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आखिर अमिताभ बच्चन की झुंड के इस खास सीन की चर्चा क्यों हो रही है?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 08 मार्च, 2022 12:25 AM
  • 07 मार्च, 2022 09:18 PM
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नागराज मंजुले की स्पोर्ट्स बायोग्राफिकल ड्रामा 4 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी. अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका से सजी फिल्म ने लोगों का ध्यान खींचा है और इसे लेकर बहस भी देखने को मिल रही है.

झुंड और बॉलीवुड की दूसरी स्पोर्ट्स ड्रामा में क्या अंतर है? द प्रिंट पर 83 और जर्सी जैसी फिल्मों का जिक्र करते हुए रेवती कृष्णन, नागराज मंजुले के काम की समीक्षा में लिखती हैं- 'अंतर जाति का है.' यानी तमाम स्पोर्ट्स ड्रामा में सबकुछ है पर जाति का स्पष्ट नजरिया नहीं है, जो झुंड को भीड़ में सबसे अलग कर जाती है. इसी समीक्षा में रेवती ने स्थापित किया कि कैसे झुंड में 'बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह दिया' गया है जो अब तक भारतीय सिनेमा खासकर बॉलीवुड में नजर नहीं आता. कम से कम व्यापक परिदृश्य तो यही है.

मंजुले ने झुंड के तमाम दृश्यों में 'बिना कुछ कहे जो कहा है' उस पर खूब बात हो रही है. तमाम दृश्यों में से एक सीन है जिसके विजुअल और फोटो बहस में आ चुके हैं. लोग लिख रहे कि हिंदी सिनेमा में इस एक दृश्य को परदे पर आने में कई दशक लग गए. यह सीन है नागपुर में अंबेडकर जयंती के दौरान होने वाले उत्सव का है. इसमें डॉ. भीमराव अंबेडकर की बड़ी सी तस्वीर दिख रही है. तस्वीर में शिवाजी महाराज, छत्रपति शाहूजी महाराज और ज्योतिबा फुले भी हैं. झाकियां निकल रही हैं. युवा नाच-गाकर जश्न मना रहे हैं.

युवाओं के बीच से विजय बोरसे के किरदार में अमिताभ बच्चन, डॉ. अंबेडकर की तस्वीर निहारते, उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करते आगे निकलते दिख रहे हैं.

झुंड के इस सीन को लेकर खूब बात हो रही है.

झुंड में दिख रहा अंबेडकर का दृश्य बहुत ही स्वाभाविक और मौलिक है

यह बहुत स्वाभाविक दृश्य है. महाराष्ट्र से बाहर रहने वाले कुछ समीक्षकों को भले दृश्य जबरदस्ती का और नकली नजर आ...

झुंड और बॉलीवुड की दूसरी स्पोर्ट्स ड्रामा में क्या अंतर है? द प्रिंट पर 83 और जर्सी जैसी फिल्मों का जिक्र करते हुए रेवती कृष्णन, नागराज मंजुले के काम की समीक्षा में लिखती हैं- 'अंतर जाति का है.' यानी तमाम स्पोर्ट्स ड्रामा में सबकुछ है पर जाति का स्पष्ट नजरिया नहीं है, जो झुंड को भीड़ में सबसे अलग कर जाती है. इसी समीक्षा में रेवती ने स्थापित किया कि कैसे झुंड में 'बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह दिया' गया है जो अब तक भारतीय सिनेमा खासकर बॉलीवुड में नजर नहीं आता. कम से कम व्यापक परिदृश्य तो यही है.

मंजुले ने झुंड के तमाम दृश्यों में 'बिना कुछ कहे जो कहा है' उस पर खूब बात हो रही है. तमाम दृश्यों में से एक सीन है जिसके विजुअल और फोटो बहस में आ चुके हैं. लोग लिख रहे कि हिंदी सिनेमा में इस एक दृश्य को परदे पर आने में कई दशक लग गए. यह सीन है नागपुर में अंबेडकर जयंती के दौरान होने वाले उत्सव का है. इसमें डॉ. भीमराव अंबेडकर की बड़ी सी तस्वीर दिख रही है. तस्वीर में शिवाजी महाराज, छत्रपति शाहूजी महाराज और ज्योतिबा फुले भी हैं. झाकियां निकल रही हैं. युवा नाच-गाकर जश्न मना रहे हैं.

युवाओं के बीच से विजय बोरसे के किरदार में अमिताभ बच्चन, डॉ. अंबेडकर की तस्वीर निहारते, उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करते आगे निकलते दिख रहे हैं.

झुंड के इस सीन को लेकर खूब बात हो रही है.

झुंड में दिख रहा अंबेडकर का दृश्य बहुत ही स्वाभाविक और मौलिक है

यह बहुत स्वाभाविक दृश्य है. महाराष्ट्र से बाहर रहने वाले कुछ समीक्षकों को भले दृश्य जबरदस्ती का और नकली नजर आ रहा हो, मगर जिन्होंने महाराष्ट्र में वक्त बिताया है उन्हें मालूम है ये कितने यथार्थपरक हैं. महाराष्ट्र में गणेश पूजा और अंबेडकर जयंती के रूप में दो मौके नजर आते हैं जब वहां की सड़कों पर व्यापक उत्सव होता है. और यह एक-दो महीने पहले शुरू किया गया उल्लास नहीं है, बल्कि कई सालों से परंपरा को निभाया जा रहा है. अंबेडकर जयंती के दिन यह समूचे महाराष्ट्र का आम दृश्य है. हालांकि नागपुर में यह बिल्कुल अलग होता है. नागपुर में तो अंबेडकर जयंती के दिन लाखों लोग जुटते हैं. लोग सिर्फ नागपुर के नहीं होते. बल्कि महाराष्ट्र समेत देश के तमाम इलाकों से यहां पहुंचते हैं.

अंबेडकर जयंती के मौके पर दीक्षाभूमि की ओर जाने वाली हर सड़क अंबेडकरी प्रतीकों से पटी रहती है. हर जगह नीली झंडियां, धम्म चक्र और अंबेडकर के पोस्टर लहराते दिखते हैं. पूरा शहर सजा-संवरा होता है. सड़कों पर जगह-जगह लोग स्टॉल लगाते हैं- जहां खाने-पीने का सामान मुफ्त में बांटा जाता है. कोई पूड़ी सब्जी खिला रहा होता है तो कोई शर्बत, चाय और कहीं मिठाइयां बंटती दिखती है. कई लोग बाबा साहब और अंबेडकरी प्रतीकों से जुड़ी झाकियां निकालते हैं. झाकियों में शामिल युवा ढोल ताशे और डीजे की धुन पर नाचते गाते नजर आते हैं. जगह-जगह सांस्कृतिक आयोजन होते हैं जिसमें अंबेडकरी गीत गाए जाते हैं. पक्तियों का लेखक प्रत्यक्ष गवाह है.

मंजुले की फिल्मों पर अंबेडकरी विचारों का जबरदस्त असर

मंजुले ने झुंड में इसे यूं ही इस्तेमाल नहीं किया है. असल में यह दृश्य बिना कुछ कहे झुंड में दलितों के संघर्ष और उपलब्धि का लेखा जोखा है. इन दृश्यों में अंबेडकर की वजह से एक बड़े समाज में हुए बदलाव का फर्क दिखता है. मंजुले खुद हाशिए के समाज से आते हैं. उनका जीवन बहुत मुश्किलों में गुजरा है. डॉ. अंबेडकर की विचारधारा से गहरे प्रभावित हैं. यही वजह है कि उनकी फिल्मों में अंबेडकरी विचारों का तगड़ा असर है. मंजुले ने इस तरह के कई और बैकड्राप, झुंड में इस्तेमाल किए हैं. सबके निहितार्थ हैं. असल में सिनेमा के बैकड्राप सीन्स की बहुत अहमियत होती है. खासकर से जब आप फिल्मों को वैचारिक धरातल पर भी बना रहे होते हैं. वहां यही बैकड्राप कहानी को आगे बढ़ाते हैं, विषय की गहराई को दिखाते हैं. चुप रहकर भी संवाद करते हैं.

झुंड से पहले भी मंजुले की फिल्मों में ऐसे बैकड्राप नजर आते हैं. मंजुले ही नहीं बल्कि मुख्यधारा के सिनेमा में जाति के बहाने अपनी बात कहने वाले दूसरे निर्देशकों की फिल्मों में भी ऐसे ही बैकड्राप दिखते हैं. उदाहरण के लिए तमिल फिल्मकार पा रंजीत, वेट्रीमारन की पिछली तमाम फिल्मों को देखा जा सकता है. काला, कबाली और करणन जैसी कमर्शियल फिल्मों में भी प्रतीकों को तार्किक ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है. बस दिक्कत यह है कि गैर दलित निर्देशकों ने अपनी कहानियों में इस तरह के सीन्स का प्राय: इस्तेमाल ही नहीं किया. वजहें जो भी रही हों, चूंकि ऐसे दृश्य सिनेमा का हिस्सा नहीं बने तो लोग इन्हें लेकर सहज नहीं और उन्हें यह बेजा दिख रहा है.

अब यह सवाल स्वाभाविक है कि जब किसी इलाके में गणेश पूजा की तरह ही अंबेडकर जयंती भी मनाई जाती है फिर क्यों एक दृश्य बार-बार सिनेमा में दिखता है मगर दूसरा दृश्य गायब रहता है? आरोप लगते हैं कि गैर दलित फिल्म मेकर्स ने हमेशा अंबेडकरी दृश्यों से परहेज किया है. इन्हें महत्वपूर्ण ही नहीं माना. यहां तक कि उन फिल्मों में भी नहीं जहां सीधे-सीधे डॉ. भीम राव अंबेडकर का रिफरेंस मौजूद रहा. सोशल मीडिया पर लोग 1982 में आई 'गांधी' जैसी फिल्मों का उदाहरण देते हुए कह रहे कि फिल्म में गांधी और अंबेडकर से जुड़े प्रसंग के बावजूद परदे पर ना तो अंबेडकर का किरदार दिखाया गया और ना ही उनकी कोई तस्वीर. लोगों का तर्क है कि यह सिनेमा की जातिगत सोच को दर्शाता है. और इस सोच को झुंड जैसी फिल्मों से गैरसवर्ण फिल्म मेकर चुनौती दे रहे हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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