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मैं, आप, हम सब कहीं ना कहीं गुस्से से भरे अल्बर्ट पिंटो हैं

    • ऋचा साकल्ले
    • Updated: 13 अप्रिल, 2019 12:44 PM
  • 13 अप्रिल, 2019 12:44 PM
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आज का अल्बर्ट पिंटो है आम आदमी. मैं आप हम सब हैं आज का अल्बर्ट पिंटो, जो अपने अपने संघर्षों के साथ एक गुस्सा मन में दबाए बस जिए जा रहे हैं बेबसी व्याकुलता और सब बदल देने वाली छटपटाहट के साथ.

अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है यह सवाल सिल्वर स्क्रीन पर 1980 में आया और अब यही सवाल सिल्वर स्क्रीन पर 2019 में भी उसी रुप में सामने आया कि अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है. जी हाँ अल्बर्ट पिंटो वही है गुस्सा वही है बस वक़्त का अंतर है. चार दशक पुराना अल्बर्ट पिंटो गुज़रते वक़्त के साथ अपने ग़ुस्से को पीता हुआ आज हताशा और निराशा के मुहाने पर खड़ा दिखाई देता है. सौमित्र रानाडे के अल्बर्ट पिंटो और सईद अहमद मिर्ज़ा के अल्बर्ट पिंटो में यही मूलभूत अंतर है.

अब आपके मन में सवाल उठेगा कि आख़िर अल्बर्ट पिंटो है कौन. तो जवाब यह है कि 80 के दशक का अल्बर्ट पिंटो जहां एक शोषित वर्ग का शख्स है जो अपने हालातों से इतना परेशान है कि उन्हें बदलना चाहता है और उसके ज़रिए कहानी उस दौर के सामाजिक राजनैतिक परिदृश्य को पूरा सामने लाकर खड़ा कर देती है. वहीं आज का अल्बर्ट पिंटो है आम आदमी. मैं आप हम सब हैं आज का अल्बर्ट पिंटो, जो अपने अपने संघर्षों के साथ एक गुस्सा मन में दबाए बस जिए जा रहे हैं बेबसी व्याकुलता और सब बदल देने वाली छटपटाहट के साथ. यह जानते हुए कि सामाजिक आर्थिक ढांचे के कुचक्र में फंसे हम लोगों के हाथ में कुछ नहीं है और है तो बस गुस्सा है सब बदल डालने का, ज़िद है हालातों को कुचल डालने की. आम आदमी की इस हताशा, निराशा और मानसिक द्वंद्व को अल्बर्ट पिंटो बन स्क्रीन पर बेहतरीन थियेट्रीकल परफ़ॉर्मेंस दी है अभिनेता मानव क़ौल ने.

मानव कौल की अदाकारी बेहद प्रभावित करती है

सौमित्र रानाडे का आज का अल्बर्ट पिंटो कौआ नहीं बनना चाहता है. वो कहता है समाज में तीन तरह के लोग हैं एक वो जो समाज के ड्राइवर हैं दूसरे वो स्लीपिंग डॉग्स हैं जिन्हें ये ड्राइवर सड़क पर सोते में ही कुचलते जा रहे हैं और तीसरे हैं वो कौअे जो तमाशा देखते हैं...

अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है यह सवाल सिल्वर स्क्रीन पर 1980 में आया और अब यही सवाल सिल्वर स्क्रीन पर 2019 में भी उसी रुप में सामने आया कि अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है. जी हाँ अल्बर्ट पिंटो वही है गुस्सा वही है बस वक़्त का अंतर है. चार दशक पुराना अल्बर्ट पिंटो गुज़रते वक़्त के साथ अपने ग़ुस्से को पीता हुआ आज हताशा और निराशा के मुहाने पर खड़ा दिखाई देता है. सौमित्र रानाडे के अल्बर्ट पिंटो और सईद अहमद मिर्ज़ा के अल्बर्ट पिंटो में यही मूलभूत अंतर है.

अब आपके मन में सवाल उठेगा कि आख़िर अल्बर्ट पिंटो है कौन. तो जवाब यह है कि 80 के दशक का अल्बर्ट पिंटो जहां एक शोषित वर्ग का शख्स है जो अपने हालातों से इतना परेशान है कि उन्हें बदलना चाहता है और उसके ज़रिए कहानी उस दौर के सामाजिक राजनैतिक परिदृश्य को पूरा सामने लाकर खड़ा कर देती है. वहीं आज का अल्बर्ट पिंटो है आम आदमी. मैं आप हम सब हैं आज का अल्बर्ट पिंटो, जो अपने अपने संघर्षों के साथ एक गुस्सा मन में दबाए बस जिए जा रहे हैं बेबसी व्याकुलता और सब बदल देने वाली छटपटाहट के साथ. यह जानते हुए कि सामाजिक आर्थिक ढांचे के कुचक्र में फंसे हम लोगों के हाथ में कुछ नहीं है और है तो बस गुस्सा है सब बदल डालने का, ज़िद है हालातों को कुचल डालने की. आम आदमी की इस हताशा, निराशा और मानसिक द्वंद्व को अल्बर्ट पिंटो बन स्क्रीन पर बेहतरीन थियेट्रीकल परफ़ॉर्मेंस दी है अभिनेता मानव क़ौल ने.

मानव कौल की अदाकारी बेहद प्रभावित करती है

सौमित्र रानाडे का आज का अल्बर्ट पिंटो कौआ नहीं बनना चाहता है. वो कहता है समाज में तीन तरह के लोग हैं एक वो जो समाज के ड्राइवर हैं दूसरे वो स्लीपिंग डॉग्स हैं जिन्हें ये ड्राइवर सड़क पर सोते में ही कुचलते जा रहे हैं और तीसरे हैं वो कौअे जो तमाशा देखते हैं और फिर इन कुचले हुए लोगों पर टूट पड़ते हैं उन्हे नोंच नोंच कर खा लेते है. इसीलिए बस इसीलिए रानाडे का अल्बर्ट पिंटो मानव क़ौल कौआ नहीं बनना चाहता. सामाजिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक पक्षों को उकेरती मानव और नंदिता की यह फिल्म मानवीय संवेदना को फोकस करती है. नंदिता ने फिल्म में मानव की गर्लफ़्रेंड स्टेला का रोल अदा किया है.

फिल्म की कहानी आपको अपनी सी लगेगी

फिल्म का अल्बर्ट पिंटो शुरु में एक सामान्य इंसान की तरह ही जीता सपने देखता अपनी दुनिया सजाने की कल्पना रखने वाला दिखाया गया लेकिन ईमानदार पिता पर बेईमानी का दाग लगने और उनके आत्महत्या कर लेने का उस पर इतना गहरा असर पड़ता है कि वो साज़िश में शामिल लोगों को जान से मार देने का ही मन बना लेता है. पिता की मौत का बदला लेने का गुस्सा और आवेश एक सामान्य संवेदनशील इंसान से उसे कब एक क़िस्म के मनोरोगी में बदलते दिखाया जाता है कि कहीं ना कहीं आप खुद को उससे जोड़ लेते हैं और उसकी कहानी आपको अपनी कहानी लगती है. आख़िर में फिर क्या होता है अल्बर्ट पिंटो का गुस्सा क्या गुल खिलाता है जानने के लिए तो आप थियेटर हो आइए. लेकिन हाँ यह फिल्म आपको काफ़ी कुछ सोचने पर मजबूर करने में सक्षम दिखती है.

हमेशा की तरह मानव क़ौल के अलावा नंदिता दास और सौरभ शुक्ला ने भी अपनी अदाकारी से फिल्म में उपस्थिति को सफल बनाया है. स्टेला के रोल में नंदिता का स्कोप इतना नहीं रहा लेकिन अल्बर्ट पिंटो के मानसिक द्वंद और संवेदनाओं को दिखाने के लिए उसकी ज़िंदगी में आने वाली हर महिला किरदार में उसे स्टेला यानि नंदिता का चेहरा देखने की कल्पना करते हुए दिखाना फ़िल्मी पटल पर एक और क्रिएटीविटी से कम नहीं लगा. फिल्म बढ़िया है अच्छी मानसिक कसरत को अंजाम देगी इसका वादा है बस ख़ुश होकर देखने जाइएगा क्योंकि यह मानसिक कसरत आपको थका सकती है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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