंदर गीत बजाया वो था 'मैंने दिल से कहा ढूंढ लाना ख़ुशी.' उफ़्फ़ क्या मदहोशी और सुरूर चढ़ा इस गीत का कि मैं दिनभर ही गुनगुनाती रहती. अपने नए-नए मिले आईपॉड में फिर फ़िल्म रोग के सारे गीत भरवाए और लूप में चलाने लगी. तब हम जितने आज़ाद होना चाहते थे घरवाले उतनी ही बेड़ियां डालने की कोशिश करते. घर में सिनेमाघरों में जाकर फ़िल्म देखने का कल्चर तो था नहीं अब कम्प्यूटर में भी सीडी लाकर फ़िल्में देखने पर पाबंदी लगा दी गई. ख़ासकर रोमांटिक फ़िल्में जिनमें हीरोइन ने बोल्डनेस दिखाई हो. मम्मी हर समय नज़र रखतीं कि कम्प्यूटर पर पढ़ाई हो रही है या मनोरंजन. लेकिन जहां जैमर होते हैं वहीं उन्हें तोड़ने की कोशिश भी.

लोगों ने जो किस्से अपनी यादों में संजो कर रखे हैं उनको सुनकर साफ़ है कि लोग इरफान से बहुत प्यार करते हैं मैंने कज़न को उसकी पसंद की लड़की से बात कराने का लालच दिया और उसने मुझे रोग फ़िल्म की सीडी चुपचाप लाकर दी. जिस फ़िल्म के गीतों ने दीवाना बनाया हुआ था वह तो देखनी ही थी. मौका देखकर मम्मी के घर से जाते ही एक दिन फ़िल्म देखी. वह इरफ़ान खान से मेरा पहला परिचय था. घर में छोटे से ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और सिर्फ दूरदर्शन वाला मध्यम वर्गीय परिवार था हमारा. मम्मी ने घर में फुल हिटलर वाला माहौल बना रखा था. फ़िल्म, गीत, घूमना-फिरना, लड़कों से दोस्ती इस सब पर कड़ी नज़र.

सिर्फ पढ़ाई और घर के काम ही आदर्श माने जाते. लेकिन जवानी के दिनों में युवाओं के अपने अलग ही आदर्श सेट होने लगते हैं. इरफ़ान खान से रोग में जो परिचय हुआ वह इस क़दर हावी होने लगा कि मैं अपनी कल्पनाओं में उस हीरो से मिलने के सपने देखने लगी. ऐसा नहीं था कि उस ज़माने में इरफ़ान से ज़्यादा हैंडसम या आकर्षक कोई दूसरा हीरो नहीं था. लेकिन मुझे जो पसंद आया वो इरफ़ान खान ही था. उसकी आंखों में कुछ अलग सा ख़ुमार था.

उसका लहज़ा मुझे लुभाता और उसकी एक्टिंग मुझे फ़ेक नहीं लगती. दूसरे हीरो की तरह ओवरएक्टिंग नहीं लगती. फ़िल्मों के मामले में चूज़ी हमेशा से रही. आर्ट फ़िल्म ज़्यादा पसंद आतीं. इरफ़ान हों या मनोज बाजपेयी, अभय देओल, आशुतोष राणा हों या नसीरुद्दीन ये हमेशा से मेरे पसंदीदा एक्टर रहे. जिनकी शायद ही कोई फ़िल्म मैंने छोड़ी हो.

रोग देखने के बाद मैं इऱफान की दूसरी फ़िल्में खोजने लगी. उनकी नई फ़िल्मों का इंतज़ार करती. मैं इंतज़ार करती कि अब किस रोल में इरफ़ान आएंगे. अपने रोल में जब वे हल्की सी मुस्कान देंगे, जिसे हम 'मुस्की' बोलते हैं तो फिर मेरे दिल के तार झनझना उठेंगे. संडे मैंने जयपुर के राजमंदिर में देखी थी. बहुत रिस्क लेकर वो फ़िल्म देखने गई थी सिर्फ इरफ़ान के लिए.

मेट्रो जब आई तब यूनिवर्सिटी में थी. उसमें इरफ़ान का रोल जितना मज़ेदार था उतना ही दिलकश भी. एक दिलफेंक लेकिन संजीदा आशिक़ ऐसा ही तो होता है. पीकू, मदारी, क़रीब-क़रीब सिंगल, क़िस्सा, लंचबॉक्स, स्लमडॉग मिलेनियर, लाइफ़ ऑफ पाई, कारवां, तलवार, के अलावा पान सिंह तोमर ने हर बार इरफ़ान और उनकी अदाकारी के प्रति मेरी दीवानगी को बढ़ाया.

उनकी एक बात और पसंद आती. फ़ालतू की कॉन्ट्रोवर्सी से दूर, चुनिंदा फ़िल्मों में काम करते. वे जब जानलेवा बीमारी से जीतकर वापस लौटे थे तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे घर का, मेरा अपना कोई फ़र्द वापस आ गया हो. उनके वापस आने ने जितनी ख़ुशी दी थी आज उनके जाने ने दिल को उतना ही उदास कर दिया है. वे तो जीना चाहते थे, अपने लिए, अपनों के लिए और अपनी अदाकारी के लिए भी. पर, शायद ऊपर वाले को उनसे हमसे ज़्यादा मोहब्बत थी.

दुनिया में ऐसे चंद ही लोग हैं जिनसे मिलने की, उनसे रूबरू होकर उन्हें देख लेने की प्रबल इच्छा है. इऱफान उन्हीं में से एक थे. और आज डूबते दिल के साथ यह कहना पड़ रहा है कि अब उन्हें कभी रूबरू नहीं देख पाउंगी. मेरे लड़कपन की मोहब्बत, पंद्रह वर्षों से जिसकी अदाकारी की मैं क़ायल रही वह सुंदर इंसान चला गया. अब दूसरी दुनिया में शायद मिल सकूं एक बार उससे.

जो मेरा हो नही पायेगा इस जहां में कहीं

रुह बनकर मिलूंगा उसको आसमां में कहीं

प्यार धरती पर फरिश्तों से किया नही जाता

खूबसूरत है वो इतना सहा नही जाता.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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