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Darlings: नारीवादी चादर डाल शेख साब ने भारतीय इस्लाम को बचा लिया, पर दूसरी ज्यादतियां क्यों?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 21 अगस्त, 2022 10:03 PM
  • 21 अगस्त, 2022 07:56 PM
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आलिया भट्ट की डार्लिंग्स बेहतरीन फिल्म है. लगभग सभी ने इसकी तारीफ़ भी की है. मगर फिल्म में जिस तरह से मुसलमानों को भेदभाव का शिकार दिखाया गया है उसे क्रूर कल्पना की पराकाष्ठा कहा जा सकता है. निर्माताओं को चाहिए था कि मुसलमानों से भेदभाव पर अलग से फिल्म बना देते. उसकी जगह कम से कम इस साझी कहानी में नहीं होनी चाहिए थी.

विश्लेषण में स्पॉइलर हैं. अपनी जरूरत के हिसाब से ही पढ़ने के लिए आगे बढ़ें.

शाहरुख की पत्नी गौरी खान और आलिया भट्ट के प्रोडक्शन ने बहुत खूबसूरती से दो जरूरी मगर अलग-अलग विषयों को एक ही कहानी में लपेट दिया. डार्लिंग्स में ग्रिप जबरदस्त है. वाहवाही भी हुई और दर्शक यूं डूबे कि फिल्म के नैरेटिव को समझ ही नहीं पाए. डार्लिंग्स की जिन खराब चीजों की आलोचना होनी थी वह नहीं हुई. फिल्म को बॉलीवुड के उसी नैरेटिव की एक शातिर कोशिश का हिस्सा माना जाना चाहिए जो पिछले 75 साल से हिंदी पट्टी को अपने तरीके से हांकने की कोशिश में लगा नजर आता है.

बॉलीवुड की तमाम फिल्मों ने समाज और राजनीति में कुछ समाधान तो नहीं दिया उल्टे बंटवारे को बढ़ावा दिया. सुविधाजनक नैरेटिव स्थापित कर जनमत का निर्माण किया और तमाम चीजों को प्रभावित किया. कम से कम पॉपुलर धारा की बॉलीवुड फिल्मों में आजतक यही ट्रेंड नजर आता है. बॉलीवुड और दक्षिण की जो बहस खड़ी हुई- उसमें एक बड़ी वजह यह भी है. कहानियों का गड्डमड्ड पदलो. दक्षिण की फ़िल्में चीजों को लेकर स्पष्ट हैं. बॉलीवुड में निश्चित ही अस्पष्टता है. डार्लिंग्स उसका सबसे ताजा तरीन और शानदार नमूना है.

खैर, यह सवाल तो किया ही नहीं किया जा सकता कि डार्लिंग्स उम्दा फिल्म नहीं है. बिल्कुल उम्दा फिल्म है. वह चाहे दिलचस्प स्क्रिप्ट हो या फिर कलाकारों का अभिनय- डार्लिंग्स कई लिहाज से शानदार फिल्म ही कही जाएगी. इसकी कहानी शरारती बदरून्निशा (आलिया भट्ट) की है. वह अपनी मां शम्सुन्निशा (शेफाली शाह) के साथ रहती है. बचपन में ही पिता का साया उठ चुका है. बदरू को हमजा (विजय वर्मा) से प्यार है. रेलवे में टीसी की नौकरी पाने के बाद हमजा-बदरू शादी कर लेते हैं. तीन साल तक सब ठीकठाक है. मगर बाद में शराबी हमजा, बदरू पर अक्सर क्रूर हमले करने लगता है.

विश्लेषण में स्पॉइलर हैं. अपनी जरूरत के हिसाब से ही पढ़ने के लिए आगे बढ़ें.

शाहरुख की पत्नी गौरी खान और आलिया भट्ट के प्रोडक्शन ने बहुत खूबसूरती से दो जरूरी मगर अलग-अलग विषयों को एक ही कहानी में लपेट दिया. डार्लिंग्स में ग्रिप जबरदस्त है. वाहवाही भी हुई और दर्शक यूं डूबे कि फिल्म के नैरेटिव को समझ ही नहीं पाए. डार्लिंग्स की जिन खराब चीजों की आलोचना होनी थी वह नहीं हुई. फिल्म को बॉलीवुड के उसी नैरेटिव की एक शातिर कोशिश का हिस्सा माना जाना चाहिए जो पिछले 75 साल से हिंदी पट्टी को अपने तरीके से हांकने की कोशिश में लगा नजर आता है.

बॉलीवुड की तमाम फिल्मों ने समाज और राजनीति में कुछ समाधान तो नहीं दिया उल्टे बंटवारे को बढ़ावा दिया. सुविधाजनक नैरेटिव स्थापित कर जनमत का निर्माण किया और तमाम चीजों को प्रभावित किया. कम से कम पॉपुलर धारा की बॉलीवुड फिल्मों में आजतक यही ट्रेंड नजर आता है. बॉलीवुड और दक्षिण की जो बहस खड़ी हुई- उसमें एक बड़ी वजह यह भी है. कहानियों का गड्डमड्ड पदलो. दक्षिण की फ़िल्में चीजों को लेकर स्पष्ट हैं. बॉलीवुड में निश्चित ही अस्पष्टता है. डार्लिंग्स उसका सबसे ताजा तरीन और शानदार नमूना है.

खैर, यह सवाल तो किया ही नहीं किया जा सकता कि डार्लिंग्स उम्दा फिल्म नहीं है. बिल्कुल उम्दा फिल्म है. वह चाहे दिलचस्प स्क्रिप्ट हो या फिर कलाकारों का अभिनय- डार्लिंग्स कई लिहाज से शानदार फिल्म ही कही जाएगी. इसकी कहानी शरारती बदरून्निशा (आलिया भट्ट) की है. वह अपनी मां शम्सुन्निशा (शेफाली शाह) के साथ रहती है. बचपन में ही पिता का साया उठ चुका है. बदरू को हमजा (विजय वर्मा) से प्यार है. रेलवे में टीसी की नौकरी पाने के बाद हमजा-बदरू शादी कर लेते हैं. तीन साल तक सब ठीकठाक है. मगर बाद में शराबी हमजा, बदरू पर अक्सर क्रूर हमले करने लगता है.

डार्लिंग्स में आलिया भट्ट और शेफाली शाह.

भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में महिलाएं पति के हाथों लगभग जिन वजहों से हिंसा का शिकार बनती हैं- बदरू भी वैसे ही झेलती है. कोई फर्क नहीं है. शम्सु को बुरा लगता है. बेटी को तलाक देने के लिए कहती ही रहती है. बदरू को हमजा से तलाक नहीं चाहिए. हालांकि बाद में हालात ऐसे बन जाते हैं कि बदरू, हमजा को सबक सिखाने का फैसला करती है. सबक कैसे सिखाती है- बस इसी चीज को फिल्म में दिखाया गया है. क्राफ्ट जबरदस्त है. ह्यूमर में डूबी फिल्म के आख़िरी 30 मिनट में जबरदस्त थ्रिल है.

डार्लिंग्स जो एक मुस्लिम की कहानी होकर भी सबकी कहानी बन गई है

डार्लिंग्स की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि उपमहाद्वीप में एक मुस्लिम की कहानी होने के बावजूद केवल उन्हीं की नहीं लगती. हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन और ईसाई की कहानी नहीं होने के बावजूद उनकी भी कहानी बन जाती है. बिना शक यह समूचे उपमहाद्वीप में महिलाओं की एक साझी कहानी है. कई बार तो ऐसा लगा कि अगर मुस्लिम किरदारों की जगह किसी और को भी रख दिया जाता तो बॉलीवुड की शायद इकलौती फिल्म होगी जहां कोई अंतर नहीं पड़ता दिखता. फिल्म के बैकड्राप में मजहब के रूप में 'इस्लाम' या कोई दूसरा धर्म प्रत्यक्ष है ही नहीं. संकेतों में है. और संकेत कहीं बचाव की मुद्रा में हैं और कहीं नीना जरूरत के हमलावर नजर आते हैं.

फिल्म में दो जगह मस्जिद की आवाज भर सुनाई देती है. कोई मौलाना नजर नहीं आता. बदरू, शम्सु और हमजा मिले जुले चाल में रहते हैं. फिल्म की कहानी भी 40 साल पहले आई बीआर चोपड़ा की 'निकाह' जैसी नहीं है जिसमें 'हलाला' की आलोचना की गई हो. किसी भी भारतीय दर्शक को डार्लिंग्स की कहानी हर तरीके से प्रभावित करती ही करती. मुझे ताज्जुब इस बात का है कि थियेटर कंटेंट को सिनेमाघरों की बजाए ओटीटी पर क्यों रिलीज किया गया? यह तमाम विरोध के बावजूद शर्तिया 100 करोड़ कमाने वाली फिल्म थी.

क्या गौरी खान एंड टीम को यह डर था कि बॉलीवुड के खिलाफ जिन मुद्दों को लेकर फिलहाल का विरोध दिख रहा है वह नकारात्मक असर डाल जाती. खासकर- हिंदू-मुस्लिम मसला. मुझे लगता है कि कहीं ना कहीं निर्माताओं को यह डर था. और उनके डर की वजह थी. असल में चोर की दाढ़ी में तिनके जैसा मामला समझ सकते हैं इसे. भले ही रिलीज से पहले पब्लिक डोमेन में नेपोटिज्म के अलावा डार्लिंग्स के खिलाफ कुछ ख़ास नहीं था, मगर फिल्म बनाने वाले मेकर्स तो जानते ही थे कि असल में उनकी कहानी में और क्या-क्या है?

जब साझे समाज की साझी परेशानियों को डील करने निकले थे फिर फर्जी विक्टिम कार्ड क्यों?

बदरू के बहाने फिल्म ने एक साझे समाज की साझी परेशानियों और उसे अपनी तरह से डील करती साधारण महिला की कहानी तो दिखाई गई, मगर लगे हाथ मुसलमानों को भारत में विक्टिम के रूप में पेश करने की नायाजय कोशिश भी नजर आती है. यह एक कहानी के साथ बेईमानी तो है इसके जरिए झूठे नैरेटिव को भी गढ़ा गया. डार्लिंग्स की कहानी परवेज शेख के साथ मिलकर निर्देशक जसमीत ने लिखी है. शराबी हमजा फिल्म का खल चरित्र है. उसका किरदार जब तक बदरू, शम्सु और जुल्फी के साथ है निगेटिव लगता है.

मगर जैसे ही वह यहां से कहीं अलग दिखता है सिम्पैथी बटोरने की कोशिश करता है. कार्यस्थल में टीसी के रूप में हमजा से काम लेने की बजाए उसके साथ भेदभावपूर्ण बर्ताव होता है. टॉयलेट की सफाई की जाती है. अफसर सेवा टहल करवाते नजर आते हैं. जबकि हमजा का हमउम्र साथी कर्मचारी के साथ ऐसा बर्ताव नहीं दिखता. ठीक है कहानी दिखाने के नाम पर मेकर्स को छूट हासिल करने का अधिकार है. मगर जिस तरह से चीजों का सामान्यीकरण एक 'खल चरित्र के साथ किया गया, क्या हकीकत में भी ऐसा है? फ़िल्में सिर्फ मनोरंजन का विषय नहीं हैं. वह पब्लिक ओपिनियन भी तैयार करती हैं. एक मुसलमान के रूप में हमजा जिस तरह से भेदभाव का शिकार होता है उसका असर क्या माना जाए?

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिमों के खिलाफ धार्मिक आधार पर कहीं-कहीं कार्यस्थलों में एक निगेटिविटी है. मगर उसकी वजहें राजनीतिक ज्यादा हैं. लेकिन इस तरह के भेदभाव के उदाहरण और वह भी मुंबई जैसे महानगर में तो नहीं दिखते. हां, इमरान हाशमी की वजह से पता चला था कि अमीर मुसलमानों को भी मुंबई में धर्म की वजह से घर नहीं मिल पाता. कितना विरोधाभास है डार्लिंग्स में कि हमजा और उसकी सास के पड़ोसी हिंदू हैं, वह भी अच्छे ही. मगर कार्यस्थल में उसके साथ दुर्व्यवहार होता है.

जहां तक बात भारतीय रेल में साफ़ सफाई का है- यह काम वही करता है जिसकी नियुक्ति इसी काम के लिए हुई है. सिर्फ हमजा के बहाने ही नहीं बल्कि शम्सु और बदरू के जरिए भी मुसलमानों को विक्टिम की तरह पेश किया गया. थाने में बदरू-शम्सु का पुलिस इंस्पेक्टर तावड़े के साथ का संवाद देखिए. जब बदरून्निशा और शम्सुन्निशा अपना नाम बताती हैं, तावड़े उनके 'न्निशा' पर यूं धार्मिक विभाजन करता दिखता है जैसे वे दोनों किसी दूसरे ग्रह से आकर मुंबई में बस गए हों. तावड़े बताता है कि उसके समाज में 'निशा' का क्या मतलब होता है.

डार्लिंग्स में आलिया भट्ट.

क्लाइमैक्स में भी जब हमजा के एक्सिडेंटल मौत की गुत्थी में हत्या पर शक जताने वाला तावड़े मजबूरन केस पर से ध्यान हटाते हुए सहकर्मी से पूछता है कि आज टिफिन में क्या है. नॉनवेज सुनते ही वह वडापाव लाने को बोलता है. कुछ इस तरह जैसे टिफिन बिजनेस करने वाली शम्सु और बदरू ने हमजा को मारने के बाद उसके गोश्त को पकाकर भेज दिया हो.

फिल्म में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक और उनके साथ होने वाले खराब व्यवहार को दिखाया गया है. अब सवाल है कि जब फिल्म कायदे से घरेलू हिंसा पर केंद्रित थी और उसमें एक साझी कहानी बनने की क्षमता भी है तो भला हिंदू-मुस्लिम के नैरेटिव को यहां ठूसने की क्या ही जरूरत थी? निर्माता इस्लामोफोबिया या मुसलमानों की रोजमर्रा की तकलीफों पर एक अलग फिल्म बनाकर सिनेमाघर ना सही ओटीटी पर रिलीज कर सकते थे? विरोधाभासी चीजों के बहाने बहुलतावादी देश और उसकी संस्थाओं को बदनाम करने की क्या आवश्यकता थी.

इस्लामोफोबिया पर जवाब देने के लिए ऐसी जबरदस्ती ठीक नहीं

जो चीजें हकीकत से कोसों दूर हैं उन्हें इस्लामोफोबिया के नाम पर जबरदस्ती दिखाया गया. मगर हकीकत में इस्लाम के जिस रूढ़िवादी ढाँचे पर हमला हो सकता था उसे नजरअंदाज कर दिया गया. कायदे से फिल्म के जरिए इस्लाम में महिलाओं के कथित उत्पीडन पर गैरमुस्लिमों के अतार्किक सवालों को एड्रेस किया ही जा सकता था. कम से कम तीन तलाक के मसले पर भी बात हो ही सकती थी. फिल्म में प्रसंग भी आ ही जाता है. आधुनिक शहरी मुसलमान हमजा कहता ही है बदरू से कि उसने ना तो बुरका थोपा और ना ही घूमने टहलने पर पाबंदी लगाई. क्या डार्लिंग्स में यह तमाम विरोधाभासी चीजों की गुत्थमगुत्थी नहीं है.

बावजूद अगर किसी को फिल्म में दिखाई गई चीजें ठीक लग रही हैं तो डार्लिंग्स का निष्कर्ष साफ़ है. मुस्लिमों को घर से बाहर हर जगह धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इसकी वजह से वह फ्रस्टेड हो रहे हैं. फ्रस्टेशन में शराब या दूसरे नशे का सेवन कर रहे हैं. नशे की वजह से घर में पत्नी पर बाहर से मिले फ्रस्टेशन को निकालते हैं. बावजूद की पत्नी को दिल-जान से चाहते हैं. मासूम बदरू के उत्पीड़न की वजह गैरमुस्लिम और भारत की तमाम संस्थाओं का भेदभावपूर्ण व्यवहार है.

बाकी कोई शम्सु और जुल्फी सहमत हैं तो मुंहबोली मौसी या किसी ख़ूबसूरत उम्रदराज महिला से प्रेम करने में मुझे कोई गुनाह नहीं दिखता. बस ऐसा लगता है कि शेख साहेब ने अपनी कहानी के जरिए 'नारीवादी' परदा डालकर इस्लाम को बचा लिया और बेशुमार शोहरत भी हासिल किया.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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