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दिलीप कुमार के दौर में मुस्लिम एक्टर्स ने हिंदू नाम रखे, आमिर-शाहरुख-सलमान के साथ क्या बदला?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 08 जुलाई, 2021 06:10 PM
  • 08 जुलाई, 2021 06:10 PM
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फिल्म इंडस्ट्री के लिए धार्मिक पहचान कितना मायने रखता है इसे आज के सोशल मीडिया ट्रेंड्स में देखा जा सकता है. अब मुस्लिम सितारों की फिल्मों के बहिष्कार की अपील की जाती है. एक जमाने में इंडस्ट्री पर राज करने वाले शाहरुख और सलमान बदले राजनीतिक माहौल में जूझते नजर आ रहे हैं.

मोहम्मद युसूफ खान जिन्हें दुनिया दिलीप कुमार के नाम से जानती है. अब वे हमारे बीच नहीं हैं. उनके निधन के बाद सिर्फ उनसे जुड़ी कहानियां किस्से और बहसें भर हैं. कुछ बहस उनके नाम बदलने को लेकर भी है. खुद दिलीप कुमार 'साब' भी बहुत पहले ये बता चुके हैं कि कब और किसने उनका स्क्रीन नेम मोहम्मद युसूफ खान से दिलीप कुमार कर दिया था. लेकिन ये बातें साफ़ नहीं हुईं कि आखिर उन्हें हिंदू नाम ही क्यों दिया गया? और जिन जरूरतों की वजह से कभी दिलीप साब को अपना नाम बदलना पड़ा फिर आमिर खान, शाहरुख खान और सलमान खान जैसे सितारों को उसकी आवश्यकता क्यों नहीं पड़ी?

दिलीप कुमार का नाम कैसे बदला?

मुस्लिम सितारों के नाम बदलने के ट्रेंड पर बात करने से पहले जान लेते हैं कि आखिर उनका नाम कैसे बदला. गुजरे जमाने की मशहूर अदाकारा और प्रोड्यूसर देविका रानी के अनुरोध पर मोहम्मद युसूफ खान से दिलीप कुमार नाम रखना पड़ा. अपनी जीवनी 'द सबस्टैंस एंड शैडो' में दिलीप कुमार ने लिखा है- देविका रानी ने कहा, यूसुफ मैं आपको एक अभिनेता के रूप में जल्द ही लॉन्च करने के बारे में सोच रही थी. मुझे लगा कि यदि आप एक स्क्रीन नेम अपनाते हैं तो ठीक रहेगा. एक ऐसा नाम जो आपके दर्शकों के लिए उपयुक्त हो. दिलीप कुमार एक अच्छा नाम है.

इसी के बाद 1944 में देविका रानी ने दिलीप कुमार को अपनी फिल्म ज्वार भांटा में मुख्य भूमिका दी थी. दिलीप कुमार नाम बदलने को लेकर असमंजश में थे. जन्म से जवानी तक एक नाम के साथ पहचान रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए ये एक असमंजस की स्थिति होगी. उन्होंने खुद बताया था कि वो नाम नहीं बदलना चाहते थे. मगर पिता सरवर खान की डर की वजह से बाद में उन्हें देविका रानी की सलाह ही ठीक लगी. दरअसल, दिलीप साब के पिता फिल्मों के सख्त खिलाफ थे. पिता को पता ना चल पाए इसी डर में युसूफ खान दिलीप कुमार बन गए. उस जमाने में वैसे भी सिनेमा में काम करने वालों को समाज के एक बड़े तबके में हेय दृष्टि से देखा जाता था. लेकिन क्या ये सिर्फ देविका की एक सामन्य सलाह भर थी या पिता का डर था?...

मोहम्मद युसूफ खान जिन्हें दुनिया दिलीप कुमार के नाम से जानती है. अब वे हमारे बीच नहीं हैं. उनके निधन के बाद सिर्फ उनसे जुड़ी कहानियां किस्से और बहसें भर हैं. कुछ बहस उनके नाम बदलने को लेकर भी है. खुद दिलीप कुमार 'साब' भी बहुत पहले ये बता चुके हैं कि कब और किसने उनका स्क्रीन नेम मोहम्मद युसूफ खान से दिलीप कुमार कर दिया था. लेकिन ये बातें साफ़ नहीं हुईं कि आखिर उन्हें हिंदू नाम ही क्यों दिया गया? और जिन जरूरतों की वजह से कभी दिलीप साब को अपना नाम बदलना पड़ा फिर आमिर खान, शाहरुख खान और सलमान खान जैसे सितारों को उसकी आवश्यकता क्यों नहीं पड़ी?

दिलीप कुमार का नाम कैसे बदला?

मुस्लिम सितारों के नाम बदलने के ट्रेंड पर बात करने से पहले जान लेते हैं कि आखिर उनका नाम कैसे बदला. गुजरे जमाने की मशहूर अदाकारा और प्रोड्यूसर देविका रानी के अनुरोध पर मोहम्मद युसूफ खान से दिलीप कुमार नाम रखना पड़ा. अपनी जीवनी 'द सबस्टैंस एंड शैडो' में दिलीप कुमार ने लिखा है- देविका रानी ने कहा, यूसुफ मैं आपको एक अभिनेता के रूप में जल्द ही लॉन्च करने के बारे में सोच रही थी. मुझे लगा कि यदि आप एक स्क्रीन नेम अपनाते हैं तो ठीक रहेगा. एक ऐसा नाम जो आपके दर्शकों के लिए उपयुक्त हो. दिलीप कुमार एक अच्छा नाम है.

इसी के बाद 1944 में देविका रानी ने दिलीप कुमार को अपनी फिल्म ज्वार भांटा में मुख्य भूमिका दी थी. दिलीप कुमार नाम बदलने को लेकर असमंजश में थे. जन्म से जवानी तक एक नाम के साथ पहचान रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए ये एक असमंजस की स्थिति होगी. उन्होंने खुद बताया था कि वो नाम नहीं बदलना चाहते थे. मगर पिता सरवर खान की डर की वजह से बाद में उन्हें देविका रानी की सलाह ही ठीक लगी. दरअसल, दिलीप साब के पिता फिल्मों के सख्त खिलाफ थे. पिता को पता ना चल पाए इसी डर में युसूफ खान दिलीप कुमार बन गए. उस जमाने में वैसे भी सिनेमा में काम करने वालों को समाज के एक बड़े तबके में हेय दृष्टि से देखा जाता था. लेकिन क्या ये सिर्फ देविका की एक सामन्य सलाह भर थी या पिता का डर था? दरअसल, उस जमाने में मुस्लिम सितारों के नाम बदलने की वजहें दोनों सवालों से कहीं आगे सामजिक-राजनीतिक ज्यादा नजर आती हैं.

भारत में सिनेमा की शुरुआत मुस्लिम लीग की राजनीति शुरू होने के बाद होती है. 1906 में मोहम्मद अली जिन्ना और अन्य मुस्लिम नेता ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना करते हैं और इस घटना के सात साल बाद ही मूक फिल्म राजा हरीशचंद्र आती है. भले ही तमाम तथ्यों की दुहाई दी जाए लेकिन ये अकाट्य सच है कि मुस्लिम लीग की राजनीति के साथ सामजिक-राजनीतिक स्तर पर देशभर में हिंदू और मुसलमानों के बीच मतभेद और मनभेद खूब बढ़े. बड़े पैमाने पर मुसलमान भारत से अलग होना चाहते थे और 1947 में बंटवारे के बाद बहुत बड़ी संख्या में घरबार छोड़कर पाकिस्तान गए भी. बावजूद कि जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी उन्हें रोकने की भरसक कोशिशें करते रहे. लीग और उस दौर की राजनीति से सिनेमा बिल्कुल अछूता नहीं था.

इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि बहुसंख्यक दर्शकों की वजह से ही मुस्लिम सितारों को नाम बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा. मुमताज जहां देहलवी को मधुबाला बनना पड़ा, महजबीन बानो को मीना कुमारी, बदरुद्दीन जमालुद्दीन काजी को जॉनी वाकर, जकारिया खान को जयंत, नवाब बानो को निम्मी, हामिद अली खान को अजित. ऐसे नामों की लिस्ट बहुत लंबी चौड़ी है.

लेकिन कुछ लोग मुस्लिम सितारों के नाम बदलने के पीछे की धार्मिक वजहों से इनकार करते हैं. वो तर्क देते हैं कि ऐसा सिर्फ संबंधित कलाकारों के बड़े नामों को आकर्षक और छोटा करने के लिए था. और कई हिंदू सितारों ने भी तो नाम बदले ही हैं. मसलन- कुमुदलाल गांगुली- अशोक कुमार बने, कुलभूषण पंडित- राजकुमार, शिवाजी राव गायकवाड़ - रजनीकांत, इंकिलाब श्रीवास्तव - अमिताभ बच्चन बने और राजीव हरिओम भाटिया अक्षय कुमार बन गए. इस लिस्ट में भी सैकड़ों हिंदू सितारे हैं. लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि इन सितारों ने नाम में फेरबदल जरूर किया मगर हिंदू नाम ही अडॉप्ट किया. यहां नाम के आकर्षण की वजह तार्किक है.

फिर फिरोज खान, आमिर, शाहरुख या सलमान को नाम बदलने की जरूरत क्यों नहीं पड़ी?

सिनेमा की दशा और दिशा का निर्धारण हमेशा से राजनीति और उसके असर में तैयार हो रहा समाज ही करता रहा है. फिरोज खान, आमिर खान, सलमान खान या शाहरुख खान को दिलीप कुमार की तरह नाम बदलने की जरूरत क्यों नहीं पड़ी, इसका सीधा सा जवाब तात्कालिक राजनीतिक घटनाओं में ही छिपा पड़ा है. बंटवारे के बाद हिंदू-मुस्लिम का शोर ख़त्म तो नहीं हुआ था लेकिन धीरे-धीरे दबता गया. 90 से पहले देखें तो मुख्यधारा की राजनीतिक दलों के किए धार्मिक मुद्दे ज्यादा अहम नजर नहीं आ रहे थे. आपातकाल के बाद एक छोटे से अंतराल को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस का एकछत्र राज था और हिंदूवादी पार्टियां वजूद में तो थीं मगर बड़े स्तर पर बेअसर थीं. लेकिन 90 के दशक में राम मंदिर और मंडल आंदोलन के बाद अगले 20 सालों में धार्मिक जातीय पहचान के सवाल फिर राजनीति का मुख्य विषय बनते गए. इस दौर में कांग्रेस कमजोर हुई. हिंदूवादी संगठन मजबूत हुए. जातीय आधार पर क्षेत्रीय दल भी ताकतवर बने. मगर दोनों तरह की पार्टियों में मुस्लिम राजनीति के लिए कोई जगह नहीं थी.

आजादी के बाद मुख्यतया राम मंदिर आंदोलन के असर से पहले ऊपर जिक्र किए गए मुस्लिम सितारों ने हिंदू नाम नहीं लिए. अलबत्ता सलमान खान जैसे कुछ सितारों ने जरूर अपने नाम छोटे किए. दिलीप कुमार जब फिल्मों में आए थे उस वक्त बंटवारे के शोर की वजह से समूचे देश में तनाव था. कई शहरों में दंगे और हिंसा का माहौल था. निश्चित ही उस वक्त नाम छिपाना कुछ कलाकारों की पेशागत मजबूरी थी. जो बाद में धीरे-धीरे ख़त्म होती गई.

वैसे फिल्म इंडस्ट्री के लिए धार्मिक पहचान कितना मायने रखता है इसे आज के सोशल मीडिया ट्रेंड्स में आसानी से समझा सकता है. अब मुस्लिम सितारों की फिल्मों के बहिष्कार की अपील आम बात है. उसका असर भी दिखता है कई बार. एक जमाने में इंडस्ट्री पर राज करने वाले शाहरुख और सलमान बदले राजनीतिक माहौल में जूझते नजर आ रहे हैं. शाहरुख की जीरो एक अच्छी खासी फिल्म होने के बावजूद सोशल मीडिया कैम्पेन और राजनीतिक माहौल का शिकार हो जाती है. सलमान की फिल्मों के खिलाफ धार्मिक आधार पर कैम्पेन चलते हैं और वो फिलहाल संघर्ष करते नजर आ रहे हैं. ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान और सीक्रेट सुपरस्टार के साथ आमिर खान भी जूझते दिख चुके हैं. एक जमाने में तीनों खान सितारे बॉक्स ऑफिस सक्सेस की गारंटी थे. दूसरी तरह कभी औसत अभिनेताओं में शुमार रहे अक्षय कुमार और अजय देवगन सफलता की गारंटी बन चुके हैं. पिछले आठ से दस साल में इनकी फिल्मों का विषय देख लीजिए.

याद रखिये, बॉलीवुड एक विशुद्ध कारोबारी इंडस्ट्री है. इसीलिए अब जबकि दोबारा से समाज में हिंदू-मुस्लिम बिखराव बढ़ रहा है, तो निर्माता अभिनेताओं को कास्ट करने में धर्म के चश्मे से भी देखने लगे हैं. फिल्मों के विषय भी दर्शकों की रुचि के मद्देनजर ही दिख रहे हैं. सोशल मीडिया के दौर में अब पहचान छिपाना भी मुश्किल है. सिनेमा पर राजनीति का असर बना रहेगा. नाम बदलने के ट्रेंड की इस दौर में कोई गुंजाइश नहीं बची है. मगर इसके खात्मे का निर्धारण राजनीति के मुद्दे ही तय करेंगे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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