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Gulabo Sitabo Review : अमिताभ-आयुष्मान की जोड़ी गुलाबी और बोरिंग दोनों है!

    • सिद्धार्थ अरोड़ा सहर
    • Updated: 12 जून, 2020 06:40 PM
  • 12 जून, 2020 06:40 PM
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अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) और आयुष्मान खुराना (Ayushmann Khurrana)स्टारर फिल्म गुलाबो सिताबो (Gulabo Sitabo review) आखिरकार अमेजन प्राइम वीडियो (Amazon prime video) पर रिलीज हो गयी जैसी फिल्म है साफ़ है कि कहीं कहिं पर ये फिल्म गुलाबी है वहीं फिल्म में वो मौके भी आए हैं जब फिल्म ट्रैक से हट गयी है.

Gulabo Sitabo Review : फिल्म एक कठपुतली दिखाने वाले से शुरु होती है, गुलाबो और सिताबो नामक दो कठपुलियां जो लड़ती रहती हैं. जूही चतुर्वेदी (Juhi Chaturvedi) के मन में ठीक वो दो बिल्लियों वाली कहानी चल रही होगी जो हम बचपन में सुना करते थे. जहां आधी-आधी रोटी बांटकर खाने की बजाए लड़कर पूरी लेने का झगड़ा था. आपको याद ही होगा कि उस कहानी में न्याय और तराजू एक बन्दर के हाथ में था. ये कहानी मिर्ज़ा की है. मिर्ज़ा (Amitabh Bachchan) एक निहायती चिंदी आदमी हैं. जलता बल्ब ही नहीं उतारते, बल्कि घंटी, चादर, झूमर, दलिया जो तन्हा दिख जाए, साफ़ कर देते हैं. अपने से 15 साल बड़ी बेग़म (Farukh Jafar) की हवेली को अपना समझ उसे हर हाल में हथियाना चाहते हैं. बेग़म हैं कि नेहरु काल में जीती हैं, याददाश्त की कच्ची हैं. अब मिर्ज़ा ने हवेली में कोई मरम्मत तो कभी करवाई नहीं, किरायेदार भी दसियों साल से ‘तीस’ रुपये, पचास रुपये जैसी ‘बड़ी’ रक़म देकर डेरा जमाए हुए हैं. इनमें से एक बांके रस्तोगी (Ayushmann Khurrana) हैं, इन्हीं जनाब का बल्ब कबाड़ी को बेचते हैं मिर्ज़ा. ये भाईसाहब अपने पिताजी की आटा-चक्की चलाते हैं. तीन बहनों को पढ़ा रहे हैं और मां को पाल रहे हैं. ये इतने कंजूस और चीमड़ हैं कि तीस रुपये किराया भी चार-चार महीने नहीं देते.

फिल्म गुलाबो सिताबो में मिर्ज़ा बने अमिताभ के साथ बांके बने आयुष्मान

मिर्ज़ा और बांके ही गुलाबो और सिताबो हैं. अब एक दिन इन दोनों द्वारा थाने में हुए हंगामे से पुरातत्व विभाग के अफ़सर ज्ञानेश (विजय राज़) को इस हवेली की ख़बर लगती है और वो बांके को मोहरा बनाकर इसे हेरिटेज घोषित करने में लग जाता है. वहीं काउंटर अटैक के चलते मिर्ज़ा अपनी कमान एक वकील क्रिस्टोफर क्लार्क (बिजेंद्र काला) के हाथ में दे...

Gulabo Sitabo Review : फिल्म एक कठपुतली दिखाने वाले से शुरु होती है, गुलाबो और सिताबो नामक दो कठपुलियां जो लड़ती रहती हैं. जूही चतुर्वेदी (Juhi Chaturvedi) के मन में ठीक वो दो बिल्लियों वाली कहानी चल रही होगी जो हम बचपन में सुना करते थे. जहां आधी-आधी रोटी बांटकर खाने की बजाए लड़कर पूरी लेने का झगड़ा था. आपको याद ही होगा कि उस कहानी में न्याय और तराजू एक बन्दर के हाथ में था. ये कहानी मिर्ज़ा की है. मिर्ज़ा (Amitabh Bachchan) एक निहायती चिंदी आदमी हैं. जलता बल्ब ही नहीं उतारते, बल्कि घंटी, चादर, झूमर, दलिया जो तन्हा दिख जाए, साफ़ कर देते हैं. अपने से 15 साल बड़ी बेग़म (Farukh Jafar) की हवेली को अपना समझ उसे हर हाल में हथियाना चाहते हैं. बेग़म हैं कि नेहरु काल में जीती हैं, याददाश्त की कच्ची हैं. अब मिर्ज़ा ने हवेली में कोई मरम्मत तो कभी करवाई नहीं, किरायेदार भी दसियों साल से ‘तीस’ रुपये, पचास रुपये जैसी ‘बड़ी’ रक़म देकर डेरा जमाए हुए हैं. इनमें से एक बांके रस्तोगी (Ayushmann Khurrana) हैं, इन्हीं जनाब का बल्ब कबाड़ी को बेचते हैं मिर्ज़ा. ये भाईसाहब अपने पिताजी की आटा-चक्की चलाते हैं. तीन बहनों को पढ़ा रहे हैं और मां को पाल रहे हैं. ये इतने कंजूस और चीमड़ हैं कि तीस रुपये किराया भी चार-चार महीने नहीं देते.

फिल्म गुलाबो सिताबो में मिर्ज़ा बने अमिताभ के साथ बांके बने आयुष्मान

मिर्ज़ा और बांके ही गुलाबो और सिताबो हैं. अब एक दिन इन दोनों द्वारा थाने में हुए हंगामे से पुरातत्व विभाग के अफ़सर ज्ञानेश (विजय राज़) को इस हवेली की ख़बर लगती है और वो बांके को मोहरा बनाकर इसे हेरिटेज घोषित करने में लग जाता है. वहीं काउंटर अटैक के चलते मिर्ज़ा अपनी कमान एक वकील क्रिस्टोफर क्लार्क (बिजेंद्र काला) के हाथ में दे देते हैं. दोनों ख़ूब भागते दौड़ते हैं, दोनों बिना जाने कठपुतली बने लड़ते रहते हैं पर क्लाइमेक्स कुछ और ही साबित कर जाता है.

इस दो घंटे की फिल्म में उन लोगों के लिए बहुत कुछ ख़ास है जो किसी पुराने शहर के पुराने घर में रहे हैं. जैसे हमारा पुश्तैनी मकान पुरानी दिल्ली में था, उसकी सीली दीवारें, हर वक़्त आती पान केवड़े की महक, प्लास्टर छोड़ती दीवारें और मोहल्ले के मस्त खपती बूढ़े, सब एंटीक थे. इस फिल्म के नोस्टेल्जिया से सिर्फ लखनऊ वाले ही नहीं, बल्कि कानपुर, बरेली, बनारस, दिल्ली या ऐसे किसी भी पुराने शहर में बड़े हवेलीनुमा घरों में रहने वाले कनेक्ट हो सकेंगे.

फिल्म टूथ ब्रश के नमक को नहीं, नीम की दातून की याद दिलायेगी. फिल्म गार्डन में पले कुत्ते के दौर से हटकर आंगन में पली बकरी के पास ले जायेगी. आज भी पुराने शहरों के पुराने घरों का यही हाल है. कहीं छत टपक रही है तो कहीं दीवार की खाल छिली हुई है, न मकानमालिक को होश है और न ही किरायेदारों को फ़िक्र है.

फ़िल्म के डायलॉग अत्यंत मज़ेदार हैं.

'और शुक्ला जी बड़े दिनों बाद टपके!'

'भैया पके थे तो टपक गए'

'खानदान है हमारा, भौकाल है हमारा'

'बल्ब न हुआ निगोड़ी जायदाद हो गयी'

ये मैं जूही की स्मार्ट राइटिंग ही कहूंगा कि बहाने से उन्होंने नेहरु जी के नाम पे ‘उस दिन चोरों ने बड़ा गोल-गपाला मचाया था’ का ताना भी दे दिया, सोनभद्र से 1000 किलो सोना निकलने की अफवाह भी पकड़ ली और सरकारी विभागों में होने वाली गड़बड़ियों पर तंज भी कस दिया. बस जूही से कुछ मिस हुआ तो वो हुई लखनऊ की फेमस तहज़ीब. एक भी पात्र मुझे तहजीब से बात करता न लगा. व्यंगात्मक करने के चक्कर में तकरीबन हर पात्र दूसरे की इज्ज़त उतारने की कोशिश करता ही लगा.

निर्देशन में पहली बार सुजीत सरकार गोल-गोल घुमाते लगे. हालांकि कहानी में कोई तीसरा एलिमेंट न होना भी खला, एक सी लीक पर बंधी कहानी के चलते डायरेक्शन बीच-बीच में उबाऊ होने लगा. कहीं-कहीं ये फिल्म कम सब-टीवी का धारावाहिक ज़्यादा लगने लगी.

पर कलाकारी सबने एक से बढ़कर एक की. बिग बी का स्पेशल लुक, झुकी कमर, तिरछी चाल सब बहुत उम्दा लगा. आयुष्मान ऐसे तीन-चार रोल पहले भी कर चुके हैं जिसमें वो फ्रसट्रेटेड मध्यमवर्गी बने हैं, पर ऐसा करैक्टर उनपर सूट करता है. तिसपर आयुष्मान ने फिर इस फिल्म के लिए अपना लहजा बदल लिया है, सुनकर मज़ा आयेगा.

श्रृष्टि श्रीवास्तव सरप्राइज़ करती हैं. उनका करैक्टर (गुड्डो) और एक्टिंग दोनों बोल्ड हैं, कॉंफिडेंट हैं और दुनिया का सामना करना जानते हैं. बस एक बात की हैरानी होती है, क्या लड़की को बोल्ड और कॉंफिडेंट दिखाने के लिए उसका ‘किसी के भी साथ सेक्स कर लेने’ वाला नेचर दिखाना ज़रूरी होता है?

बाकी विजय राज़ ज़रा से लाउड हुए हैं पर अच्छे लगे है. बिजेंद्र काला ने बाजी मार ली है. बेगम बनी फर्रुख ज़फर शायद इसी रोल के लिए बनी थीं. छोटे-छोटे पर अहम रोल में पूनम शर्मा (फौज़िया), टीना भाटिया (दुल्हन) और नल्नीश नील बहुत अच्छे लगे हैं.

कुलमिलाकर फिल्म ‘जो है उसकी कद्र करने’ का बड़ा सही मेसेज देती है. फिर वो कोई व्यक्ति हो या प्रिय वस्तु ही. मगर अंत के बाद कुछ अन्दर सालता भी लगता है, ऐसा भी अहसास होता है जैसे किरायदार और मकानमालिक के बीच होने वाले रेगुलर डिस्प्यूट को पहली बार दिखाने के बाद बहुत पतली गली से निकल लिया गया. हंसी-मज़ाक से हट के कुछ महत्वपूर्ण और मार्मिक पक्ष था, जिसे एक गुब्बारे पर बांधकर शायद उड़ा दिया गया.

बाकी आप ख़ुद देखकर बेहतर बता सकेंगे. पीकू और विकी डोनर से तुलना न करें तो वन टाइम वॉच है. रेटिंग 6.5/10.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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