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'ट्रेजडी किंग' बनकर ऊब चुके दिलीप कुमार ने जो किया, वो उन्हें सुपरस्टार बनाता है

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 06 जून, 2021 11:06 PM
  • 06 जून, 2021 07:57 PM
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दिलीप कुमार को असफल प्रेमी के किरदार में ट्रेजडी किंग बनाया अंदाज, देवदास और मुग़ल-ए-आजम जैसी फिल्मों ने. पारो के लिए अच्छा ख़ासा रईसजादा गलियों की ख़ाक छानने वाला शराबी बन जाता है और एक दिन उसी की दहलीज पर दम तोड़ देता है. मोहब्बत के लिए पिता के खिलाफ बगावत पर उतारू सलीम रोता विलखता है लाख कोशिशें करता है बावजूद अनारकली उसकी नहीं हो पाती.

पचास साल के फिल्मी करियर में करीब 65 से ज्यादा फ़िल्में करने वाले दिलीप कुमार को बॉलीवुड ने "ट्रेजडी किंग" का खिताब दिया है. मगर लगातार संजीदा इंसान के रूप में एक जैसी भूमिकाओं ने उनके अंदर के एक्टर को बेचैन करके रख दिया था. दिलीप साहब एक जैसे फ़िल्मी किरदारों से बिल्कुल संतुष्ट नहीं थे. उस दौर में किसी एक्टर के लिए जमे-जमाए खांचे से बाहर निकलना यानी अलग तरह के किरदारों के जरिए छवि तोड़ना बेहद मुश्किल और व्यावसायिक रूप से जोखिम भरा काम था. दर्शक सितारों को खांचे में देखने के आदि जो थे.

बॉलीवुड में बेमिसाल लेखक थे मगर उस वक्त की फ़िल्मी कहानियां एक फ्रेम में आगे बढ़ रही थीं. करीब 23 साल पहले एक इंटरव्यू में दिलीप साहब ने बताया था- फ़िल्मी कहानियों में ह्यूमर, कॉमेडी ड्रामा और क्लाइमेक्स जैसे जरूरी एलिमेंट्स तो उठा लिए जाते थे (तब), लेकिन जिस मैटेरियल में एक्टर के परफॉर्मेंस की गुंजाइश हो वो ही नहीं रहता था. अब इसके बिना कलाकार अपने किरदार से आगे बढ़कर काम नहीं कर सकता. दिक्कत ये थी कि कुछ छोटी चीजों को छोड़ दिया जाए तो बहस के लिए स्पेश भी नहीं था. ऐसे माहौल में अगर एक्टर ने खुद को छोड़ दिया तो उसे एक खांचे में फिट कर दिया जाता था. दिलीप कुमार बताते हैं कि उन्हें लगातार कई फिल्मों के अंत में मरना पड़ा. इस पर उन्हें चिंता होने लगी कि यदि अगली फिल्म में फिर मरना पड़ा, तो वे कौन सा नयापन लाएंगे. मरने के सारे आइडिया खर्च हो चुके थे.

राजकपूर का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया था कि वे कमाल के और ड्रामा के बेमिसाल आर्टिस्ट थे. लेकिन उन्हें भी एक खांचे में ढाल दिया गया. राजकपूर ने बाहर निकलने की कोशिश भी की मगर फिल्मों की नाकामयाबी ने उनका रास्ता रोक दिया. लंबा वक्त बिताने के बाद दिलीप साहब परफॉर्मेंस मैटेरियल की गुंजाइश में लग गए थे. एक संजीदा इंसान के रूप में ट्रेजडी किंग के तमगे को उतार फेंकना चाहते थे. दिलीप साहब बहुत बड़ा खतरा मोल ले रहे थे. लेकिन उन्होंने राम-श्याम, शबनम और सगीना जैसी फ़िल्में कीं जिसमें उनका किरदार जमी-जमाई छवि से...

पचास साल के फिल्मी करियर में करीब 65 से ज्यादा फ़िल्में करने वाले दिलीप कुमार को बॉलीवुड ने "ट्रेजडी किंग" का खिताब दिया है. मगर लगातार संजीदा इंसान के रूप में एक जैसी भूमिकाओं ने उनके अंदर के एक्टर को बेचैन करके रख दिया था. दिलीप साहब एक जैसे फ़िल्मी किरदारों से बिल्कुल संतुष्ट नहीं थे. उस दौर में किसी एक्टर के लिए जमे-जमाए खांचे से बाहर निकलना यानी अलग तरह के किरदारों के जरिए छवि तोड़ना बेहद मुश्किल और व्यावसायिक रूप से जोखिम भरा काम था. दर्शक सितारों को खांचे में देखने के आदि जो थे.

बॉलीवुड में बेमिसाल लेखक थे मगर उस वक्त की फ़िल्मी कहानियां एक फ्रेम में आगे बढ़ रही थीं. करीब 23 साल पहले एक इंटरव्यू में दिलीप साहब ने बताया था- फ़िल्मी कहानियों में ह्यूमर, कॉमेडी ड्रामा और क्लाइमेक्स जैसे जरूरी एलिमेंट्स तो उठा लिए जाते थे (तब), लेकिन जिस मैटेरियल में एक्टर के परफॉर्मेंस की गुंजाइश हो वो ही नहीं रहता था. अब इसके बिना कलाकार अपने किरदार से आगे बढ़कर काम नहीं कर सकता. दिक्कत ये थी कि कुछ छोटी चीजों को छोड़ दिया जाए तो बहस के लिए स्पेश भी नहीं था. ऐसे माहौल में अगर एक्टर ने खुद को छोड़ दिया तो उसे एक खांचे में फिट कर दिया जाता था. दिलीप कुमार बताते हैं कि उन्हें लगातार कई फिल्मों के अंत में मरना पड़ा. इस पर उन्हें चिंता होने लगी कि यदि अगली फिल्म में फिर मरना पड़ा, तो वे कौन सा नयापन लाएंगे. मरने के सारे आइडिया खर्च हो चुके थे.

राजकपूर का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया था कि वे कमाल के और ड्रामा के बेमिसाल आर्टिस्ट थे. लेकिन उन्हें भी एक खांचे में ढाल दिया गया. राजकपूर ने बाहर निकलने की कोशिश भी की मगर फिल्मों की नाकामयाबी ने उनका रास्ता रोक दिया. लंबा वक्त बिताने के बाद दिलीप साहब परफॉर्मेंस मैटेरियल की गुंजाइश में लग गए थे. एक संजीदा इंसान के रूप में ट्रेजडी किंग के तमगे को उतार फेंकना चाहते थे. दिलीप साहब बहुत बड़ा खतरा मोल ले रहे थे. लेकिन उन्होंने राम-श्याम, शबनम और सगीना जैसी फ़िल्में कीं जिसमें उनका किरदार जमी-जमाई छवि से बिलकुल अलग था.

दिलीप कुमार की संजीदा इंसान के खांचे से बाहर निकलने की कोशिश कामयाब रही. राम-श्याम और शबनम में दिलीप साहब को खूब पसंद किया गया. ये फ़िल्में अपने वक्त की बड़ी हिट्स में शुमार हैं. सगीना महतो बंगाली फिल्म थी जिसमें दिलीप साहब ने चाय बगान के मजदूर नेता का काम किया जो अंग्रेजों से अधिकारों के लिए संघर्ष करता है. फिल्म की कहानी 1942 के दौर में मजदूर आंदोलन से प्रेरित थी. बाद में इसी फिल्म को दिलीप के ही साथ सगीना टाइटल से हिंदी में भी बनाया गया. राम और श्याम कॉमेडी ड्रामा थी. इसमें दिलीप साहब ने डबल रोल किया था.

राम और श्याम में दिलीप कुमार ने एक साथ दो दिलचस्प किरदार किए. राम के रूप में वो एक रईस उत्तराधिकारी थे जिसकी प्रॉपर्टी पर उसके जीजा की बुरी नजर है. जीजा प्रताड़ित करता रहता है और राम उसे चुपचाप सहता है. वहीं श्याम गांव में रहने वाला तेज तर्रार युवा है जो हर चीज का तीखा जवाब देना जानता है. दिलीप साहब की दोनों फ़िल्में जबर्दस्त कामयाब हुई थीं.

कैसे ट्रेजडी किंग बन गए थे दिलीप कुमार?

दिलीप कुमार को असफल प्रेमी के किरदार में ट्रेजडी किंग बनाया अंदाज, देवदास और मुग़ल-ए-आजम जैसी फिल्मों ने. पारो और चंद्रमुखी के प्यार में पगलाए शरतचंद्र के देवदास और मुग़ल-ए-आजम के शहजादे सलीम की कहानी सभी को पता है. पारो के लिए अच्छा ख़ासा रईसजादा गलियों की ख़ाक छानने वाला शराबी बन जाता है और एक दिन पारो की दहलीज पर जाकर दम तोड़ देता है. मोहब्बत के लिए पिता के खिलाफ बगावत पर उतारू सलीम रोता विलखता रहता है और लाख कोशिशें करता है बावजूद अनारकली उसकी नहीं हो पाती.

अंदाज में भी दिलीप साहब ने असफल प्रेमी की ऐतिहासिक और यादगार भूमिका निभाई थी. प्रेम त्रिकोण पर बनी अंदाज 1949 में रिलीज हुई थी. इसमें दिलीप कुमार, राजकपूर और नर्गिस की तिकड़ी थी. एक हादसे में दिलीप कुमार और नर्गिस की मुलाक़ात होती है. दोस्ती गाढ़ी होती जाती है और दिलीप नर्गिस के एकतरफा प्यार में गिरफ्तार हो चुके हैं.

हालांकि उन्हें प्यार के इजहार का वक्त नहीं मिलता. इस बीच कहानी में राजकपूर की एंट्री होती है. दरअसल राजकपूर, नर्गिस के मंगेतर हैं. अभी तक दिलीप राजकपूर से अंजान थे. मगर नर्गिस के पिता की मौत के बाद जब उनकी शादी तय हो जाती है तब दिलीप अपने प्यार का इजहार करते हैं. लेकिन वक्त उनके हाथ से बहुत पहले ही निकल चुका होता है. बाद में बेटी के जन्मदिन के मौके पर अँधेरे में नर्गिस, दिलीप समझकर राजकपूर को बता देती हैं कि वो उससे प्यार नहीं करतीं.

राजकपूर, दिलीप कुमार को लेकर शक करने लगते हैं. हालांकि दिलीप सच्चाई बताने की कोशिश करते हैं मगर कामयाब नहीं हो पाते. बाद में हालात ऐसे बनते हैं कि लगभग पागल हो चुके हैं. उन्हें लगता है कि नर्गिस उनसे प्यार करती हैं. इसी उधेड़बुन में वो नर्गिस पर जबरदस्ती करने की कोशिश करते हैं और बीच बचाव में नर्गिस के हाथों मारे जाते हैं. नर्गिस को आजीवन कारावास की सजा होती है. बॉलीवुड में प्रेम त्रिकोण पर बनी ये लाजवाब फिल्म है. दिलीप कुमार के अभिनय ने लोगों को झकझोर के रख दिया था. ये फिल्म बहुत कामयाब हुई थी. अंदाज, देवदास और मुगल-ए-आजम जैसी कुछ फिल्मों में दिलीप कुमार ने संवेदी और नाकाम प्रेमी की भूमिकाएं कीं. उन्होंने किरदारों को इतने असरदार तरीके से जिया कि ट्रेजडी किंग का तमगा हासिल कर लिया.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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