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Chehre movie review: 'चेहरे' का पहला हाफ जबरदस्त, आखिर में फिल्म फिसल क्यों गई?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 26 अगस्त, 2021 11:10 PM
  • 26 अगस्त, 2021 11:10 PM
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Chehre movie review: चेहरे मूवी का प्रीमियर हुआ. फिल्म में अमिताभ बच्चन बच्चन, इमरान हाशमी और रिया चक्रवर्ती जैसे सितारे थे, तो उम्मीद भी उतनी ही ज्यादा थी. रूमी जाफरी के निर्देशन में फिल्म चेहरे पटकथा के लिहाज से एकदम नई पेशकश है, लेकिन अंत होते होते थोडी कसर बाकी रह गई.

चेहरे असल में कोर्ट रूम ड्रामा ही है. कोर्ट रूम ड्रामा में मिस्ट्री थ्रिलर का प्रयोग बढ़िया है. फिल्म दरअसल, चार दोस्तों और एक भटके मुसाफिर को केंद्र में रखकर बनाई गई है. दिल्ली से करीब 280 किमी दूर चार दोस्त रिटायरमेंट के बाद सुनसान बर्फीले पहाड़ों में रहते हैं. चारों में जस्टिस जगदीश आचार्य (धृतिमान चटर्जी), पब्लिक प्रोक्सीक्यूटर लतीफ़ जैदी (अमिताभ बच्चन), डिफेंस लायर परमजीत सिंह भुल्लर (अन्नू कपूर), जल्लाद हरिया जाटव (रघुवीर यादव) हैं. शाम को जज के घर जुटना चारो बुजुर्गों का रोज का काम है. इकट्ठे होते हैं. शराब पीते हैं खाना पीना करते हैं और अगर कोई पहाड़ों में फंसा भूला-भटका राहगीर आ जाता है तो उसके साथ "मॉक ट्रायल" का गेम भी खेलते हैं. यानी मुकदमे की नकली सुनवाई होती है. आरोपों पर जिरह होती है. सबूत पेश किए जाते हैं, उनका परीक्षण होता है और अंत में जज उस पर फैसला सुनाता है.

जस्टिस के घर में कामकाज संभालती है ऐना (रिया चक्रवर्ती). ऐना का भाई जो (सिद्धांत कपूर) है. मॉक ट्रायल में बुजुर्गों की मदद करता है. गूंगा जो दरअसल सजा काट चुका व्यक्ति है जिसे जस्टिस आचार्य ने ही सजा दी थी. ऐना उसकी बहन है. एक दिन कॉरपोरेट जगत में बेहद कम उम्र में सबकुछ हासिल कर लेने वाला समीर मेहरा (इमरान हाशमी) बर्फीले मौसम में फंसकर जस्टिस के घर पहुंच जाता है. उसे मॉक ट्रायल के खेल में शामिल होने का ऑफर दिया जाता है. गेम में भटके मुसाफिर ही अपराधी की भूमिका में होते हैं जिनके ऊपर जस्टिस आचार्य की मॉक कोर्ट में मुक़दमा चलता है. मुसाफिरों को खेल शुरू होने से पहले छूट रहती है कि अपने किसी अपराध को खुद स्वीकार करें जिसपर सुनवाई हो. हालांकि समीर किसी भी तरह के अपराध से इनकार कर देता है. समीर को शुरू-शुरू में खेल टाइम पास लगता है, मगर बाद में मॉक ट्रायल के दौरान घटनाएं कुछ इस तरह घटती हैं कि उसकी एक अलग ही सच्चाई सामने आती है. वो फंसता चला जाता है और खेल को जानलेवा समझकर भागने की कोशिश करता है. असल में मॉक ट्रायल का मकसद क्या है और इससे समीर किस तरह परेशानियों इमं फंसता चला जाता है, फिल्म में देखना रोचक होगा.

चेहरे असल में कोर्ट रूम ड्रामा ही है. कोर्ट रूम ड्रामा में मिस्ट्री थ्रिलर का प्रयोग बढ़िया है. फिल्म दरअसल, चार दोस्तों और एक भटके मुसाफिर को केंद्र में रखकर बनाई गई है. दिल्ली से करीब 280 किमी दूर चार दोस्त रिटायरमेंट के बाद सुनसान बर्फीले पहाड़ों में रहते हैं. चारों में जस्टिस जगदीश आचार्य (धृतिमान चटर्जी), पब्लिक प्रोक्सीक्यूटर लतीफ़ जैदी (अमिताभ बच्चन), डिफेंस लायर परमजीत सिंह भुल्लर (अन्नू कपूर), जल्लाद हरिया जाटव (रघुवीर यादव) हैं. शाम को जज के घर जुटना चारो बुजुर्गों का रोज का काम है. इकट्ठे होते हैं. शराब पीते हैं खाना पीना करते हैं और अगर कोई पहाड़ों में फंसा भूला-भटका राहगीर आ जाता है तो उसके साथ "मॉक ट्रायल" का गेम भी खेलते हैं. यानी मुकदमे की नकली सुनवाई होती है. आरोपों पर जिरह होती है. सबूत पेश किए जाते हैं, उनका परीक्षण होता है और अंत में जज उस पर फैसला सुनाता है.

जस्टिस के घर में कामकाज संभालती है ऐना (रिया चक्रवर्ती). ऐना का भाई जो (सिद्धांत कपूर) है. मॉक ट्रायल में बुजुर्गों की मदद करता है. गूंगा जो दरअसल सजा काट चुका व्यक्ति है जिसे जस्टिस आचार्य ने ही सजा दी थी. ऐना उसकी बहन है. एक दिन कॉरपोरेट जगत में बेहद कम उम्र में सबकुछ हासिल कर लेने वाला समीर मेहरा (इमरान हाशमी) बर्फीले मौसम में फंसकर जस्टिस के घर पहुंच जाता है. उसे मॉक ट्रायल के खेल में शामिल होने का ऑफर दिया जाता है. गेम में भटके मुसाफिर ही अपराधी की भूमिका में होते हैं जिनके ऊपर जस्टिस आचार्य की मॉक कोर्ट में मुक़दमा चलता है. मुसाफिरों को खेल शुरू होने से पहले छूट रहती है कि अपने किसी अपराध को खुद स्वीकार करें जिसपर सुनवाई हो. हालांकि समीर किसी भी तरह के अपराध से इनकार कर देता है. समीर को शुरू-शुरू में खेल टाइम पास लगता है, मगर बाद में मॉक ट्रायल के दौरान घटनाएं कुछ इस तरह घटती हैं कि उसकी एक अलग ही सच्चाई सामने आती है. वो फंसता चला जाता है और खेल को जानलेवा समझकर भागने की कोशिश करता है. असल में मॉक ट्रायल का मकसद क्या है और इससे समीर किस तरह परेशानियों इमं फंसता चला जाता है, फिल्म में देखना रोचक होगा.

चेहरे की कहानी रंजित कपूर ने लिखी है. कोर्ट रूम ड्रामा में प्रयोग के लिहाज से उनका लेखन तारीफ़ के काबिल है. फिल्म की पटकथा और संवाद रंजित के साथ रूमी जाफरी ने लिखे हैं. रूमी फिल्म के निर्देशक भी हैं. कहानी, पटकथा और संवाद बढ़िया हैं. पहले हाफ में तो तीनों चीजें शानदार और संतुलित मात्रा में हैं. स्पीड और ग्रिपिंग जबरदस्त है. पहला हाफ कब निकल जाता है दर्शकों को पता ही नहीं चलता. दूसरे हाफ में भी आख़िरी के 15-20 मिनट से पहले तक सबकुछ सही जाता दिखता है. मॉक ट्रायल के दौरान फिल्म में जगह जगह दिलचस्प ट्विस्ट और टर्न्स आते हैं. अस्थायी कोर्ट रूम ड्रामा के साथ समीर और उसके अतीत से जुड़ी एक कहानी फ्लैश बैक में भी चल रही होती है. चेहरे जो कि एक लाजवाब फिल्म दिखती है मगर पटकथा के उन हिस्सों की वजह से कमजोर हो जाती है जो पात्रों और दर्शकों के बीच आखिर में संबंध बनाने में नाकाम हो जाते हैं. खासकर फिल्म जैसे-जैसे क्लाइमेक्स की ओर बढ़ती है संवादों में भाषणबाजी, कमजोर लेखन और थ्रिल दिखाने के लिए अति नाटकीयता का शिकार हो जाती है.

क्लाइमेक्स में जैदी के रूप में अमिताभ की भावुक दलीलें बेवजह पिंक की याद दिलाती हैं. जबकि चेहरे का मॉक ट्रायल एक अलग किस्म के अपराध को लेकर था. समझ में नहीं आता कि वहां पर रिफरेंस के रूप में दिल्ली के चर्चित निर्भया केस का ही जिक्र क्यों किया गया? जिसके बिना पर अमिताभ लंबा चौड़ा भावुक भाषण देकर समीर के लिए कोर्ट से सख्त सजा की मांग करते हैं. बेशक रूमी जाफरी और उनकी टीम ने बहुत मेहनत की, मगर उनका सारा किया धरा फिल्म समाप्त होने से पहले ही ख़त्म होता दिखता है और चेहरे मकसद से भटककर एक औसत फिल्म नजर आने लगती है. इसे ऐसे समझ सकते हैं कि भोजन दिल से बेहद लजीज बनाने की कोशिश की गई. लेकिन ज्यादा नमक ने पूरे जायके पर पानी फेर दिया. आख़िरी का क्लाइमेक्स ही चेहरे का ज्यादा नमक साबित हुआ. अगर आख़िरी के बीस मिनट पहले हाफ की तरह सधे होते तो चेहरे, बदला की तरह एक लाजवाब फिल्म साबित हो सकती थी. बहरहाल फिल्म अब तैयार है तो इसमें फेरबदल की गुंजाइश ही नहीं रह जाती.

लोकेशन बहुत ही ख़ूबसूरत है. जस्टिस आचार्य के घर का इंटीरियर, बर्फीले पहाड़ और मौसम कहानी के मुताबिक़ ही हैं. कैरेक्टर्स का लुक और स्टाइल भी आकर्षक है. सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है. संपादन चुस्त है. इन चीजों के अलावा चेहरे की सबसे अच्छी बातों में अभिनय और संवाद पक्ष अहम है. चेहरे अमिताभ, इमरान हाशमी, धृतिमान, अन्नू कपूर के ही कंधों पर है. चारों असर भी छोड़ते हैं. क्लाइमेक्स की भाषणबाजी को छोड़ दिया जाए तो अमिताभ का काम आउटस्टैंडिंग तो नहीं मगर असरदार है. धृतिमान भी ओरिजिनल लगते हैं. अन्नू कपूर तो चेहरे का सेलिंग पैकेज हैं जो दिग्गजों के बीच अपनी मौजूदगी साबित करने का हुनर जानते हैं. अमिताभ के अलावा अन्नू कपूर के हिस्से फिल्म के कई उम्दा संवाद और सीन आए हैं. रघुवीर का किरदार छोटा है, उनके हिस्से संवाद भी कम आए हैं. बावजूद वो अपनी जगह ठीक ठाक हैं. रिया चक्रवर्ती और सिद्धांत के हिस्से करने को कुछ था नहीं. अगर दोनों के किरदार नहीं भी होते तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था. एक अहम किरदार में क्रिस्टल डीसूजा का भी काम संतोषजनक है.

इमरान हाशमी के लिए सोचने का वक्त है. चीखना-चिल्लाना एक भाव है, उन्हें और उनके निर्देशकों को समझना होगा कि इसका सही इस्तेमाल कैसे किया जाए. उनकी एक्टिंग ठीक है मगर कई जगह हावभाव जैसा होना चाहिए वैसा नहीं दिखता. यह निर्देशक की जिम्मेदारी थी कि लाउड एक्ट, कहानी के मुताबिक़ ही निकलकर आए. अमिताभ, अन्नू कपूर और धृतिमान के संवादों की लय देखने और सीखने लायक है. इमरान लाउड एक्ट में कई जगहों पर वैसा फील ही नहीं ला पाए. लाउड सीन्स को छोड़ दिया जाए तो इमरान के काम को भी संतोषजनक कह सकते हैं. भले ही आखिर में कुछ चीजें खटकती हैं मगर कोर्ट रूम ड्रामा में दिलचस्पी रखने वाले दर्शकों के लिए एक बार देखने लायक फिल्म है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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