• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सिनेमा

आज का विजय फेंके हुए पैसे भी उठाता है, बांटता भी है

    • मंजीत ठाकुर
    • Updated: 11 अक्टूबर, 2017 12:59 PM
  • 11 अक्टूबर, 2017 12:59 PM
offline
जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ से लड़ने वाला युवा-गुस्‍सैल विजय आज देश के युवाओं को करोड़पति बना रहा है. सिनेमाई कॅरिअर में अमिताभ बच्‍चन के बदलते रंग देखने लायक हैं.

उस दौर में जब राजेश खन्ना का सुनहरा रोमांस लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, समाज में थोड़ी बेचैनी आने लगी थी. आराधना से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ था. खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था.

राजेश खन्ना अपने 4 साल के छोटे सुपरस्टारडम में लोगों को लुभा तो ले गए, लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं जैसी प्रेम कहानियों को देखकर कर कसमसा रहा था. इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं. सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी. दर्शक बेचैन था. उन्ही दिनों परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद एक बाग़ी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना.

मंहगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज़ की ज़रुरत थी. ऐसे में इस लंबे लड़के की बुलंद आवाज़ परदे पर गूंजने लग गई. इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके और ख़ुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता. गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी. उस वक्त जब देश जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया.

एंग्री यंग मैन में लोगों को अपना अक्स दिखा

विजय के नाम से जाना जाने वाला यह शख्स, एक ऐसा नौजवान था, जो इंसाफ के लिए लड़ रहा था, और जिसको न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता है.

कुछ लोग तो इतना तक कहते है कि अमिताभ के इसी गुस्सेवर नौजवान ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी. लेकिन बदलते वक्त...

उस दौर में जब राजेश खन्ना का सुनहरा रोमांस लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, समाज में थोड़ी बेचैनी आने लगी थी. आराधना से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ था. खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था.

राजेश खन्ना अपने 4 साल के छोटे सुपरस्टारडम में लोगों को लुभा तो ले गए, लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं जैसी प्रेम कहानियों को देखकर कर कसमसा रहा था. इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं. सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी. दर्शक बेचैन था. उन्ही दिनों परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद एक बाग़ी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना.

मंहगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज़ की ज़रुरत थी. ऐसे में इस लंबे लड़के की बुलंद आवाज़ परदे पर गूंजने लग गई. इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके और ख़ुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता. गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी. उस वक्त जब देश जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया.

एंग्री यंग मैन में लोगों को अपना अक्स दिखा

विजय के नाम से जाना जाने वाला यह शख्स, एक ऐसा नौजवान था, जो इंसाफ के लिए लड़ रहा था, और जिसको न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता है.

कुछ लोग तो इतना तक कहते है कि अमिताभ के इसी गुस्सेवर नौजवान ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी. लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया. जंजीर में उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टर की नौकरी छोड़ देने वाला नौजवान फिल्म देव तक अधेड़ हो जाता है. जंजीर में उस सब-इंस्पेक्टर को जो दोस्त मिलता है वह भी ग़ज़ब का. उसके लिए यारी, ईमान की तरह होती है.

बहरहाल, अमिताभ का गुस्सा भी कुली, इंकलाब आते-आते टाइप्ड हो गया. जब भी इस अमिताभ ने खुद को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं में या अग्निपथ में बदलना चाहा, लोगों ने स्वीकार नहीं किया.

तो नएपन के इस अभाव की वजह से लाल बादशाह, मत्युदाता, और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया अमिताभ लोगों को नहीं भाया. वजह- उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता का मानस बदल गया था. अब लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसा था, तो वह रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करे?

उम्र में आया बदलाव उसूलों में भी बदलाव का सबब बन गया. देव में इसी नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं, और वह समझौतावादी हो जाता है.

लेकिन अमिताभ जैसे अभिनेता के लिए, भारतीय समाज में यह दो अलग-अलग तस्वीरों की तरह नहीं दिखतीं. दोनों एक दूसरे में इतनी घुलमिल गए हैं कि अभिनेता और व्यक्ति अमिताभ एक से ही दिखते हैं. जब अभिनेता अमिताभ कुछ कर गुज़रता है तो लोगों को वास्तविक जीवन का अमिताभ याद रहता है और जब असल का अमिताभ कुछ करता है तो पर्दे का उसका चरित्र सामने दिखता है.

अमिताभ का चरित्र बाज़ार के साथ जिस तरह बदला है वह भी अपने आप में एक चौंकाने वाला परिवर्तन है. जब ‘दीवार के एक बच्चे ने कहा कि उसे फेंककर दिए हुए पैसे मंज़ूर नहीं, पैसे उसको हाथ में दिए जाएं'. तो लोगों ने ख़ूब तालियां बजाईं.

अमिताभ भी बाजार से अछूता नहीं रह पाए

बहुत से लोगों को लगा कि यही तो आत्मसम्मान के साथ जीना है. उसी अमिताभ को बाज़ार ने किस तरह बदला कि वह अभिनेता जिसके क़द के सामने कभी बड़ा पर्दा छोटा दिखता था, उसने छोटे पर्दे पर आना मंजूर कर लिया.

फिर उसी अमिताभ ने लोगों के सामने पैसे फ़ेंक-फेंककर कहा, ‘लो, करोड़पति हो जाओ.’ कुछ लोगों को यह अमिताभ अखर रहा था लेकिन ज्यादातर लोगों को बाज़ार का खड़ा किया हुआ यह अमिताभ भी भा गया. अपनी फिल्मों के साथ आज अमिताभ हर मुमकिन चीज बेच रहे हैं. वह तेल, अगरबत्ती, पोलियो ड्रॉप से लेकर रंग-रोगन, बीमा और कोला तक खरीदने का आग्रह दर्शकों से करते हैं. करें भी क्यों न, आखिर उनकी एक छवि है और उन्हें अपनी छवि को भुनाने का पूरा हक है. दर्शक किसी बुजुर्ग की बात की तरह उनकी बात आधी सुनता भी है और आधी बिसरा भी देता है.

बहरहाल, अमिताभ आज भी चरित्र निभा रहे हैं, लेकिन उनके शहंशाहत को किसी बादशाह की चुनौती झेलनी पड़ रही है. हां, ये बात और है कि शहंशाह बूढा ज़रुर हो गया है पर चूका नहीं है. बाज़ार अब भी उसे भाव दे रहा है क्योंकि उसमें अब भी दम है.

ये भी पढ़ें-

क्‍या BJP भी कौन बनेगा करोड़पति ( KBC ) की स्‍पांसर है ?

अमिताभ तो केबीसी को बस 'ढो' ही रहे हैं

पनामा पेपर्स लीक : फर्क नवाज शरीफ और अमिताभ बच्चन के गुनाह में

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    सत्तर के दशक की जिंदगी का दस्‍तावेज़ है बासु चटर्जी की फिल्‍में
  • offline
    Angutho Review: राजस्थानी सिनेमा को अमीरस पिलाती 'अंगुठो'
  • offline
    Akshay Kumar के अच्छे दिन आ गए, ये तीन बातें तो शुभ संकेत ही हैं!
  • offline
    आजादी का ये सप्ताह भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया है!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲