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Axone Review: नागालैंड की कहानी के जरिए पूर्वोत्तर की जिंदगी में भी झांक लो देशवासियों

    • मनीष जैसल
    • Updated: 13 जून, 2020 08:55 PM
  • 13 जून, 2020 08:55 PM
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नार्थ ईस्ट (North East) के कल्चर को बताती है निकोलस खारकोंगर की फिल्म अकुनी (Axone). फिल्म में एक रेसिपी के जरिये ये समझाने का प्रयास किया गया है कि पूर्वोत्तर के लोगों को अपने जीवन में किन किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

निकोलस खारकोंगर (Nicholas Kharkongor) निर्देशित फ़िल्म Axone (अकुनी) आज ही नेटफ्लिक्स (Netflix) पर रिलीज हुई. 2019 में सिनेमा हाल में मेघालय (Megalaya) निवासी निकोलस की यह फ़िल्म पूर्वोत्तर राज्यों की वर्तमान सामाजिक सांस्कृतिक चुनौतियों को बखूबी पेश करती है. दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर से जुड़े युवाओं के समूह की कहानी के जरिये निकोलस ने इसे जिस तरह केंद्र में पूर्वोत्तर भारत के नागरिकों के प्रश्न को रखा है वह काबिले तारीफ है. देश के पूर्वोत्तर हिस्से के समाज में कई किस्से, संस्कृति सभ्यता आज भी ऐसी हैं जिसे देश की बड़ी आबादी नही जानती. मंजू बोरा की पांगचेनपा बोली में बनी फ़िल्म इन द लैंड ऑफ पॉइजन वीमेन और मोनपा में बनी हसन मज़ीद की सोनम में दिखने वाला समाज आपको यह बताने के लिए काफी है कि आपने अभी बहुत कम सिनेमा और समाज देखा है. अकुनी फ़िल्म में असम, मिजोरम, अरुणांचल प्रदेश, सिक्किम, और नागालैंड के समाज और संस्कृति के साथ खानपान और पलायन कर चुके युवाओं के सामने इन्ही संस्कृति पर किस तरह के बदलाव आते हैं फ़िल्म पेश करती है.

असमिया, मैतेई, गालो संगीत का पार्श्व में बजना क्षेत्रीय सिनेमा और भारत की सांस्कृतिक विरासत को पसंद करने वाले दर्शकों जरूर पसंद आएगा. राष्ट्रीय मीडिया में यह प्रश्न जरूर होना चाहिए कि पूर्वोत्तर या देश के किसी भी राज्य के नागरिक को राइट टू ईट एन्ड कुक मिले. लेकिन मीडिया में जिस तरह की खबरें आये दिन इन सभी पूर्वोत्तर राज्यों की देखने सुनने को मिलती रही है उसका असर उस समाज पर भी दिखता है.

पूर्वोत्तर के लोगों को अपने जीवन में कैसे तमाम परेशानियों का सामना करना होता है उसे बताती है अकुनि

निकोलस ने फ़िल्म में बेंदांग के किरदार से उस बहस को फ़िल्म में प्रमुखता से रखा है और ज्यादा भटकाव फ़िल्म में न हो इसके लिए...

निकोलस खारकोंगर (Nicholas Kharkongor) निर्देशित फ़िल्म Axone (अकुनी) आज ही नेटफ्लिक्स (Netflix) पर रिलीज हुई. 2019 में सिनेमा हाल में मेघालय (Megalaya) निवासी निकोलस की यह फ़िल्म पूर्वोत्तर राज्यों की वर्तमान सामाजिक सांस्कृतिक चुनौतियों को बखूबी पेश करती है. दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर से जुड़े युवाओं के समूह की कहानी के जरिये निकोलस ने इसे जिस तरह केंद्र में पूर्वोत्तर भारत के नागरिकों के प्रश्न को रखा है वह काबिले तारीफ है. देश के पूर्वोत्तर हिस्से के समाज में कई किस्से, संस्कृति सभ्यता आज भी ऐसी हैं जिसे देश की बड़ी आबादी नही जानती. मंजू बोरा की पांगचेनपा बोली में बनी फ़िल्म इन द लैंड ऑफ पॉइजन वीमेन और मोनपा में बनी हसन मज़ीद की सोनम में दिखने वाला समाज आपको यह बताने के लिए काफी है कि आपने अभी बहुत कम सिनेमा और समाज देखा है. अकुनी फ़िल्म में असम, मिजोरम, अरुणांचल प्रदेश, सिक्किम, और नागालैंड के समाज और संस्कृति के साथ खानपान और पलायन कर चुके युवाओं के सामने इन्ही संस्कृति पर किस तरह के बदलाव आते हैं फ़िल्म पेश करती है.

असमिया, मैतेई, गालो संगीत का पार्श्व में बजना क्षेत्रीय सिनेमा और भारत की सांस्कृतिक विरासत को पसंद करने वाले दर्शकों जरूर पसंद आएगा. राष्ट्रीय मीडिया में यह प्रश्न जरूर होना चाहिए कि पूर्वोत्तर या देश के किसी भी राज्य के नागरिक को राइट टू ईट एन्ड कुक मिले. लेकिन मीडिया में जिस तरह की खबरें आये दिन इन सभी पूर्वोत्तर राज्यों की देखने सुनने को मिलती रही है उसका असर उस समाज पर भी दिखता है.

पूर्वोत्तर के लोगों को अपने जीवन में कैसे तमाम परेशानियों का सामना करना होता है उसे बताती है अकुनि

निकोलस ने फ़िल्म में बेंदांग के किरदार से उस बहस को फ़िल्म में प्रमुखता से रखा है और ज्यादा भटकाव फ़िल्म में न हो इसके लिए उन्होंने पूर्वोत्तर राज्यों की संस्कृति उनके लोक गीतों और लोक परंपराओं का भी बखूबी प्रयोग कर उन्हें सहेजने का प्रयास किया है. मैनेजमेंट के छात्र रहे निकोलस ने अपने निर्देशकीय क्षमता की फ़िल्म को अपने सभी अवयवों में बेहतरी से बांध पाने में सफल हुए.

आप देखिए इस फ़िल्म में पूर्वोतर राज्यों से किसी स्टार के साथ प्रयोग न करते हुए सभी नए चेहरों के साथ फ़िल्म बनाई. आदिल हुसैन इसमें अपवाद हैं. फ़िल्म में वो सिर्फ एक चारपाई में बैठे फिल्मी किरदारों को सिर्फ देखते हुए दिखते हैं. मुझे उनका इस फ़िल्म में होना ऐसा भी लगता है जैसे उन्होंने उसी चारपाई में बैठे बैठे फ़िल्म की पटकथा पर भी लगतार नज़र बनाये रखी है.

फ़िल्म में महिलाओं की उपस्थिति वैसी ही सशक्त हैं जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में वहां के समाज में. सयानी गुप्ता,लिन लेशराम ने सिक्किम बखूबी काम किया है. गालो, मिज़ो,नेपाली, भाषा को जिस तरह से निकोलस अपने किरदारों से इस्तेमाल कराते दिखते हैं वह किसी भी क्षेत्रीय सिनेमा की बेहतरी के लिए सकारात्मक है.

मिनम और चिमर की शादी होनी हैं लेकिन मिनम दिल्ली में आईएएस की तैयारी और परीक्षाओं में व्यस्त है. चूंकि मिनम की दादी वृद्ध हैं और कभी भी स्वर्गवासी हो सकती हैं इसीलिए गालो ट्राइब के रीति रिवाज के अनुसार मिनम और चिमर की शादी में मिनम की जगह उसकी बहन को शामिल कर शादी कर दी जाती है. जिसे मिनम दिल्ली में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये देखती है.

पूरी फ़िल्म इसी शादी के सफलता पूर्वक आयोजन के लिए ही दर्शकों को तमाम मुद्दों को उठाती हुई दिखती है. अकुनी नाम के व्यंजन को बनाने की जद्दोजहद में निर्देशक एक सवाल खड़ा करते हैं कि क्या देश में अपनी पसंद का खाना खाने और बनाने की आज़ादी नही है? और यह सवाल उसी दिल्ली की पृष्ठभूमि में उठा रहे हैं जहां आये दिन पूर्वोत्तर भारत के पलायन किये युवाओं पर हो रहे अत्याचार और वारदातें हो रही हैं.

दिल्ली में एक छोटा सा नार्थ ईस्ट जब आप इस फ़िल्म में देखेंगे तो पाएंगे कि वाकई यहां की संस्कृति सभ्यता और रीति रिवाजो में रोचकता है जो किताबों में पढ़े गए 'भारत विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं वाला देश है' को सिद्ध करता है. गौरतलब है कि इस फ़िल्म को लंदन फ़िल्म फेस्टिवल के साथ मुम्बई इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के बाद नेटफ्लिक्स में जगह मिली है. और बड़ा दर्शक वर्ग पूर्वोत्तर को समझ सके इसके किये हिंदी में इसको बनाया गया है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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