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Darlings वो जुगाड़ है जो पति-प्रताड़ित पत्नी अपने लिए चाहती है

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 08 अगस्त, 2022 08:28 PM
  • 08 अगस्त, 2022 08:23 PM
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व्यवहारिक रूप से भारतीय पतिव्रता पत्नी की कमज़ोरी है यह.और यह भी कि समाज पत्नियों से बिल्कुल अपेक्षा नहीं रखता कि वे घरेलू हिंसा का जवाब हिंसा से दें. लेकिन कभी जो औरत अपनी इन खामियों पर क़ाबू पा ले तो आगे क्या होगा, डार्लिंग्स उसी का जवाब है.

दूर की जान पहचान के एक जोड़े में कुछ बातों को लेकर कहा सुनी हो गयी. जाने कैसे और किन हालातों में मियां का हाथ उठ गया. बीवी मायके चली आई. घर जाने का नाम ही न ले. लोगों ने चुटकी लेते हुए कहा, लग रहा थप्पड़ फिल्म देख ली. जिस समाज में डिवोर्सी लफ्ज़ गाली की तरह इस्तेमाल हो, वहां रिश्ते की डोर में से अपना सिरा खोल लेना आसान भी नहीं है. अपर क्लास से लेकर लोवर मिडिल क्लास तक. लात, घूंसे, मुक्के  चलने के बाद भी, एक दूसरे से शदीद नफ़रत के बाद भी, अलग कमरों, घरों, शहरों में रहने के बाद भी सब होगा. तलाक़ नहीं होगा.

'थप्पड़' एक कल्पनिक दुरूह साहसिक क़दम था. जो घरेलू शारीरिक- मानसिक हिंसा सहती हुई स्त्री उठाना चाहती है लेकिन उठा नहीं पाती. 'डार्लिंग्स' वो तरक़ीब या जुगाड़ है जो पति की मार सहने की क्षमता खत्म होने के बाद पत्नी अपने लिए चाहती है.

डार्लिंग्स ऐसी फिल्म है जिसे स्त्री और पुरुषों को जरूर देखना चाहिए

लेकिन मसला वही है मियां अगर पसंद की शादी वाला हो और दिल के किसी गोशे में मुहब्बत की चिंगारी सुलगती हो तो ज़हन छुटकारा पाने के सौ तिकड़म भिड़ाकर भी महबूब से नफ़रत नहीं कर पाता. व्यवहारिक रूप से भारतीय पतिव्रता पत्नी की कमज़ोरी है यह. और यह भी कि समाज पत्नियों से बिल्कुल अपेक्षा नहीं रखता कि वे घरेलू हिंसा का जवाब हिंसा से दें. लेकिन कभी जो औरत अपनी इन खामियों पर क़ाबू पा ले तो आगे क्या होगा, डार्लिंग्स उसी का जवाब है.

फिल्म मुस्लिम परिवेश पर आधारित है!

मेन करैक्टर आलिया भट्ट उम्मीद के मुताबिक़ बेहतरीन हैं. उनका कम मेकअप वाला मुखड़ा राज़ी के सहमत की तरह है. कॉस्ट्यूम और ऐक्सेंट में वे गली बॉय की ज़ोया का लगभग रिपीट टेलीकास्ट है (इस बार बगैर हिजाब).

सप्राईज़ आलिया की मां बनी शेफाली ने दिया...

दूर की जान पहचान के एक जोड़े में कुछ बातों को लेकर कहा सुनी हो गयी. जाने कैसे और किन हालातों में मियां का हाथ उठ गया. बीवी मायके चली आई. घर जाने का नाम ही न ले. लोगों ने चुटकी लेते हुए कहा, लग रहा थप्पड़ फिल्म देख ली. जिस समाज में डिवोर्सी लफ्ज़ गाली की तरह इस्तेमाल हो, वहां रिश्ते की डोर में से अपना सिरा खोल लेना आसान भी नहीं है. अपर क्लास से लेकर लोवर मिडिल क्लास तक. लात, घूंसे, मुक्के  चलने के बाद भी, एक दूसरे से शदीद नफ़रत के बाद भी, अलग कमरों, घरों, शहरों में रहने के बाद भी सब होगा. तलाक़ नहीं होगा.

'थप्पड़' एक कल्पनिक दुरूह साहसिक क़दम था. जो घरेलू शारीरिक- मानसिक हिंसा सहती हुई स्त्री उठाना चाहती है लेकिन उठा नहीं पाती. 'डार्लिंग्स' वो तरक़ीब या जुगाड़ है जो पति की मार सहने की क्षमता खत्म होने के बाद पत्नी अपने लिए चाहती है.

डार्लिंग्स ऐसी फिल्म है जिसे स्त्री और पुरुषों को जरूर देखना चाहिए

लेकिन मसला वही है मियां अगर पसंद की शादी वाला हो और दिल के किसी गोशे में मुहब्बत की चिंगारी सुलगती हो तो ज़हन छुटकारा पाने के सौ तिकड़म भिड़ाकर भी महबूब से नफ़रत नहीं कर पाता. व्यवहारिक रूप से भारतीय पतिव्रता पत्नी की कमज़ोरी है यह. और यह भी कि समाज पत्नियों से बिल्कुल अपेक्षा नहीं रखता कि वे घरेलू हिंसा का जवाब हिंसा से दें. लेकिन कभी जो औरत अपनी इन खामियों पर क़ाबू पा ले तो आगे क्या होगा, डार्लिंग्स उसी का जवाब है.

फिल्म मुस्लिम परिवेश पर आधारित है!

मेन करैक्टर आलिया भट्ट उम्मीद के मुताबिक़ बेहतरीन हैं. उनका कम मेकअप वाला मुखड़ा राज़ी के सहमत की तरह है. कॉस्ट्यूम और ऐक्सेंट में वे गली बॉय की ज़ोया का लगभग रिपीट टेलीकास्ट है (इस बार बगैर हिजाब).

सप्राईज़ आलिया की मां बनी शेफाली ने दिया है. इरफ़ान खान ने जाते जाते अपनी आंखें इन्हें ही तो विरसे में दी हैं. पूरे शरीर से एक्टिंग एक तरफ और आंखों की मौन भाषा एक तरफ. जो कभी पति की मार से आक्रांत बिन आंसुओं  के रोती हैं और कभी बेटी को उसी मार से बचने के लिए होशियारी भरे टिप्स सुझाती हैं.

400 रुपये वाला जामुनी फूलदार सूट पहनकर शेफाली पक्की मुसलमान लगी हैं. लेकिन आलिया के लैगिंग्स  के साथ नीले छींट वाले सूट पर फ़िरोज़ी दुपट्टे का कॉम्बिनेशन... अमूमन यह हाउस हेल्पर या मंगतिन्यों के कपड़े होते हैं. अब गरीब से गरीब मुसलमान (हिंदू भी) प्रॉपर सूट पहनता है.

बॉलीवुड, जिसने मुस्लिम चरित्र के नाम को 'ज़ोया' तक सीमित कर रखा है, आलिया को बदरु (बदरुन्निसा) कहते हुए एक फ्रेश एक्सपेरिमेंट करता नज़र आता है.

आलिया के पति बने विजय वर्मा को मैंने पहली बार टीवी पर साउथ की डब्बड मूवी 'मिडिल क्लास अभय (M C A)' में देखा था. एक्टिंग इतनी शानदार थी कि चेहरा याद रह गया. बाद में मिर्ज़ापुर, गली बॉय, और शी में देखा. आउट साइडर होने का नुक़सान यह है कि उन्हें पहचान देर से मिली है. वे पंकज त्रिपाठी, नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की रेंज के अभिनेता हैं. लंबी रेस के घोड़े भी.

बीवियों को पीटते मुंबई की तंग गलियों के रिहाईशी मुस्लिम शौहर. डार्लिंग्स और गली बॉय दोनों में यह परिवेश समान है.फिल्म देखते हुए घरेलू हिंसा के संदर्भ में अखबार में छपी एक रिपोर्ट याद आई. घरेलू हिंसा के मामले में सबसे ज़्यादा हिंसक पंजाब के मर्द हैं. सबसे कम उत्तर प्रदेश के. उम्मीद करनी चाहिए अबसे डायरेक्टर/ राइटर  वगैरह मुंबईया परिवेश के बजाय कोई अलग परिवेश चुनेंगें.

औरतों को फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि वे समझ सकें प्यार हिंसा में लिपटकर नहीं आता. मर्दों को इसलिए देखनी चाहिए कि वे उन तिकड़मों से आगाह रहें जो तलाक़ न देने की सूरत में बीवियों द्वारा आज़माया जा सकता है.

सारी खूबियों और खामियों के साथ फिल्म चुपके से यह सवाल भी पूछती है कि आज भी पत्नियों को रोज़ मार खाना, मार से उकता कर पति को सबक़ सिखाने के लिए हत्या के मंसूबे बनाना ज़्यादा आसान लगता है, बजाय सम्मान पूर्वक तलाक़ लेने के, क्यों?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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