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भारतीय सिनेमा में 'बैन' का इतिहास कांग्रेस-भाजपा विवाद से भी पुराना है

    • मनीष जैसल
    • Updated: 25 अक्टूबर, 2017 01:27 PM
  • 25 अक्टूबर, 2017 01:27 PM
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राहुल गांधी आजकल जोश में हैं उन्होंने मर्सल पर तो टिप्पणी कर दी लेकिन उन्होंने भारतीय सिनेमा का इतिहास नहीं देखा. वो जो उनके होश उड़ा देगा.

आजाद भारत में सिनेमा का इस्तेमाल भारत के नागरिकों द्वारा परिश्रम और संघर्षों के बाद खुद के मनोरंजन के लिए किया गया. इतिहासकार रामचन्द्र गुहा अपनी किताब, "भारत नेहरू के बाद" में बताते है कि उन दिनों ज्यादातर लोग सिनेमा देखकर अपना समय बिताते थे. भारतीयों के लिए फीचर फिल्में समय बिताने का लोकप्रिय साधन थीं, अभी भी हैं.

देश में आज भी सिनेमा का मुख्य कर्तव्य मनोरंजन करना ही है. क्या कहा? आप नहीं मानते. देश में कॉमेडी जोनर के मुकाबले और कौन सा जोनर टिक पाता है? सामाजिक विषयों पर बनी फिल्में तो अपने स्वर्णयुग में नहीं चली अब इलियन बिलियन कमाने वाली फिल्मों के जमाने में क्या खाक चलेंगी. फिल्म देखने जाने से पूर्व रिव्यू कितना भी खराब हो लेकिन आप जाएंगे कॉमेडी देखने. उदाहरण हाल की ही फिल्म गोलमाल कौन सी ... चौथी.

 राहुल गांधी ने विवाद को आंच तो दे दी मगर खुद कई चीजें भूल गए

चलिये छोड़िए जो मन हो वो देखिये. हम फिल्मों की राजनीति पर बात करने के लिए आज यहां हैं. तो देखिये भाई साहब 1927 में रंगचेरियन समिति ने भी ब्रिटिश राजनीति को भांपते हुए माहौल समझा लिया था. और ब्रिटीशों द्वारा फैलाये गए प्रपोगेंडा की, अमेरिकी फिल्में नैतिक स्वास्थ्य बिगाड़ रही हैं. अत: उन पर प्रतिबंध लगाए जाने चाहिये पर अपनी रिपोर्ट के अध्याय 6 में यह कहा कि यदि सचमुच अमेरिकन फिल्मों का प्रदर्शन राष्ट्रीय हितों के लिए खतरा और नैतिक स्वास्थ्य खराब कर रहा है तो अन्य पश्चिमी फिल्मों के प्रदर्शन से भी ऐसा ही खतरा है. रिपोर्ट के दो वर्ष बाद 1929 में श्रीमान डे साहब ने पूछा कि रिपोर्ट के बाद से कितनी फिल्मों पर प्रतिबंध लगा तो जवाब में यह आया कि 47 फिल्मों पर प्रतिबद्ध लगा जिनमें से 6 खुद इंग्लैंड की थीं.

सेंसर और सिनेमा पर सियासत तो भारत को ब्रिटीशों ने इनाम में दी...

आजाद भारत में सिनेमा का इस्तेमाल भारत के नागरिकों द्वारा परिश्रम और संघर्षों के बाद खुद के मनोरंजन के लिए किया गया. इतिहासकार रामचन्द्र गुहा अपनी किताब, "भारत नेहरू के बाद" में बताते है कि उन दिनों ज्यादातर लोग सिनेमा देखकर अपना समय बिताते थे. भारतीयों के लिए फीचर फिल्में समय बिताने का लोकप्रिय साधन थीं, अभी भी हैं.

देश में आज भी सिनेमा का मुख्य कर्तव्य मनोरंजन करना ही है. क्या कहा? आप नहीं मानते. देश में कॉमेडी जोनर के मुकाबले और कौन सा जोनर टिक पाता है? सामाजिक विषयों पर बनी फिल्में तो अपने स्वर्णयुग में नहीं चली अब इलियन बिलियन कमाने वाली फिल्मों के जमाने में क्या खाक चलेंगी. फिल्म देखने जाने से पूर्व रिव्यू कितना भी खराब हो लेकिन आप जाएंगे कॉमेडी देखने. उदाहरण हाल की ही फिल्म गोलमाल कौन सी ... चौथी.

 राहुल गांधी ने विवाद को आंच तो दे दी मगर खुद कई चीजें भूल गए

चलिये छोड़िए जो मन हो वो देखिये. हम फिल्मों की राजनीति पर बात करने के लिए आज यहां हैं. तो देखिये भाई साहब 1927 में रंगचेरियन समिति ने भी ब्रिटिश राजनीति को भांपते हुए माहौल समझा लिया था. और ब्रिटीशों द्वारा फैलाये गए प्रपोगेंडा की, अमेरिकी फिल्में नैतिक स्वास्थ्य बिगाड़ रही हैं. अत: उन पर प्रतिबंध लगाए जाने चाहिये पर अपनी रिपोर्ट के अध्याय 6 में यह कहा कि यदि सचमुच अमेरिकन फिल्मों का प्रदर्शन राष्ट्रीय हितों के लिए खतरा और नैतिक स्वास्थ्य खराब कर रहा है तो अन्य पश्चिमी फिल्मों के प्रदर्शन से भी ऐसा ही खतरा है. रिपोर्ट के दो वर्ष बाद 1929 में श्रीमान डे साहब ने पूछा कि रिपोर्ट के बाद से कितनी फिल्मों पर प्रतिबंध लगा तो जवाब में यह आया कि 47 फिल्मों पर प्रतिबद्ध लगा जिनमें से 6 खुद इंग्लैंड की थीं.

सेंसर और सिनेमा पर सियासत तो भारत को ब्रिटीशों ने इनाम में दी है. वही हम आज तक खुशी-खुशी संभाले हुए हैं. टीपीओ कॉर्नर के, 43 कोड ऑफ मोरेलिटी, आज भी किसी न किसी तरह भारतीय सेंसर कानून से चिपके हुए हैं. हम इन्हें मजबूरी में ढो रहे है या ढोना ही चाहते हैं. क्योंकि कोई भी आज़ाद भारत की सरकार सेंसरशिप को लेकर उदार नहीं दिखी. न ही इस ओर गंभीरता से देखने की कोशिश करती हुई दिखी. समय-समय पर कमेटियां बनती रहीं, बिगड़ती रहीं, रिपोर्टें आती रहीं, जाती रहीं,  हम जैसे शोध छात्रों के लिए उन्हे पढ़ने के सिवाय उनका अमल काफी सूक्ष्म स्तर पर हुआ.

राहुल गांधी का तमिल सिनेमा पर उमड़ा प्रेम उन्हें लगातार मुसीबत में डाल रहा है

सेंसर पर सियासत का यह पहला मामला नहीं है जिस पर राहुल गांधी अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लग जाने की बात कर रहे हैं. इसकी शुरुआत कांग्रेस ने ही की है. आपने चुनावी दिनों में जो ये ट्वीट.' Mr.Modi, Cinema is a deep expression of Tamil culture and language.Don't try to demon-etise Tamil pride by interfering in Mersal” करके मामले को जो तूल दिया है कोई बच्चा भी आपको पटकनी दे सकता है. आप और आपकी पार्टी सेंसरशिप सिनेमा की बात न ही करें तो बेहतर है. देश में 70 सालों तक राज करने वाली कांग्रेस सिनेमा का दर्शक वर्ग तक तैयार नहीं कर पाई. आज  देश में उंगलियों में गिने जाने वाले फिल्म शिक्षण संस्थान हैं. वहां भी व्यावहारिक ज्ञान देने पर जोर है. सिद्धांत की चर्चा निल बटे सन्नाटा है.

आइये राहुल जी आपको कुछ फिल्मों के उदाहरण दिखाता हूं. जो आपकी सरकार ने किसी न किसी रूप में फिल्मों पर लगाए हैं. और हां सुनिए, कोई पाठक इस बात को एकदम सिरे से न नकारे कि सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का पद गैर राजनीतिक होता है. अपवाद भले ही हो सकते हैं. जो विचारधारा वाली सरकार होगी वह अपना ही फालोअप कराने की कोशिश करती है. जैसे मोदी जी कहते है कि जो विकास कि बात नहीं करेगा उसको एक रुपया भी नहीं देंगे. बेचारा गरीब भूखा है मजबूरी में करेगा.

सेंसर बोर्ड आंकड़ा नहीं दे रहा नहीं तो शुरुआत 1952 से ही करता.जो आरटीआई कांग्रेस ने अपने नागरिकों को उपलब्ध कराई उसका उपयोग जब मैंने किया तो बोर्ड के अधिकारी संजय जैसवाल फोन पर कहते हैं कि,'हमारे पास इतना पुराना डेटा नहीं है. हमने कहा लिख के दो. वो लिख रहे हैं, स्पीड पोस्ट का इंतजार है.

मर्सल की पैरोकारी कर रहे राहुल गांधी को इंदु सरकार पर भी अपना मत रखना चाहिए

1960 के दशक में जब इंडो सोवियत सम्बन्धों में तेजी आ रही थी तब बोर्ड शीत युद्ध वाले सीनों पर खूब काट छांट कर रहा था. डेविड लीन्स की फिल्म डॉक्टर झिवागो इसका प्रबल उदाहरण है. बाद में खोसला कमेटी बनी तो डेविड के साथ सहानुभूति जताई गयी. आपने खोसला कमेटी की सिफारिशों के साथ क्या किया इसकी पड़ताल भी हो रही है.

इंशाल्लाह कश्मीर (2012), द गर्ल विद द ड्रैगन टैटू,फुटबॉल, वॉटर, ब्लैक फ्राइडे, हवा आने दे (2004),फाइनल सलूशन, द पिंक मिरर, फायर, बैंडिट क्वीन, सिक्किम, किस्सा कुर्सी का,आंधी, गर्म हवा,  नील आकाशेर नीचे, शोले (1975), इंडिआना जोंस एंड द टेम्पल ऑफ डूम, अमू,  Kuttrapathirikai, कुत्तरपथीरिकै, हवाएं, कौम दे हीरे, राम तेरी गंगा मैली, सिद्धार्थ, इंसाफ का तराजू जैसी तमाम फिल्मों पर पूर्ण, अंशकालिक प्रतिबंध,कट्स आदि कांग्रेस की सरकार में ही ज्यादा लगे हैं.

आपकी सत्ता जब थी तब हिन्दू और मुस्लिम संगठनों के उपद्रवियों द्वारा फिल्मों को पास न करने का भी दबाव बनाया गया. फना, विश्वरूपम, इन्दु सरकार, पीके आदि फिल्में इसी श्रेणी की हैं. आपने या किसी भी कांग्रेसी ने अभिव्यक्ति की आजादी खत्म करने संबंधी कोई बयान नहीं दिया तब तो. चुनावी माहौल देखकर, आपने सिनेमा माध्यम को टूल्स की तरह प्रयोग तो कर लिया लेकिन यह दांव आप पर ही उल्टा पड़ गया.

जिस सेंसर बोर्ड ने मेर्सल को पास किया उसमें भी राजनीतिक हस्तक्षेप आपकी ही पार्टी ने शुरू की थी. इन्दु सरकार की रिलीज के समय तो आपकी पार्टी के नेता ने न जाने क्या-क्या कहा, और कितना बवाल किया आपको तो पता ही होगा. सत्ता से जुड़ा हुआ व्यक्ति बोर्ड अध्यक्ष बनाना कांग्रेस ने शुरू किया. भाजपा ने तो उस परंपरा को आगे बढ़ाया है. धार्मिक संगठनों के विरोध के बाद केंद्र व राज्य सरकारों ने कितनी फिल्मों को सुरक्षा प्रदान करवाई यह प्रश्न भी आपको अपने ही अन्तर्मन से पूछना चाहिए?

अब समय आ गया है कि राहुल गांधी खुद अपने आप से प्रश्न करें और उसके उत्तर दें

हर बार इन धार्मिक  उपद्रवियों ने फिल्मों और थियेटरों को नुकसान पहुंचाया. जिसके चलते ला एंड ऑर्डर का हवाला देते हुए राज्य सरकारों ने फिल्मों पर प्रतिबंध भी लगाए. आप और आपकी पार्टी कहां थी उस समय. अभिव्यक्ति की आजादी के हनन का हवाल देकर आप मुद्दा नहीं बना पाएंगे. क्योंकि जिस तरह जिन कामों का मोदी उद्घाटन कर रहे है वो भाजपा की देन नहीं है वैसे ही यह सेंसर और सिनेमा विवाद इस सरकार दी देन नहीं है. सत्ता की हनक ये सब करवाती है.

तमिल सिनेमा अपने आप में समृद्ध है उनका नायक अंबेडकर को मानने वाला हो सकता है, उनके यहां सुभ्रमण्यम सरनेम ब्राह्मण वाले विलेन हो सकते हैं तो समझिए कुछ भी हो सकता है. मेर्सल का टार्गेट आडियन्स जितना था उससे अधिक लोग अब उसे देख लेंगे. सेंसर और बढ़ता राजनीतिक विवाद फिल्मों को नए प्रमोशनल टूल्स के रूप में मिल रहा है. मेर्सल जैसी तमाम फिल्में आती जाती रहेंगी लेकिन सवाल यह है कि कैसे इन विवादों को रोका जाये. कब बंद होगा फिल्मों में राजनीतिक पार्टियों और सत्ता का हस्तक्षेप ?

सीधे तौर पर यह कह देना चाहता हूं कि अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम पर किसी भी प्रकार के अंकुश पर समय-समय पर निर्माता, निर्देशक और देश के जागरूक नागरिक सवाल उठाते आते रहे हैं. जिसका नतीजा यह है कि फिल्में जब कानूनी प्रक्रिया में आ जाती हैं तो अधिकतर में जीत फिल्मकार की ही हुई है. कोर्ट ने फिल्मों को बिना किसी कट्स या फिर सेल्फ सेंसर के बाद रिलीज करने का आदेश दिया है.

क्यों नहीं राहुल गांधी सेंसर की सियासत पर खुले मंच पर वाद-प्रतिवाद कर लेते हैं. यकीन मानिए देश का जिम्मेदार नागरिक और फिल्मकार दोनों कांग्रेस से अपना नाता फिर से जोड़ लेंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि नहीं चाहिए उन्हें किसी भी प्रकार की काले कानूनों वाली सेंसरशिप प्रक्रिया. एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें अभिव्यक्ति पर ताला लगाए जाने के सारे गुण मौजूद हैं. 125 करोड़ की जनता का फैसला 25 लोगों का एक बोर्ड कैसे कर सकता है. फिल्मों को सर्टिफ़ाई करने वालों कि कोई अर्हता निर्धारित नहीं है. आदि- आदि ...  आप समय रहते इस सवाल पर नजर डालते तो इस देश में सिनेमा मनोरंजन के साथ शिक्षा और राजनीतिक संवाद का भी प्रखर साधन बनकर उभरता. 

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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